पहली पंक्ति के नेता
वेबचपन से पहली पंक्ति के नेता रहे है। अपने पिताजी के पिताजी के समय से पहली पंक्ति वाली राजनीति में रहे

- भूपेन्द्र भारतीय
वेबचपन से पहली पंक्ति के नेता रहे है। अपने पिताजी के पिताजी के समय से पहली पंक्ति वाली राजनीति में रहे। बचपन में अपने दादाजी के साथ पहली पंक्ति में बैठते थे। पाँच दशक से उन्हें कोई पहली पंक्ति से उठा नहीं पाया। हर राजनीतिक आयोजन में उनके लिए पहली पंक्ति में सीट आरक्षित रही है। मजाल की वे अपने क्षेत्र व पंक्ति से टस से मस हुए हो ! ना उन्हें कोई पहली पंक्ति से दूसरे पंक्ति में धकेल सका। आखिर नेतागिरी उनके बापदादा की जागीर जो ठहरीं। वे जन्मजात नेता जो ठहरे।
लेकिन इस सोशल मीडिया रूपी घोर कलयुग ने उनसे उनकी यह विरासत छीन ली। क्या जमाना आ गया ! युवाओं को अवसर देने के नाम पर उनके साथ राजनीति का सबसे बड़ा छल किया गया। उन्हें राजनीति में अग्रणी से सीधे बैकबेंचर बना दिया। पहली पंक्ति से सीधे राजनीति के कोपभवन में। लोकतंत्र नाम के खंभे ने उनकी नींव हिला दी। प्रजातंत्र ने उनसे उनकी जागीरी छीन ली। कहाँ तो हाईकमान ने अच्छे दिनों का वादा किया था और ऊपर से ये दिन देखने पड़ेंगे । उनकी राजनीति चाँद से सीधे उनकी गली में आ गई। अब गली का बुजुर्ग मतदाता भी उन्हें नहीं पूछ रहा है। युवा मतदाता उनकी राजनीति से परिचित ही नहीं है। वह तो उन्हें नेता ही नहीं मानते। भला बड़ी कार व चेले-चपाटों के बगैर कोई नेता हो सकता है ? अब पहली पंक्ति के नेता की परिभाषा बदल चुकी है।
क्या दौर था जब वे पहली पंक्ति के नेता थे। उनके एक इशारे पर पूरा क्षेत्र एकतरफा मतदान करता था। उनका दल उनके लिए हर समय रेड कार्पेट बिछाकर रखता था और अब देखो तो उन्हें टाटपट्टी तक नसीब नहीं हो रही है। उम्र के अंतिम पड़ाव पर बैकबेंचर बना दिया। वे जब पहली पंक्ति के नेता थे तो क्षेत्र में उनकी तूती बोलती थी। मजाल की हाइकमान उनसे बगैर पूछे कोई निर्णय ले सके। बड़े बड़े नेताओं की टिकट उनकी जेब में पड़ी रहती थी। ओर अब ये स्थिति है कि उनका ही टिकट कट गया है। पहली पंक्ति में आने के लिए राजधानी के चक्कर लगा रहे है। कहाँ तो अपने समय में वे स्वयं टिकट बांटते थे और अब उनकी टिकट के लाले पड़े हैं।
क्या समय आ गया है, अब उन्हें कोई नहीं पूछ रहा है। वर्तमान में पहली पंक्ति के नेता तो छोड़ो, उन्हें तो उनके ही समय के वरिष्ठ नेता तक नहीं पूछ रहे हैं।
वह भी क्या दौर था, जब वे पहली पंक्ति के नेता थे। सुबह से उनके घर पर ही कार्यकर्ताओं का ताँता लग जाता था। उनके परिवार के सदस्य उनका बहुत सम्मान करते थे। पहली पंक्ति के नेता होने के कारण परिवार के लोगों का भी उनके क्षेत्र में बहुत सम्मान था। छोटेमोटे काम स्वत: ही हो जाते थे। लेकिन अब परिवार के सदस्यों को भी कोई नहीं पूछ रहा है। पड़ोसी तक उन्हें नहीं पूछते। राजनीतिक चर्चाएं अब उनके परिवार में नहीं होती हैं। परिवार में कोई राजनीति की बात भी करता है तो सब उसे पागल समझकर आगे बढ़ जाते हैं।
अपने समय में वे अपने दल के पहली पंक्ति के नेता के साथ ही अग्रणी वक्ता भी थे। वे अग्रणी वक्ता आज भी है, लेकिन अब उन्हें उनका ही दल याद नहीं करता। नये कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण तक में उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता है। सोशल मीडिया की राजनीति के समय में उनके हाथ में ना मंच है ओर ना ही माईक। पहली पंक्ति के नेता इस स्थिति में अब अपनी राजनीति चमकाने के लिए विपक्ष की भूमिका में आ गए हैं। उन्हें लगता है कि शायद विपक्ष की भूमिका में आकर वे फिर से पहली पंक्ति के नेता का गौरव प्राप्त कर सकते हैं...!!


