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त्योहार पर हिंसा

रामनवमी के दिन देश के कई राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी और कई राज्यों में हालात अब तक सामान्य नहीं हैं

त्योहार पर हिंसा
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रामनवमी के दिन देश के कई राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी और कई राज्यों में हालात अब तक सामान्य नहीं हैं। कुछ बरस पहले तक सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं, आगजनी, तोड़फोड़ जैसी खबरें समाज में घबराहट का माहौल बना देती थीं। लोग केवल अपनी ही नहीं, समाज और देश की सुरक्षा के लिए भी चिंतित हो जाते थे। मगर देश बदलने की जो नयी धुन लोगों में भर दी गई है, उसके बाद संवेदनाएं भी बदल गई हैं। अब धर्म की सुरक्षा का सवाल इतना अहम हो गया है कि इसके आगे जिंदा इंसानों का कोई मोल नहीं। इंसान जिएं या मरें, धर्म अमर रहना चाहिए, कुछ इस सोच के साथ देश आगे बढ़ रहा है। अब त्योहारों का मतलब भी खुशियां मनाना और बांटना नहीं, बल्कि अपने धर्म के परचम को ऊंचा करके लहराना है ताकि दूसरे धर्म के लोगों को आतंकित किया जा सके।

रामनवमी सदियों से देश के बड़े हिस्से में मनाया जाता रहा है, और इसमें कभी हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रहा। मगर अब ऐसा नहीं रहा है। रामनवमी हो या विजयादशमी, शस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता है, शोभायात्राओं के बहाने सड़क पर बहुसंख्यक होने के गौरव का अशोभनीय प्रदर्शन किया जाता है। दूसरे तमाम धर्मावलंबियों को चालाकी से यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि वे इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक हैं। संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है, लेकिन अभी तो एक नया ही राजनैतिक विधान रचा जा रहा है, जिसमें इस तरह की सोच को बढ़ावा मिल रहा है। रामनवमी पर बिहार, प.बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात ऐसे तमाम राज्यों से जो तस्वीरें और खबरें सामने आईं, वो चिंतित करने वाली हैं।

रामनवमी के जुलूसों में लाठी, भाले लेकर चलना, जुलूस को जबरदस्ती दूसरे धार्मिक स्थलों के सामने से लेकर गुजारना, इमारतों पर भगवा रंग पोत देना, हनुमान जी का गुस्से वाला चेहरा, राम जी की प्रत्यंचा ताने क्रोधित मुद्रा वाले पोस्टर लगाना और तेज आवाज में धार्मिक गीत बजाना, ये सारी हरकतें किसी कोण से राम जी की भक्ति वाली नजर नहीं आती।

बल्कि इनके पीछे दूसरे धर्मावलंबियों को छेड़ने, भड़काने और हिंसा के लिए उकसाने की साजिश नजर आती है। हिंदू धर्म कभी संकीर्ण और अनुदार नहीं रहा है। अगर रहा होता, तो भारतीय समाज में गंगा-जमुनी संस्कृति जैसी मिसालें कभी बनती ही नहीं। भारतीय संस्कृति की खासियत अनेकता में एकता वाली रही है और इसे संविधान में भी बखूबी निभाया गया है। मगर अब इस खासियत को तंग नजरिए से तोड़ा जा रहा है. जो चिंता की बात है।

इस बार नवरात्रि और रमजान साथ-साथ चले, जो बहुत सामान्य बात है। इससे पहले भी कई बार दो धर्मों के त्योहारों की तारीखें आस-पास पड़ती रही हैं। ऐसे में समझदारी दिखाते हुए इस तरह से आयोजन किए जाते रहे हैं, जिससे कोई किसी के लिए उलझन या बाधा न खड़ी कर सके। धार्मिक शोभायात्राओं के लिए स्थानीय प्रशासन अनुमति देता है, वही जुलूस निकलने का रास्ता तय करता है, जुलूस में कितने लोग शामिल हो सकते हैं, इसका अनुमान लगाया जाता है। सारी संभावनाओं पर विचार करने के बाद ही जुलूस को आगे बढ़ने की अनुमति मिलती है।

भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह स्वाभाविक है कि कोई भी धार्मिक जुलूस जिस राह से गुजरे, वहां कोई दूसरा धार्मिक स्थल हो। ऐसे में यह पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे रास्तों का विकल्प तलाश करे या फिर नगर-कस्बे के जिम्मेदार लोगों की समिति बनाकर, एक दिशा निर्देश तैयार करे, सभी समुदायों के लोगों को भरोसे में ले और फिर धार्मिक जुलूस निकालने की इजाज़त दे।

जुलूस या शोभायात्रा में किस किस्म के गीत बजेंगे, किस तरह के पटाखे चलाए जाएंगे, श्रद्धालु अपने साथ क्या सामान लेकर चलेंगे, इस सब की सूची बनाकर यह निश्चित किया जाए कि ऐसी कोई चीज इस्तेमाल न हो, जो शांति और सौहार्द्र बिगाड़ने का काम करे। अगर इन सावधानियों के साथ आगे बढ़ा जाए, तो सारे धार्मिक कार्य निर्विघ्न संपन्न हो सकते हैं। मगर अभी जो हालात हैं, उसमें यह नजर आ रहा है कि सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ने की आशंकाओं के बावजूद पर्याप्त सावधानी नहीं बरती गई। ऐसा क्यों हुआ, यह विचारणीय है।

पिछले साल ही हनुमान जयंती के मौके पर दिल्ली में जिस तरह माहौल खराब हुआ, उसके लिए एक-दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ा गया। फसाद की शुरुआत कौन करता है और अंत में कौन फंसता है, इस सवाल से अधिक महत्वपूर्ण यह देखना है कि आखिर में इसका खामियाजा किसे भुगतना पड़ता है। हमेशा आम मध्यमवर्गीय, गरीब लोग, रोज कमाने-खाने वाले लोग दंगों की आग में सबसे अधिक झुलसते हैं। स्त्रियां और बच्चे धर्म के नाम पर हो रहे झगड़ों का शिकार बनते हैं। बंटवारे से लेकर हालिया दिल्ली दंगों तक हर बार एक जैसी कहानी रही है, बस किरदार और कारण बदलते रहे हैं। अफसोस की बात ये है कि इतने जख्म देखने के बावजूद समाज संभल कर चलना नहीं सीख रहा है।

राजनेता अपने मकसद के लिए धार्मिक आयोजनों को बढ़ावा देते हैं। धर्म और जाति के नाम पर गुटबंदी करना वोट जुगाड़ने का सबसे आसान तरीका है, क्योंकि ये मुद्दे सीधे भावनाओं से जुड़े होते हैं और लोग इनमें बह जाते हैं। लेकिन इसमें लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े कई जरूरी मुद्दे गुम हो जाते हैं। धार्मिक आयोजन अगर हिंसा की लकीर तक पहुंच जाएं, तो फिर बांटो और राज करो का खेल खेलना और आसान हो जाता है। हिंदुस्तान ने 75 साल पहले ऐसे ही विनाशकारी खेल का नुकसान देखा है। आज देश फिर उसी बिसात का मोहरा बन गया है। यह खेल तभी रुकेगा, जब समाज इसे रोकेगा।


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