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आंकड़े बदले हैं, गरीबी नहीं

इंदिरा गांधी को दोष दिया जाता है कि उन्होंने 'गरीबी हटाओ' के नारे का राजनैतिक इस्तेमाल कर लिया और गरीबी जस की तस बनी रही

आंकड़े बदले हैं, गरीबी नहीं
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- अरविन्द मोहन

हमारे प्रधानमंत्री कहीं ऐसे आंकड़ों का हल्का लाभ ले सकते हैं, चुनाव में उसे गरीबी हटाओ जैसा नारा नहीं बना सकते। उन्होंने अगर कोरोना काल में अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन देने का फैसला किया है तो यह देखकर ही कि किस तरह तालाबंदी घोषित होते ही करोड़ों प्रवासी घर की तरफ भागे क्योंकि कमाने की जगह पर होने के बावजूद वे हफ्ते भर का राशन जमा करने की स्थिति में नहीं थे।

इंदिरा गांधी को दोष दिया जाता है कि उन्होंने 'गरीबी हटाओ' के नारे का राजनैतिक इस्तेमाल कर लिया और गरीबी जस की तस बनी रही। जाहिर है तब भी, अर्थात सत्तर के दशक के शुरुआत में गरीबी हमें चुभने लगी थी और इसे राजनीतिक इस्तेमाल करने की स्थिति आ गई थी बल्कि साठ के दशक के अंत में महंगाई बड़ा मुद्दा बनी थी और कांग्रेस 1967 का चुनाव मुश्किल से जीत पाई थी। इंदिरा गांधी ने अपनी समझ से समाजवाद लाने की दिशा में प्रिवीपर्स की समाप्ति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे की कदम उठाए थे जिसके बाद ही उनको इस नारे की सूझी होगी और लोगों ने भी उसी आधार पर इसे भी एक बड़ा प्रयास मानते हुए इंदिरा गांधी को वोट दिया।

आज फिर चुनावी राजनीति में गरीब और खास तौर से गरीबों की संख्या मुद्दा बनती जा रही है और संभव है काफी सारे मुद्दे हवा में उछालकर टेस्ट कर चुकी मोदी सरकार को अपनी यह 'उपलब्धि' चुनाव जिताने लायक लगे। अपनी हाल की अमेरिका यात्रा में वहां की संसद के दोनों सदनों की साझा बैठक को संबोधित करते समय उन्होंने जब देश से गरीबी घटाने की बात की तो सबसे जोरदार तालियां बजी थीं। प्रधानमंत्री जो आंकड़े दे रहे थे वे ऐसे जोरदार थे भी।

मोदी जी ने कहा कि देश में गरीबों की संख्या में लगभग 42 करोड़ की कमी हो चुकी है। जाहिर तौर पर वे इसे अपनी सरकार की नौ साल की उपलब्धि बताते रहे। और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वे मजे लेकर यह भी बताते रहे कि यह संख्या यूरोप के किसी भी देश की आबादी से काफी अधिक ही नहीं अमेरिका की आबादी से भी अधिक है। किसी देश का प्रधानमंत्री, और वह भी जिसे संसद के संयुक्त सत्र में भाषण देने के लिए बुलाया जाए, अगर ऐसी उपलब्धि बताता है तो उत्साह दिखाना या तालियां बजाना तो बहुत छोटी बात है। कायदे से इसे बहुत बड़ी उपलब्धि मानना चाहिए और यह बात इतिहास में दर्ज होने लायक है। जल्दी ही यह बात खुल गई कि प्रधानमंत्री जिस आंकड़े का जिक्र कर रहे थे वह यूएनडीपी की एक खास शैली की गणना पर आधारित है (और यह प्रति व्यक्ति आय या खर्च वाली पारंपरिक गणना नहीं है) और ये आंकड़े असल में 2005-06 से 2019-20 के हैं। इसका मतलब हुआ कि ज्यादातर हिसाब मनमोहन सरकार के दौर का है और इस सरकार के कामकाज के पहले पांच साल ही हिसाब में आए हैं। दूसरी गड़बड़ बाद में कई अर्थशास्त्रियों ने बताई कि हाल के वर्षों में आंकड़ों का जमा होना और उनका हिसाब ही गड़बड़ा गया है, इसलिए इस पूरे आंकड़े को बहुत विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

