पांच ट्रिलियन डालर की कठिन राह
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सस्ता अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है और अब उत्तराखंड में पशुओं के लिए घास भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा उपलब्ध करने की योजना है।

वर्तमान में सरकार ने लोक कल्याण पर विशेष जोर दे रखा है। जैसे उज्ज्वला योजना के अंतर्गत सिलेंडर बांटे जा रहे हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सस्ता अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है और अब उत्तराखंड में पशुओं के लिए घास भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा उपलब्ध करने की योजना है। इस प्रकार की योजनाओं से इन माल की सरकारी मांग बनती है।
कोवैक्सीन टीके के निर्माण के बाद करोना का संकट दूर होता दिख रहा है लेकिन 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था का सपना फिरभी हासिल करने में कई पेंच हैं। वर्तमान स्थिति अनुकूल नहीं दिखती है। वर्ष 2010 से 14 के कांग्रेस के कार्यकाल में हमारी औसत जीडीपी विकास दर 6.7 प्रतिशत थी जो कि वर्ष 2015-19 के भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान सरकारी आंकड़ों के अनुसार 7.5 प्रतिशत हो गई है।
लेकिन जमीनी स्तर के आंकड़े इस अवधि में ऊंची विकास दर को प्रमाणित नहीं करते हैं। जैसे दो पहिया वाहनों की वार्षिक बिक्री की विकास दर कांग्रेस सरकार के समय 25.7 फीसदी थी जो कि भाजपा सरकार के समय 13.2 फीसदी रह गई है। ट्रैक्टरों की बिक्री की विकास दर कांग्रेस के समय 15.7 फीसदी थी जो भाजपा सरकार के समय 4.5 फीसदी रह गई है।
कमर्शियल वाहन जैसे ट्रकों की बिक्री की विकास दर कांग्रेस कार्यकाल में 10.5 फीसदी थी जो कि भाजपा सरकार के कार्यकाल में 9.7 फीसदी रह गई है। रेलवे में यात्रियों से उपलब्ध आय की विकास दर कांग्रेस सरकार के समय 10.8 फीसदी थी जो कि भाजपा सरकार के दौरान 7.3 फीसदी रह गई है।
केवल हवाई यात्रा की विकास दर भाजपा सरकार के समय तीव्र रही है। यह कांग्रेस सरकार के समय में 9.2 फीसदी थी जो कि भाजपा सरकार के समय 15.3 फीसदी हो गई है। इन जमीनी आंकड़ों से संदेह उत्पन्न होता है कि भाजपा सरकार ने जो अपने कार्यकाल में 7.5 फीसदी की विकास दर बताई है वह वास्तविक है या फिर मात्र आंकड़ेबाजी है। विषय महत्वपूर्ण इसलिए है कि आंकड़ेबाजी से हम 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था नहीं बन सकते हैं।
हमारी अर्थव्यवस्था का 5 ट्रिलियन डालर का बनना प्रमाणित होना वैश्विक संस्थाओं के आकलन पर निर्भर होगा। विश्व बैंक सरकार के द्वारा दिए गये आंकड़ों को ही मानता है इसलिए वह भले ही प्रमाणित कर दे लेकिन तमाम स्वतंत्र रेटिंग एजेंसियां और स्वतंत्र बैंक इस प्रकार के आंकड़ों को नहीं मानते हैं।
इसलिए सरकार को चाहिए कि आंकड़ों के भरोसे अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के प्रयास करने के स्थान पर जमीनी समस्याओं को हल करे।
आने वाले समय में आर्थिक विकास का आधार नई तकनीकें होंगी। आज विश्व अर्थव्यवस्था में अमेरिका की महारत तकनीकी आविष्कारों पर टिकी हुई है।
माइक्रोसाफ्ट ने विन्डोस सॉफ्टवेयर बनाया, मोनसेंटो ने बीटी काटन के बीज बनाए, सिस्को ने इंटरनेट के राउटर बनाए, सरकारी संस्था नासा ने अंतरिक्ष यान बनाए। इस प्रकार के तकनीकी आविष्कारों को अमेरिका द्वारा सम्पूर्ण विश्व को महंगा बेचकर भारी लाभ कमाए जा रहे हैं। जैसे एक रपट के अनुसार विन्डोस सॉफ्टवेयर की उत्पादन लागत केवल 1 डालर प्रति सॉफ्टवेयर होती है जिसे माइक्रोसाफ्ट कम से कम 11 डालर में बेचता है।
इस प्रकार के लाभ कमाकर ही अमेरिका आगे बढ़ा है। विशेष यह कि अमेरिकी संस्थाओं में तकनीकी आविष्कार करने पर भारतीय वैज्ञानिकों की बहुत अहम् भूमिका है। कई संस्थानों में लगभग एक तिहाई कर्मी भारतीय हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश ये विशिष्ट क्षमता वाले कर्मी भारत में आकर फेल हो जाते हैं।
