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बैगाओं की खेती और उनका खान-पान

मध्यप्रदेश के डिण्डौरी जिले के बैगा आदिवासी पीढ़ियों से बेंवर खेती करते आ रहे हैं

बैगाओं की खेती और उनका खान-पान
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- बाबा मायाराम

यह खेती जैविक, हवा और पानी के अनुकूल और मिश्रित है। यह सुरक्षित खेती भी है कि चूंकि इसमें मिश्रित खेती होती है अगर एक फ सल मार खा गई तो दूसरी से इसकी पूर्ति हो जाती है। इसमें कीट प्रकोप का खतरा भी नहंी रहता। इसमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती। यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है। एक से दूसरी को मदद मिलती है।

मध्यप्रदेश के डिण्डौरी जिले के बैगा आदिवासी पीढ़ियों से बेंवर खेती करते आ रहे हैं। जंगलों के बीच बसे बैगाओं की अनोखी बेंवर खेती उनकी पहचान है। इससे उन्हें दाल, चावल, रोटी, हरी सब्जियां और फ ल मिलते हैं। बैगाओं को इससे पौष्टिक संतुलित भोजन मिलता है। हालांकि बेंवर खेती का अब पारंपरिक रूप नहीं है, संशोधित रूप में है। लेकिन इसे देशी बीजों के साथ छोटे स्तर पर पुनर्जीवित किया जा रहा है। आज इस कॉलम में बैगाओं की खेती की चर्चा करना चाहूंगा, जिससे उनकी प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की झलक मिल सके।

मुझे इस इलाके में एक दो बार जाने का मौका मिला है। यह संस्था मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच देशी बीजों की खेती को प्रोत्साहित कर रही है। देशी बीजों की प्रदर्शनी लगाना, बीजों का आदान.प्रदान करनाए खेती के तौर.तरीके सिखानाए संस्था के काम हैं। हाल ही में नागपुर में बीजोत्सव में संस्था ने बीजों का स्टॉल भी लगाया था।

पिछले साल एक प्रदर्शनी में महुआलाटा, घुईफल का सब्जी, आंवला चटनी, राहर और उड़द बड़ा, डूमर फ ल की सब्जी, बांस करील की सब्जी, बेलभंूज, चेंच भाजी, पताली चटनी, रमतीला की चटनी, लोरिंग कांदा भंूज, चकोड़ा भाजी, कोदो कुटकी का चीला, गीठ कांदा, भूत कांदा, खिर कांदा, रवि कांदा, रताल कांदा, डुंगची कांदा, सरई पिहरी आदि व्यंजन भी प्रदर्शित किए गए थे।

संस्था ने पौष्टिक अनाजों से कई तरह के पकवान, अचार व लड्डू आदि भी बनाए हैं। महिलाओं का इसका प्रशिक्षण भी दिया है। महुआ के लड़्डू और आगे बढ़ने से पहले बैगाओं का संक्षिप्त परिचय देना उचित होगा। बैगा, विशेष पिछड़ी जनजाति समूह में शामिल हैं। उनके तीज-त्यौहार खेती पर आधारित हैं। जब खेती ठीक से नहंीं होती तो वे त्यौहार भी ठीक से नहंीं मना पाते। निर्माण वैकल्पिक विकास एवं सहभागी संस्थान व बीज विरासत अभियान के प्रमुख नरेश विश्वास कहते हैं कि अगर बैगाओं की फसल नहीं होती तो वे त्यौहार भी नहीं मना पाते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से बेंवर व मिश्रित खेती ने उनकी जीवन में बदलाव आ गया है। उनके पास खुद के बीज और खुद का अनाज होने लगा है।

कांदाबानी गांव के एक ग्रामीण ने बताया था कि गर्मी शुरू होने पर हम खेत में पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों, पत्ते, घास और छोटी झाडियों को एकत्र कर बिछा देते हैं। फिर उनमें आग लगा दी जाती है। इसी राख की पतली परत पर बीजों को बिखेर दिया जाता है जब बारिश होती है तो पौधे उग आते हैं। जैसे जैसे फसलें पक कर तैयार हो जाती हैं, काटते जाते हैं।

कोदो, कुटकी, ज्वार,सलहार (बाजरा) मक्का, सांवा, कांग, कुरथी, राहर, उड़द, कुरेली, बरबटी, तिली जैसे अनाज बेंवर खेती में बोये जाते हैं। लौकी, कुमड़ा, खीरा आदि को भी बोया जाता है। कुल मिलाकर, 16 प्रकार के अनाज को बैगा बोते हैं। इन 16 अनाजों की 56 किस्में हैं।