रायटर्स ने बाद में भारत सरकार के आंकड़ों के आधार पर ही बताया कि मार्च 2021 के पहले के पांच वर्षों में भारत में 13.5 करोड़ लोग गरीबी से मुक्त हो गए। यह आंकड़ा यूनाइटेड नेशंस मल्टीडाईमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स के आधार पर तैयार हुआ है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल, ईंधन जैसे बारह मानकों का हिसाब रखा जाता है। इसमें प्रति व्यक्ति खर्च का आधार भी हल्का ऊंचा है। अब जब सामान्य आंकड़े नहीं जुटाए जा रहे हैं तो बारह तरह के आंकड़े कैसे आए? यह सवाल अपनी जगह है। पर बयालीस करोड़ और साढ़े तेरह करोड़ का फर्क तो कोई भी बताया सकता है। लेकिन अगर हम इसमें कोरोना काल और अभी हाल तक सरकार द्वारा गरीबों को मुफ़्त राशन उपलब्ध कराने वाले आंकड़ों को सामने रख दें तो आंकड़े क्या हमारी बुद्धि भी काम करना बंद कर देगी क्योंकि सरकार 80 करोड़ गरीबों को राशन खिलाने के दावे करती रही है। बहुत सारे राजनैतिक पंडित इससे पैदा लाभार्थियों का वोट मोदीजी के लिए सबसे बड़ी ताकत मानते रहे हैं। वैसे साढ़े तेरह करोड़ का आंकड़ा भी कम नहीं है क्योंकि यह देश की आबादी का दस फीसदी हुआ।

असली चमत्कार प्रो. सुरजीत भल्ला, करण भसीन और विरमानी द्वारा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए किए अध्ययन में हुआ जिसमें दावा किया गया कि अब देश में मात्र 1.2 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रह गए हैं, जो भाजपा सरकार की नीतियों से संभव हुआ है। गरीबों की संख्या एक फीसदी के नीचे आ जाना सचमुच एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। प्रो. भल्ला इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने जाने क्या-क्या आधार अपनाकर यह दावा भी कर दिया कि गरीबी मनमोहन राज में भी घटी लेकिन भाजपा राज में इसमें भारी तेजी आ गई है। समय न लगा कि ज्यां ड्रेज और अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने इस सारे हिसाब की भयावह गड़बड़ियों को उजागर किया। तब तो यह सवाल भी उठे कि आर्थिक गणनाओं में ऐसी चूक या फरेब करने वालों से आईएमएफ ऐसे अध्ययन क्यों कराता है। भल्ला एंड कंपनी ने भी स्वीकार किया कि उन्होंने 2011-12 का जो आधार बनाया वह असल मे 2005-06 की एक अलग शृंखला (जिसका आधार भी अलग था) थी। ऐसा ही एक गड़बड़ अमेरिका के नामी अर्थशास्त्री नोह स्मिथ ने किया जो लगातार ब्लाग के जरिए अपना अनुमान देते थे। उन्होंने लिखा कि 2016 में भारत में 12.4 करोड़ गरीब थे जो 2022 में 1.5 करोड़ रह गए पर जल्दी ही उनको जब चौतरफा मार पड़ी तो उन्होंने सुधार किया कि और बताया कि 1993 में भारत में गरीबी रेखा के नीचे अगर 47.6 फीसदी लोग रहते थे तो अब यह अनुपात 10 फीसदी हो गया है।

आर्थिक गणना, उसके आधार, उसके पैमाने और नतीजों के पीछे का नजरिया अपनी जगह है और इसमें गरीबी काम होने के आंकड़ों में हल्का अंतर आ सकता है। जैसा ऊपर बताया गया है भारत में गरीबी का अध्ययन कुछ खास किस्म के चश्मों से ही नहीं होता। इसके पीछे कुछ खास नीतियों और बड़े आर्थिक फैसले कराने का दबाव भी होता है। मोटा-मोटा अनुमान यह है कि अगर अगले 25 वर्षों तक भारत साढ़े सात फीसदी के विकास दर से चल पाने में सफल रहा तभी यहां से गरीबी खत्म होगी। प्रो. भल्ला और नोह स्मिथ जैसों की मंशा सिर्फ चूक नहीं है।

जाहिर है हमारे प्रधानमंत्री कहीं ऐसे आंकड़ों का हल्का लाभ ले सकते हैं, चुनाव में उसे गरीबी हटाओ जैसा नारा नहीं बना सकते। उन्होंने अगर कोरोना काल में अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन देने का फैसला किया है तो यह देखकर ही कि किस तरह तालाबंदी घोषित होते ही करोड़ों प्रवासी घर की तरफ भागे क्योंकि कमाने की जगह पर होने के बावजूद वे हफ्ते भर का राशन जमा करने की स्थिति में नहीं थे और जिस जगह की आर्थिक स्थितियां उनको पलायन के लिए मजबूर करती हैं उसे भी मोदी जी अच्छी तरह जानते हैं।


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