मैं जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट बंगलुरू में पढ़ाता था उस समय कई ऐसे अवसर आए कि भारतीय मूल के प्रोफेसरों ने अमेरिका से आकर आईआईएम में नौकरी की। लेकिन यहां के वातावरण में संतुष्ट न होकर वे वापस चले गये।
इस दुखद स्थिति को बनाने में हमारे नेताओं की विशेष भूमिका दिखती है। इनके द्वारा अपने जानने वालों की अक्षमता की अनदेखी करके उन्हें संस्थाओं के निदेशक नियुक्त किये जाते हैं। ऐसा करने से संस्था की अपनी गरिमा समाप्त हो जाती है।
इसलिए सरकार को अपने जानने वालों को वैज्ञानिकों अथवा शिक्षित संस्थाओं में नियुक्त करने के स्थान पर केवल मेरिट के आधार पर नियुक्ति करना चाहिए न कि सिफारिश के आधार पर। साथ ही सरकार को निंदक नियरे राखिये के सिद्धांत को अपनाना चाहिए। निंदक को पास में रखने से अपने दोष स्वयं को ज्ञात हो जाते हैं और सरकार सही दिशा को अपना लेती है। कोई ब्रह्मज्ञानी पैदा नहीं होता है।
गलती सब करते हैं। गलती को सुधारने का सिस्टम बना कर रखना चाहिए। अपनी गलती का सुधार नहीं करने से स्वयं का पतन होता है। यदि सरकार ने वर्तमान स्थिति में सुधार नहीं किया तो हमारे वैज्ञानिक भारत छोड़कर अमेरिका आदि देशों को पलायित होते रहेंगे और हम पिछड़ते ही रहेंगे और 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था नहीं बन पायेंगे।
वर्तमान में सरकार ने लोक कल्याण पर विशेष जोर दे रखा है। जैसे उज्ज्वला योजना के अंतर्गत सिलेंडर बांटे जा रहे हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सस्ता अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है और अब उत्तराखंड में पशुओं के लिए घास भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा उपलब्ध करने की योजना है।
इस प्रकार की योजनाओं से इन माल की सरकारी मांग बनती है। जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेहूं को उपलब्ध करने के लिए सरकार को किसानों से गेहूं खरीदना पड़ता है। लेकिन अंतर यह है कि यह मांग सरकार द्वारा दूसरे उद्योगों पर लगाए गये टैक्स की रकम से बनती है। जैसे यदि एक परिवार को 30 किलो गेहूं सरकार ने 2 रुपये की दर से 60 रुपये में उपलब्ध कराया। और इस 30 किलो का वास्तविक मूल्य 600 रुपया है।
तो सरकार को यह 600 रुपया किसी अन्य स्थान पर टैक्स के रूप में वसूल करके, इससे गेहूं खरीदकर सम्बंधित परिवार को उपलब्ध करना पड़ेगा। उस परिवार की स्थिति अकर्मण्य बनी रहेगी। उस परिवार के लिए उत्पादन करन जरूरी नहीं रहता है।
वह केवल घर में बैठकर गेहूं की खपत करता रह सकता है। इस व्यवस्था में समस्या यह है कि कल्याणकारी खर्चों के दबाव के कारण सरकार के राजस्व का उपयोग तकनीक जैसे आवश्यक निवेश के स्थान पर लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने में खप जाएगा जिससे अंतत: हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ेगी।
इसलिए सरकार को चाहिए कि ऐसी नीतियां लागू करे जिससे जनता स्वयं उत्पादक कार्यों में लिप्त हो सके और आय अर्जित कर सके और अनाज खरीद सके। जैसे हमारे गांव के युवा यदि संगीत का निर्माण कर उसका विक्रय कर सकें और उस रकम से यदि वही 30 किलो गेहूं खरीदते तो सरकार के ऊपर टैक्स का बोझ नहीं लगता।
संगीत के उत्पादन से अर्थव्यवस्था भी बढ़ती। इसलिए सरकार को समझना चाहिए कि लोक कल्याण पर सरकारी खर्च से अर्थव्यवस्था अंतत: कमजोर पड़ती है।
इसके स्थान पर जनता को सक्षम बनाकर बाजार में मांग उत्पन्न करनी चाहिए। यदि सरकार तकनीक में निवेश और आम आदमी को आय अर्जी करने को सक्षम बनाएगी तो हम शीघ्र ही 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बन सकते हैं अन्यथा यह सपना हासिल करना मुश्किल ही रहेगा।