एक जगह पर एक वर्ष में खेती की जाती है। अगले साल दूसरी जगह पर खेती होती है। इस खेती को स्थानांतरित खेती (शिफिंटग कल्टीवेशन) कहते हैं। हालांकि इस खेती पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन मध्यप्रदेश के बैगाचक इलाके में यह प्रचलन में है। लोग अपने ही खेतों में बेंवर करते हैं। इसका संशोधित रूप मिश्रित खेती को अपना रहे हैं।

बेंवर खेती के प्रचार-प्रसार लगे नरेश विश्वास कहते हैं कि कुछ वर्ष पहले हमने जब यह अभियान शुरू किया था तब लोगों के पास बेंवर के बीज ही खत्म हो गए थे। हमने बीजों के आदान-प्रदान का काम किया जिससे अब बैगा आदिवासियों के बीज उपलब्ध हैं और वे बेंवर खेती कर रहे हैं।

विश्वास कहते हैं कि बेंवर में अधिकांश लोग केवल कुटकी करते थे। उनके पास सलहार नहीं था, बैगा राहर नहीं थी। हमने इसकी तलाश की और फिर बीजों की अदला-बदली की। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी कोरवा आदिवासी भी यहां से मड़िया का बीज लेकर गए। कुछ जगह हमने समतल जमीन में भी जुताई से मिश्रित खेती करवाने का प्रयास कर रहे हैं।

यह खेती जैविक, हवा और पानी के अनुकूल और मिश्रित है। यह सुरक्षित खेती भी है कि चूंकि इसमें मिश्रित खेती होती है अगर एक फ सल मार खा गई तो दूसरी से इसकी पूर्ति हो जाती है। इसमें कीट प्रकोप का खतरा भी नहंी रहता। इसमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती।

यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है। एक से दूसरी को मदद मिलती है। मक्के के बड़े पौधे कुलथी को हवा से गिरने से बचाते हैं। फल्लीवाले पौधों के पत्तों नत्रजन मिलती है। ये पौधे अपनी जड़ों के जरिए भूमि से अलग-अलग गहरे से पोषक तत्व लेते हैं। इससे उर्वर षक्ति अधिक होती है।

इन अनाजों में शरीर के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व होते हैं। रेशे, लौह तत्व, कैल्शियम, विटामिन, प्रोटीन व अन्य खनिज तत्व मौजूद हैं। चावल व गेहूं के मुकाबले इनमें पौष्टिकता अधिक होती है।

बैगाओं के भोजन में पेज प्रमुख है। पेज एक तरह से सूप की तरह होता है। बैगा पूरे साल भर पेज पीते हैं। पेज कम अनाज में पेट भरने का उपाय भी है। अनाज कम और पानी ज्यादा। अगर पेज बनते समय दो मेहमान भी आ जाए तो उतने ही अनाज में पानी की मात्रा बढा दी जाती है।

जब आदिवासी जंगल जाते हैं तो साथ में पेज भी ले जाते हैं। अगर जंगल में पानी नहीं मिलता तो पेज से काम चला लेते हैं। पेज कई अनाजों से बनता है। मक्का, कोदो, कुटकी आदि से पेज बनाया जाता है। अनाजों को दलिया की तरह कूटकर उसे गरम पानी में उबाला जाता है और नमक डालकर तैयार किया जाता है।
इससे दाल, चावल, पेज (सूप की तरह पेय), दाल, सब्जी सब कुछ मिलता है। खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा होती है। मवेशियों को चारा मिलता है।

नरेश विश्वास ने कहा कि बैगाओं के पारंपरिक मिश्रित खेती में खाद्य सुरक्षा तो होती है स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ मवेशियों के लिए भरपूर चारा और भूसा उपलब्ध होता है। जलवायु बदलाव के दौर में भी मिश्रित खेती की उपयोगिता और बढ़ गई है, जिसमें प्रतिकूल मौसम को झेलने की क्षमता होती है। श्री विश्वास बैगाओं के पारंपरिक मिश्रित खेती की विविधता को बचाने और उनके इस खेती के अनाजों की उपयोगिता तथा उनके पारंपरिक जंगल आधारित खान-पान के ज्ञान को सहेज कर नई पीढ़ी तक पहुंचाने के प्रयास में जुटे है।

मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बेंवर खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती पर किताब लिखने वाले नरेश विश्वास का कहना है कि सूखा अकाल में भी बैगाओं के पास कोई न कोई फ सल होती है। उनकी खेती बहुत समृद्ध रही है।

इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है।


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