Top
Begin typing your search above and press return to search.

आम बजट से किसानों की अपेक्षाएं

भारत की संसद में एक फरवरी को आम बजट पेश किया जाएगा। आम बजट का असर देश के सभी नागरिकों के जनजीवन पर पड़ता है, इसलिए बजट का इंतजार सभी को रहता है।

आम बजट से किसानों की अपेक्षाएं
X

भारत की संसद में एक फरवरी को आम बजट पेश किया जाएगा। आम बजट का असर देश के सभी नागरिकों के जनजीवन पर पड़ता है, इसलिए बजट का इंतजार सभी को रहता है। इस बार डावोस में प्रधानमंत्री के भाषण से सरकार की प्राथमिकताएं स्पष्ट हो गयी हैं। लेकिन इसके बावजूद खेती पर निर्भर ६५ प्रतिशत आबादी को बजट से क्या मिलेगा, यह विचारणीय प्रश्न है।

बजट के पहले वित्त मंत्री द्वारा समाज के विभिन्न तबकों के समूहों-संगठनों से बातचीत की जाती है। देश के उद्योगपति बजट से क्या अपेक्षा करते हैं, यह पूछा जाता है। लेकिन आजतक कभी भी देश में सक्रिय किसान संगठनों को वित्त मंत्री ने बुलाकर नहीं पूछा कि वे किसानों केे लिए क्या चाहते हैं? इस समय देश में १९० किसान संगठनों का सबसे बड़ा समूह अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति है। लेकिन उसे भी आज तक वित्त मंत्रालय की ओर से परामर्श या चर्चा के लिए नहीं बुलाया गया है। हालांकि तमाम संगठन हर वर्ष अपनी अपेक्षाएं वित्त मंत्रालय को लिख कर भेज देते हैं। इस बार भी भेजी होंगी। लेकिन सरकार के रुख से यह स्पष्ट है कि वह यह जानते हुए कि देश का किसान आंदोलित है, उससे किसी भी स्तर का संवाद करने को तैयार नहीं है। शायद इसलिए कि किसानों की अपेक्षा के अनुसार केंद्र सरकार उन्हें कुछ देने को तैयार नहीं है। यह उनके विकास के मोदानी माडल में फिट नहीं होता।

देश के किसानों की सबसे बड़ी मांग और जरूरत कर्जा मुक्ति है। देश के किसानों पर कुल मिला कर १४ लाख करोड़ का कर्जा बकाया है। सरकार हर बजट में किसानों को दिए जाने वाले कर्जे की राशि बढ़ाती गयी है। अर्थात् सरकार की नीति किसानों को अधिक से अधिक कर्जदार बनाने की है, किसान क्रेडिट काड्र से किसानों को पहले से अधिक कर्ज्रदार बनाने में सरकार सफल भी रही है। यह सर्वविदित है कि नई आर्थिक नीति १९९२ से लागू होने के बाद से साढ़े तीन लाख किसान अधिक कर्ज के बोझ होने के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर हो चुके हैं। देखना यह होगा कि सरकार बजट में किसानों की कर्जा मुक्ति के लिए कितना बजट मुहैया कराती है। कर्जा माफी के सबंध में वित्त मंत्री कई बार कह चुके हैं कि कर्जा माफी अच्छी आर्थिक नीति नहीं है तथा कृषि राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों को ही अपने संसाधन जुटा कर किसानों की कर्जा माफी करनी चाहिए। वित्त मंत्री से यह पूछना जरूरी है कि क्या कार्पोरेट की कर्जा माफी अच्छी आर्थिक नीति है? यह सभी जानते हैं कि किसी भी राज्य के लिए कर्जा माफी के संसाधन जुटाना संभव नहीं है। कर्जे का मसला केवल संस्थागत नहीं है। इसका संबंध गैरसंस्थागत कर्जों से भी है, जिसे साहूकारी कर्जा भी कहा जाता है। केरल की सरकार ने साहूकारी कर्जों से किसानों को मुक्त कराने के लिए संस्थागत प्रयास किया है। वही व्यवस्था राष्ट्रीय स्तर पर करने की जरूरत है।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति द्वारा किसान ऋण मुक्ति विधेयक २०१७ में सभी ऋणों से मुक्ति का प्रस्ताव किया गया है, ताकि एक बार पूरे देश के सभी किसानों को एक साथ ऋण मुक्त किया जा सके। इसमें किसान ऋण राहत आयोग के गठन का प्रस्ताव किया गया है, जो आपदा प्रभावित क्षेत्रों में आंशिक या पूर्ण ऋण राहत की अनुशंसा कर सकेगा। इस तरह का शक्तिसम्पन्न आयोग बनाने से किसानों को ऋणों के जंजाल से मुक्त कराने का स्थायी प्रावधान किया जा सकेगा।

