दावत - अदावत
दावत और अदावत दोनों का इतिहास बहुत पुराना है। दावत का तो पता नही पर पहली अदावत की जानकारी है कि यह आदम के बेटे हाबिल और काबिल के बीच हुई थी

- अनुवाद-अखतर अली
मूल रचनाकार - एजाज़ अली अरशद ( पटना)
दावत और अदावत दोनों का इतिहास बहुत पुराना है। दावत का तो पता नही पर पहली अदावत की जानकारी है कि यह आदम के बेटे हाबिल और काबिल के बीच हुई थी। संभव है पहली दावत भी इसी समय हुई हो।
यह दु:ख की बात तो नही है लेकिन आश्चर्य की बात ज़रूर है कि ऐसे वैसे लोग भी कैसे कैसे विषय पर रिसर्च कर रहे हैं लेकिन आज तक किसी शोध के छात्र ने इस विषय पर पी.एच.डी. नही की।
इस विषय में लोग दो हिस्से में बटें हैं। विषय तो बस बहाना है उन्हें बटना ही था इसलिये बटें। एक पक्ष का कहना है कि दावत और अदावत का आपस में कोई संबंध नही है , ये दोनों विपरीत स्वभाव के शब्द है इनका एक दूसरे से कोई लेना देना नही है।
दूसरे पक्ष का कहना हैं इनका नज़दीकी संबंध हैं। दावत में से ही अदावत जन्मी है। नब्बे प्रतिशत से भी अधिक अदावतें दावतों से शुरू हुई है या दावतों पर खत्म हुई है। अधिकतर दावत की ही इसलिये जाती है ताकि जिससे अदावत है उसे न बुलाकर अपमानित करें और कभी दावत इसलिये की जाती है ताकि जिससे अदावत है उसे बुला कर ज़लील करें।
दावत का ऐलान होता है और अदावत गुप्त रखी जाती है। जिनसे अदावत है वो भी दावत दे तो बंदा ख़ुशी ख़ुशी चला जाता है और कहता है वो तो मेरे बाप दादा के इनके बाप दादा से मधुर संबंध थे इसलिये आ गया वरना मैं इसके घर कदम भी न रखू। दावत देने वाला जानता है भले दिल में कितनी भी अदावत हो स्वादिष्ट भोजन की चाह उसे खींच लायेगी। कभी दावत से अदावत खत्म हो जाती है तो कभी अदावत अदालत तक जाती है। दावत चंद घंटो में खत्म हो जाती है जबकि अदावत कई पीढ़ियों तक भी चलती है। कभी कोई छोटा आदमी अपने से बड़े आदमी की दावत करता है और अपने जैसे लोगो से अदावत मोल लेता है।
दावत में सम्मोहन है , लुत्फ है , ज़ायका है। दावत में वह आकर्षण है कि अदावती भी खिंचा चला आता है। जब दो विरोधी नेताओं को मिलाना होता है या दो दुश्मन अफसरों में दोस्ती करवानी होती है तो दावत का इंतज़ाम किया जाता है। दावतों में ही फैसला तय होता है कि क्या बात दबाना क्या बात फैलाना। खाने के टेबल पर पुरानी रंजिश खत्म और नई दुश्मनी का आरंभ होता है। यहां तक की कौमों और मुल्को के फैसले भी रात्रि भोज में लिये जाते हैं। दस्तरखान पर ही शादी और तलाक पर अंतिम निर्णय होता है।
दावत को सफल केवल आदमी ही करते हैं क्योंकि दावत में आई नब्बे प्रतिशत औरतें तो डायटिंग कर रही होती है इसलिये खाने को हाथ भी नही लगाती। जो दस प्रतिशत औरतें बचती हैं वह यह तो नही कहती कि डायटिंग कर रही हूँ वह कहती है आज मेरा उपवास है , मीठा खाने के लिये डाक्टर ने मना किया है , सब्जी में मिर्च बहुत है। बहुत आग्रह करने पर वह छोटे से ग्लास में आधा ग्लास सूप ले लेती हैं।
सरकारी दावतों में अदावते भुला कर शामिल हुआ जाता है क्योंकि यहीं ठेके और टेंडर मिलते हैं। इस दावत में कहते हैं भोजन कम कमीशन ज़्यादा खाया जाता हैं। इस दावत में बिन दावत के बेरोजगार और बेरोज़दार शामिल हो जाते हैं। कमीशनखोर , चुगलखोर , आदमखोर की तरह दावतखोर लोग भी होते हैं। इनको जब किसी दिन कही की दावत नही मिलती उस दिन ये देर तक सोते है कि जल्दी उठ कर करेगे भी क्या ? इस दिन ये ब्रश भी नही करते हैं।
यह ज़रूरी नही है कि दावत सिर्फ खाने पीने की ही होती है। कोई पुण्य कमाने की दावत देता है , कोई धन कमाने की दावत देता है , कोई गुनाह करने के लिये आमंत्रित करता है , बकौल मंटो - वह इश्क का दस्तरखान बिछा कर हुस्न की दावत दे रही थी।
दावत की तरह अदावत की भी कई किस्में होती हैं। कुछ अदावत लोगो को विरासत में मिलती हैं जिनका निर्वाह उनकी आने वाली नस्ले भी करती हैं। कई अदावते अदालत तक भी गई हैं। सालो साल तक मुकदमे चले लेंकिन उन्होंने समझौता नही किया क्योंकि अगर केस खत्म हो जाता तो फिर उनका टाईम पास कैसे होता ?
पड़ोसी , दोस्त और दुश्मन की अदावत इतनी ख़तरनाक नही होती क्योंक समझदार लोग बीच में आकर समझौता करा देते हैं। दो भाइयों के बीच की अदावत सब से ख़तरनाक अदावत होती है क्योंकि इसमें कोई मध्यस्ता करने को भी तैयार नही होता। इस बात में वज़न है कि भाई - भाई में प्रेम है तो भाई से अच्छा कोई सहयोगी नही और नफरत है तो भाई से बड़ा कोई दुश्मन नही।
साहित्यिक अदावत भी अपनी बुलंदी पर मौजूद हैं। यहां अदावत का मुख्य हथियार उपेक्षा है। जिसने ज़रा अच्छा लिखा और उससे अदावत चालू। अदबी अदावते बेअदबी तक पहुच गई है। यहां गोष्ठी का आयोजन कर अदावत निभाई जाती है। इसमें वरिष्ठता और योग्यता का मूल्यांकन नही होता। जो दोस्त है उसे मंच पर और जिससे अदावत है उसे श्रोताओं में बिठाया जाता है।
प्रिय पाठको , मैंने अपने आस - पास दावत और अदावत का जो व्यापक दृश्य देखा तो यह रचना लिखने का विचार आया। अगर रचना पसंद आये तो भले दावत मत देना लेकिन नापसंद होने पर अदावत मत पालना। शायर कलीम आजिज़ साहब के शेर में एक शब्द परिवर्तित कर उन दो लाईनों से रचना का समापन कर रहा हूँ -
करे हैं अदावत भी वो इस अदा से
लगे है कि जैसे दावत करें हैं।
( शगूफा हैदराबाद 1996 में प्रकाशित )


