पहली बाजी कांग्रेस के नाम
2024 में चुनाव की घोषणा कब होती है, तब तक देश में राजनैतिक तौर पर कितनी तोड़-फोड़ हो चुकी होगी

- सर्वमित्रा सुरजन
2024 में चुनाव की घोषणा कब होती है, तब तक देश में राजनैतिक तौर पर कितनी तोड़-फोड़ हो चुकी होगी, और चुनावों का क्या नतीजा निकलेगा, इस बारे में कोई अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। लेकिन अगर इसे राजनैतिक अखाड़े की कुश्ती के तौर पर देखा जाए, तो ऐसा लग रहा है कि फिलहाल इसमें पहला राउंड कांग्रेस ने जीत लिया है। कांग्रेस इंडिया का अहम हिस्सा है।
यदि भारत को अपने संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों को कायम रखना है तो आज सभी उदारवादी मध्यमार्गी शक्तियों को एकजुट होना पड़ेगा और इसकी ईमानदार पहल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को ही करना पड़ेगी।
देशबन्धु के प्रधान संपादक रहे ललित सुरजन ने 19 दिसम्बर 2013, गुरुवार को प्रकाशित अपने आलेख सोनिया गांधी : नई चुनौतियां में यह सलाह कांग्रेस को दी थी। देश में तब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। जिसके खिलाफ अन्ना आंदोलन के जरिए बड़े शातिर तरीके से माहौल बनाया गया था। यह नजर आ रहा था कि कांग्रेस को हटाकर देश की कमान ऐसे हाथों में देने की तैयारी है, जिससे संविधान पर खतरा आ सकता है। इसलिए कांग्रेस को आगाह किया गया था। नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, और वाइब्रेंट गुजरात जैसे आयोजनों के बूते कार्पोरेट शक्तियां उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी कर चुकी थीं। लगातार दो बार सत्ता में आ चुकी कांग्रेस को आसानी से हटाया नहीं जा सकता था। सो पूरी पटकथा तैयार की गई।
भाजपा का जमीनी आधार उसके कार्यकर्ताओं और संघ के कारण मजबूत था, जबकि कांग्रेस के नेताओं पर सत्ता का अहंकार भरपूर चढ़ा हुआ था। सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी तो हमेशा से जनता के बीच जाकर खुश दिखाई देते रहे, लेकिन उस वक्त उनके इर्द-गिर्द नेताओं ने जो घेराबंदी कर रखी थी, उसने सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ताओं को उन तक पहुंचने से रोका और कांग्रेस की जमीनी हकीकत भी उन तक नहीं पहुंच पाई। भाजपा ने इस स्थिति का पूरा फायदा उठाते हुए कांग्रेस के खिलाफ ऐसा कथानक तैयार किया, मानो देश की हर समस्या के लिए केवल कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार जिम्मेदार है। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं ने इस नैरेटिव को तैयार करने में भाजपा की मदद भी की। इनमें से कई अब भाजपा में आ चुके हैं, कुछ दूसरे दलों में चले गए हैं, कुछ ने अपनी पार्टी का गठन भविष्य में मोलभाव की उम्मीदों के साथ कर लिया कि जिसका वजन अधिक होगा, वहां अपना समर्थन देने चले जाएंगे।
मीडिया ने भी चौथा खंभा बनने के अपने उत्साह को दिखाते हुए यूपीए सरकार, डॉ.मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, सोनिया गांधी की आलोचना में कोई कमी नहीं छोड़ी। एकबारगी यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र में मीडिया की दमदार भूमिका जैसा लग सकता है। लेकिन गौर से देखें तो उस वक्त के मीडिया ने संघ और भाजपा के अपने मालिकों से वफादारी के लिए यह सब किया। यह कोई छिपी बात नहीं है कि दिल्ली के मीडिया में संघ और भाजपा के बड़े नेताओं ने किस तरह पत्रकारों को अपने लिए नियुक्त कर रखा था, जिन्होंने वक्त आने पर अपनी नियुक्ति के उद्देश्यों को पूरा किया।
जो मीडिया उस वक्त महंगाई, बेरोजगारी या भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर चीख-चीख कर डॉ. मनमोहन सिंह से चुप्पी तोड़ने कहता था, और लगभग अपमान करते हुए उनसे सवाल करता था, वही मीडिया अब नरेन्द्र मोदी से सवाल पूछना तो दूर, ये तक पूछने की हिम्मत नहीं दिखा पाता कि आपने 9 सालों में एक बार भी मीडिया को खुले सवाल-जवाब के लिए क्यों नहीं बुलाया। ये किस तरह का लोकतंत्र है, जहां आपके मन की बात तो जनता को हर महीने बदस्तूर सुनाई जा रही है, लेकिन जनता के मन की बात सुनने के लिए आप वक्त नहीं निकाल रहे। 2013 के उस दौर में देश के तथाकथित उदार विचारकों, बुद्धिजीवियों ने भी कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार की सत्ता को खूब कोसा। उनकी तथाकथित दूरदृष्टि यह देख नहीं पाई कि लाख बुराइयों के बावजूद यह कांग्रेस ही है, जिसमें संविधान के मूल्यों और इस देश की आत्मा माने जाने वाली धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी संस्कृति को बचाए रखने की उम्मीदें देखी जा सकती हैं। या फिर अपनी महानता के भ्रम में कैद इन बुद्धिजीवियों ने सोच-समझ कर कांग्रेस के पराभव में अपना योगदान दिया, ताकि संविधान को बदलने का दावा जो राजनैतिक ताकतें कर रही थीं, उन्हें इसका एक मौका दिया जाए।