केवल कर्जा माफी से किसान, कृषि संकट से उबरने वाला नहीं है। उसके लिए लगातार घाटे में जा रही खेती को लाभकारी बनाना आवश्यक है। मध्य प्रदेश सहित देश की तमाम सरकारें खेती को लाभकारी बनाने का दावा कई दशकों से कर रही हैं। लेकिन गलत नीतियां लागू करने के कारण उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है। घाटे को लाभ में बदलने का एक तरीका यह है कि किसानी की लागत घटाई जाय। औद्योगिक और व्यवसायिक खेती की जगह जैविक और प्राकृतिक खेती को प्राथमिकता और बढ़ावा दिया जाय। जैसा कि आंध्र प्रदेश में १४ जिलों में ५० हजार हेक्टेयर कृषि भूमि पर जैविक खेती करके किया गया है। किसानों को रसायन मुक्त खेती करने के लिए प्रेरित करने तथा संसाधन जुटाने के लिए बजट में प्रावधान किया जाना चाहिए। खेती की लागत ना बढ़े, इसके लिए महंगाई पर रोक लगाना तथा दाम बांधों नीति अपनाना भी आवश्यक है।

दूसरा तरीका, कृषि उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाना है। फिलहाल देशभर में स्थिति यह है कि सरकार द्वारा जिन कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य घोषित किये गये हैं उन उत्पादों को भी समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जा रहा है। मुलताई में मक्का १४२५ रुपये कुंटल के समर्थन मूल्य पर तथा सोयाबीन ३०५० रुपये प्रति क्विंटल की दर पर खरीदी जानी थी लेकिन मक्का ६०० से ८०० रुपये क्विंटल तथा सोयाबीन १५०० से २५०० रुपये प्रति क्विंटल पर किसानों को गांव के व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अब जबकि किसानों के पास मक्का और सोयाबीन ही हैं तब मंडी में समर्थन मूच्ल्य के नजदीक खरीदी हो रही है। मध्य प्रदेश की सरकार ने भावांतर योजना की घोषणा की थी, तुरंत सरकार की मिलीभगत से व्यापारियों ने कृषि उत्पादों के दाम गिरा दिये। जब भावांतर योजना समाप्त हो गयी तब फिर कृषि उत्पादों रेट बढ़ा दिए गये। भावांतर योजना का लाभ प्रदेश के १० प्रतिशत किसानों को भी नहीं मिल सका। जिन्हें मिला भी उन्हें आधा-अधूरा। पूरा लाभ व्यापारियों ने कब्जा लिया।

खेती को लाभकारी बनाने के लिए यह जरूरी है कि लागत और कीमत आयोग सभी कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य तय करते समय किसानों की मेहनत का दाम कुशल श्रमिक के बराबर जोड़े। भूमि की कीमत (पूंजी) पर सालाना ब्याज भी समर्थन मूल्य तय करते समय जोड़ा जाय। वर्तमान कृषि संकट का मूल कारण आजादी के बाद से किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम नहीं मिलना है। षडयंत्र पूर्वक सरकारों ने कृषि उत्पादों की कीमतों को आम नागरिकों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की आड़ में दबा कर रखा। उचित मूल्य नहीं मिलने दिया। कृषि संकट से उबारने के लिए स्वामीनाथन आयोग ने २००७ में लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य तय करने की सिफारिश की थी। आयोग की सिफारिशों पर न तो तत्कालीन यूपीए की सरकार ने कोई कार्यवाही की और ना ही अब एनडीए की सरकार बाकायदा घोषणा पत्र में लागत से डेढ़ गुना दाम देने का वायदा करने के बावजूद भी इस सिफारिश को लागू करने को तैयार नहीं है। सब्जी, फल, वन उपज और दूध सहित सभी उत्पादों के समर्थन मूल्य की घोषणा के बाद खरीद सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक राशि को बजट में उपलबध कराया जाना जरूरी है। कृषि उत्पादों के दाम में काफी उतार-चढ़ाव देखा जाता है, जिसका संबंध वायदा बाजार और कृषि उत्पादों के बेरोकटोक आयात से है। इन नीतियों को बदलना भी किसान हित में होगा। किसानों पर बाजार की कीमतों के उतार-चढ़ाव का ज्यादा असर न पड़े, इसके लिए कम से कम ५० हजार करोड़ का एक फंड बनाने की जरूरत होगी, जो कृषि लागत एवं मूल्य आयोग जो उपलब्ध कराया जाय। राज्य स्तर पर और जिला स्तर पर भी आयोग गठित करने की आवश्यकता है, जिसका प्रस्ताव अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की २१-२२ नवंबर, २०१७ को हुई किसान मुक्ति संसद में प्रस्तावित किसान (कृषि उत्पाद लाभकारी मूल्य गारंटी) अधिकार बिल २०१७ में किया गया है।

