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उत्तराखंड में राजनीतिक दलों के रडार पर नहीं है वन अधिकार कानून : कार्यकर्ता

उत्तराखंड में 14 फरवरी को एक ही चरण में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में कार्यकर्ता वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की मांग कर रहे हैं

उत्तराखंड में राजनीतिक दलों के रडार पर नहीं है वन अधिकार कानून : कार्यकर्ता
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नई दिल्ली। उत्तराखंड में 14 फरवरी को एक ही चरण में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में कार्यकर्ता वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की मांग कर रहे हैं। एक ऐसे राज्य के लिए, जिसका लगभग 65 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वन के अधीन है, दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों में पांच अनुसूचित जनजाति और वन गुर्जर जैसे अन्य वनवासी समुदाय हैं, जो वन अधिकार अधिनियम के लागू होने का इंतजार कर रहे हैं। वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन लंबे समय से लंबित मुद्दा रहा है।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने कहा, विकास परियोजनाओं को अनुदान देने में ग्राम सभाओं और वन पंचायतों की भूमिका होगी। खनन, पर्यटन जैसे उद्योगों पर उनका नियंत्रण न केवल स्थानीय रोजगार सृजन में सुधार करेगा, बल्कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों को भी रोकेगा।

मोर्चा ने कहा, "इन सपनों को पूरा करने के लिए, हम चाहते हैं कि हमारे मतदाता और उम्मीदवार वन अधिकार अधिनियम को लागू करने के लिए अपनी पूर्ण और ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाएं और इसे खोखले वादे में न बदलें। वन अधिकार अधिनियम का क्रियान्वयन अभियान के अन्तर्गत समस्त विभागों के मध्य समन्वय स्थापित कर वन पंचायत नेतृत्व एवं वन पंचायतों को इस कानून के अंतर्गत वनों के संरक्षण एवं संवर्धन का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो।"

यह मामला काफी समय से चलता आ रहा है। उत्तराखंड में पांच अनुसूचित जनजातियां हैं और फिर वन गुर्जर जैसे कुछ वनवासी समुदाय हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 24 लाख है। वन अधिकारों के दायरे की बात करें तो उनके पास वन अधिकार हैं। हालांकि, राज्य के 13 जिलों में से कोई भी आदिवासी जिला नहीं है।

इन समुदायों के सदस्यों को गैर-लकड़ी वन उपज यानी नॉन टिम्बर फॉर्सेट प्रोड्यूस (एनटीएफपी) के संबंध में नियमित समस्याओं का सामना करना पड़ता है और कुछ को बेदखल करने का भी खतरा होता है।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने एक बयान जारी कर मांग की है कि वन अधिकार सम्मान के साथ जीने का अधिकार है, वन अधिकार विकास का अधिकार है और वन अधिकार पर्यावरण का अधिकार है।

मोर्चा ने आगे कहा, व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देने से वन गुर्जरों और वन ग्रामवासियों को उनके घर, जंगल और जमीन का अधिकार मिलेगा और वे एक सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम होंगे। उत्तराखंड के सैकड़ों गांवों में, यह आवश्यक है कि स्कूलों, अस्पतालों, बिजली जैसी आवश्यक चीजों तक पहुंच प्राप्त करने के लिए वन अधिकार अधिनियम को लागू किया जाए। यह वन पंचायतों और ग्राम सभाओं को विकास कार्यो के लिए भूमि खोजने में मदद करेगा और विकास कार्यों के लिए सरकार द्वारा आवंटित धन की खरीद में भी मदद करेगा।

मोर्चा का कहना है कि वन अधिकारों की मान्यता से वन पंचायतें अपने समाज की आवश्यकता के अनुसार जैसे चारा, वनोपज, पोषण आदि तथा जैव विविधता के हित में वनों का प्रबंधन करेंगी।

मोर्चा ने कहा, सामुदायिक भागीदारी से जंगल की आग, मानव-पशु संघर्ष, भूस्खलन आदि के मामले में अधिक प्रभावी आपदा प्रबंधन होगा।


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