राजनीति, कार्पोरेट, मीडिया, बौद्धिक तबका इन सबने अपने-अपने हिस्से की भूमिका निभाकर न केवल भाजपा को आगे बढ़ाने का काम किया, बल्कि उतनी ही शक्ति कांग्रेस को खत्म करने में लगा दी। श्री मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा लगाते थे, वो अनायास नहीं आया होगा, इसके पीछे सुविचारित रणनीति काम कर रही थी। सोनिया गांधी तब कांग्रेस की अध्यक्ष थीं और यूपीए का जिम्मा भी उन्हीं पर था। इसलिए ललितजी ने अपने आलेख में उनके सामने भावी चुनौतियों का जिक्र करते हुए उदारवादी मध्यमार्गी शक्तियों को एकजुट करने की सलाह 10 साल पहले दे दी थी। आज जब इंडिया यानी इंडिया नेशनल डेवल
पमेंटल इनक्लूसिव एलांयस का गठन हो चुका है, तो मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, लेकिन इस विपक्षी मोर्चे के केंद्र में फिर से सोनिया गांधी ही नजर आईं। बेंगलुरु की बैठक में उनकी भूमिका अहम रही, खासकर ममता बनर्जी जैसे नेताओं को अपने साथ लाने में। पटना की बैठक में नीतीश कुमार नेतृत्व कर रहे थे और इस बात के लिए उनकी प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने देश भर के नेताओं और अलग-अलग दलों के लोगों से मिलकर विपक्षी एकजुटता की पहल की। इसमें कांग्रेस को लेकर कई दलों में संदेह भी नजर आया। लेकिन आखिरकार नीतीश जी की मेहनत रंग लाई और सब एक मंच पर इकठ्ठा हुए। पटना से बेंगलुरु पहुंचने तक देश की राजनैतिक तस्वीर में भी कई फेरबदल हो गए हैं। मगर इससे विपक्षी मोर्चे की एकजुटता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, यह खुशी की बात है। अब इंडिया की अगली बैठक मुंबई में होगी, जिसमें चुनावों के मद्देनजर और बहुत सी बातें तय होंगी।
2024 में चुनाव की घोषणा कब होती है, तब तक देश में राजनैतिक तौर पर कितनी तोड़-फोड़ हो चुकी होगी, और चुनावों का क्या नतीजा निकलेगा, इस बारे में कोई अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। लेकिन अगर इसे राजनैतिक अखाड़े की कुश्ती के तौर पर देखा जाए, तो ऐसा लग रहा है कि फिलहाल इसमें पहला राउंड कांग्रेस ने जीत लिया है।
कांग्रेस इंडिया का अहम हिस्सा है। लालूजी के विचारों को उधार लेकर कहें तो विपक्षी दलों की बारात में दूल्हा कांग्रेस का ही है। और यह मानने में कोई गलती नहीं है कि भाजपा और श्री मोदी खुद इस राजनैतिक लड़ाई को समूचे विपक्ष की जगह केवल कांग्रेस और राहुल गांधी से लड़ाई के तौर पर ही देखेंगे। भाजपा ने अपनी सत्ता की शुरुआत में मोदी के मुकाबले कौन वाला माहौल बनाया और जब राहुल गांधी उसे खतरे की तरह नजर आए तो मोदी बनाम राहुल हर चुनाव को बनाती रही। जैसे-जैसे भाजपा की जीत होती रही, राहुल गांधी को नाकारा साबित करने का उसका अभियान भी सफल होता गया। इस तरह मोदी बनाम राहुल के चुनावी माहौल में मोदी का पक्ष भारी रहा। लेकिन राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के साथ ही भाजपा के इस नैरेटिव को गलत करना साबित कर दिया। वे मैं की जगह हम पर जोर देते रहे, किसी से मुक्त होने की नहीं, सबको जोड़ने की बात करते रहे। डरो मत और मोहब्बत की दुकान राजनैतिक क्षितिज पर नए नारों के तौर पर उभरे और अब इंडिया नामकरण ने भाजपा की इतने बरसों की कोशिश को एक झटके में विफल कर दिया है। मोदीजी शब्दों के संक्षिप्तीकरण के उस्ताद रहे हैं, लेकिन इस बार विपक्ष ने उन पर बढ़त बना ली है।
इंडिया शब्द में समावेशी विकास की बात है, जो भारत जैसे देश की प्रगति का आधार है। इंडिया के जरिए विपक्ष ने भाजपा के राष्ट्रवाद का भी करारा जवाब दिया है। अब जिसे एनडीए का साथ देना है, वो दे, लेकिन जो इंडिया का विरोध करेगा, उसमें देश के विरुद्ध जाने का एहसास आएगा। इसलिए अब एनडीए के सामने अपनी लकीर बड़ी करने की कठिन चुनौती आ गई है।
इंडिया के इस पहले दांव से प्रधानमंत्री मोदी हड़बड़ाए नजर आए और उन्होंने एनडीए के लिए न्यू इंडिया, डेवल्प्ड और एस्पिरेशन जैसे शब्द विस्तार दे दिए, जो फिलहाल भाजपा की नीतियों के जैसे ही उथले नजर आ रहे हैं। भारत को डेवल्प्ड तभी कहा जा सकेगा, जब उसमें समावेशी विकास की बात होगी, लोगों की आकांक्षाओं को समझने की चिंता सरकार में दिखेगी। अभी ऐसा नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि 2024 के चुनाव में पहली बाजी कांग्रेस के नाम रही है। अब इंडिया के सामने संविधान के शाश्वत मूल्यों को बचाने की जिम्मेदारी है।