भंडारण किसानों की बड़ी समस्या है, जिसके चलते उसे कम दामों पर अपना कृषि उत्पाद औने-पोने दामों पर व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भंडारण व्यवस्था के अभाव में किसान कभी टमाटर, कभी आलू, कभी प्याज सडक़ पर फेंकने को मजबूर होता है। भंडारण की व्यवस्था हेतु पंचायत स्तर पर कोल्ड स्टोरेज बनाने की आवश्यकता है। कोल्ड स्टोरेज के निर्माण के लिए सीधे केंद्र सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर किसानों की सहकारी समितियों को बजट उपलब्ध कराना चाहिए।

किसानों की पेंशन किसानों को न्याय देने की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। आखिरकार जब एक कर्मचारी ३० साल की नौकरी करने के बाद पेंशन का हकदार हो जाता है तब आजीवन खेती कर अन्नदाता कहलाने वाले किसान, जो देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है, उसके लिए भी सामाजिक सुरक्षा का इंतजाम क्यों नहीं किया जाना चाहिए? फिलहाल जो प्रावधान है वह भूमिहीन गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए है। यह पेंशन अभी २५० रुपये ६० साल के बाद दी जाती है तथा ८० बर्ष के बाद ५०० रुपये तक बढ़ाई जाती है। यह गरीबों के साथ मजाक है तथा गरीबी का मखौल उड़ाना है। ६० वर्ष आयु पूर्ण होने के बाद किसानों को ५००० रुपये प्रति माह पेंशन उपलबध कराने के लिए बजट में प्रावधान करने की जरूरत है।

फिलहाल सरकार का नजरिया किसानों की हर तरह की सब्सिडी खत्म करने का है। डीजल और पेट्रोल की सब्सिडी समाप्त की जा चुकी है। केवल कैरोसिन आयल की सब्सिडी जारी है। जरूरत किसानों की सेहत सुधारने के लिए सब्सिडी बढ़ाने की है। किसानी की लागत में बिजली और डीजल का खर्चा काफी अधिक होता है। यह जरूरी है कि देशभर के किसानों को पंजाब की तरह नि:शुल्क बिजली मुहैया कराई जाय, तथा बिजली की कीमत की भरपाई सभी राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा की जाय। इसी तरह का मसला डीजल का है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में डीजल और पेट्रोल की कीमत कर होने के बावजूद भारतीय उपभोक्ताओं को उसका लाभ कंपनियों द्वारा नहीं दिया गया है। केंद्र और राज्य सरकारें अलग अलग किस्म के टैक्स डीजल और पेट्रोल पर लगाती हैं, जिसके चलते पेट्रोल और डीजल के दाम दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में बहुत अधिक हो जाते हैं। किसानों को आधे दाम पर प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता के मुताबिक डीजल उपलबध कराया जाना चाहिए, जैसा कि बिहार में किया जा चुका है।

किसानों पर प्राकृतिक आपदाओं की मार ३ से ५ साल के बीच में लगातार पड़ती रहती है। अब तक देश में राजस्व आचार संहिता के आधार पर प्राकृतिक आपदाओं का मुआवजा दिया जाता था। लेकिन फसल बीमा योजना लागू होने के बाद राजस्व विभाग ने मुआवजा वितरण बंद कर दिया है जबकि जरूरत उस मुआवजा राशि को बढ़ाने की थी। नष्ट हुई फसलों का मुआवजा न्यूनतम फसल की लागत से डेढ़ गुना दिया जाना चाहिए, क्योंकि किसान के पास आय का कोई दूसरा साधन उपलबध नहीं है। लेकिन वास्तविकता यह है कि राजस्व का जो मुआवजा अब तक किसानों को दिया जाता रहा है वह किसान की लागत का एक चौथाई भी नहीं होता। मुआवजा राशि से वह ना तो बीज खरीद सकता है, ना ही मजदूरी का भुगतान कर सकता है और ना ही खाद और कीटनाशक ही खरीद सकता है।

प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार दावा किया गया कि फसल बीमा योजना किसानों के लिए सबसे क्रांतिकारी योजना है तथा किसानों को अपने भविष्य की कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है, परंतु देशभर के आंकड़े यह बतलाते हैं कि किसानों से जो राशि बीमा के प्रीमियम के तौर पर ली गयी है, उसका एक चौथाई हिस्सा भी किसानों को मुआवजे के तौर पर नहीं लौटाया गया है। फसल बीमा की प्रीमियम राशि न्यूनतम ली जा रही है यह सरकार का दावा है। सरकार को देश के सभी किसानों की सभी फसलों के बीमा की प्रीमियम राशि के भुगतान का प्रावधान बजट में करना चाहिए, ताकि किसानों पर बीमा के प्रीमियम भरने का अतिरिक्त भार न पड़े।

कृषि मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि देश में किसानों का रकवा लगातार घटता जा रहा है। ८६ प्रतिशत किसानों के पास १ हेक्टेयर से कम जमीन है। छोटी जोत होने के कारण खेती घाटे में जा रही है। इसलिए सरकार ने मॉडल कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट तैयार किया है, जिससे किसान अपनी जमीन ठेके पर दे सके। असल में यह किसानों की जमीन कंपनियों के पास हस्तांतरित करने- किसानों की जमीन लूटने का तरीका मात्र है। सरकार यदि वास्तव में छोटी जोत से चिंतित है तो वह पंचायत स्तर पर किसानों की सहकारी समितियां बना सकती है तथा उन सहकारी समितियों को कृषि यंत्र एवं खेती के लिए आवश्यक अन्य उपकरण और खाद, बीज, कीटनाशक उपलबध करा सकती है तथा समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित कर सकती है। बजट में सहकारी समितियों के लिए पंचायत स्तर पर औसतन १ करोड़ रुपये का इंतजाम किया जा सकता है, ताकि किसान सहकारी खेती के लिए प्रेरित हों। लेकिन सरकार की मंशा किसानों को लाभ पहुंचाने की बजाय किसानों की जमीन कंपनियों के पास पहुंचा कर किसानों को अपनी ही जमीन पर नौकर बनाने की है।

सवाल यह उठता है कि इतना पैसा आयेगा कहां से ? इसका एक ही जवाब है- कार्पोरेट टैक्स से। सरकार लगातार कार्पोरेट टैक्स घटाती चली जा रही है। केंद्र सरकार ने गत ३ वर्षों में कार्पोरेट को १४ लाख करोड़ की छूट दी है। आजादी के बाद ४८ लाख करोड़ की छूट दी गयी है। उद्योगपतियों का लाखों करोड़ रुपया नान परफोर्मिंग एसेट (एनपीए) के नाम पर माफ कर दिया गया है। २०१४ में बैंकों को २ लाख ८० हजार करोड़ रुपया तथा दिसंबर २०१७ में ८० हजार करोड़ रुपया बैंकों को उपलब्ध कराया गया, ताकि उन्हें डूबने से बचाया जा सके। सरकार को कार्पोरेट टैक्स ५० प्रतिशत करना चाहिए तथा नीतिगत तौर पर यह फैसला लेना चाहिए कि जिन भी कार्पोरेट पर एक करोड़ भी बकाया है उनसे पहले पूरी बकाया राशि वसूल की जाएगी, उनकी सम्पत्ति की नीलामी-कुर्की की जाएगी। वह पैसा किसानों के कल्याण में खर्च किया जाएगा। इसके बाद ही नये कर्जे दिए जाएंगे।

आर्थिक अपराध करने वालों पर बड़ी जुर्माना राशि लगाने की जरूरत है। इसी तरह भ्रष्टाचार साबित होने पर भ्रष्ट व्यक्ति की पूरी संपत्ति नीलामी-कुर्की करने का एक कानून बना कर लाखों करोड़ रुपया सरकार अर्जित कर सकती है तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लगा सकती है। पेशेवर अपराधियों को आजीवन कारावास तथा फांसी की सजा होने पर उनकी संपत्ति नीलाम और कुर्क करने का प्रावधान करके भी संसाधन जुटाए जा सकते हैं।

बजट सरकार की प्राथमिकता बतलाता है। किसानोन्मुखी बजट तभी बनाया जा सकता है जब इच्छाशक्ति हो। दिखावे के लिए तो इस बार किसानोन्मुखी बजट बनना तय ही है। चुनाव के एक वर्ष पहले का बजट होने के कारण सरकार की यह मजबूरी है कि वह इस बजट में किसानों को प्राथमिकता देता दिखलाई पड़े। लेकिन यह आंकड़ेबाजी तक सीमित रहेगा तो उसका कोई लाभ सरकार को चुनाव में नहीं मिल सकेगा। ऐसा बजट जिससे किसानों की आत्महत्या रुक सके। किसानी छोड़ कर जाने वाले युवा, खेती की ओर पुन: आकर्षित हो सकें, यह तभी संभव होगा जब खेती पर निर्भर ६५ प्रतिशत आबादी को उसके अनुपात में बजट उपलब्ध कराया जाएगा, तभी किसानों की दृष्टि से बजट को न्यायपूर्ण कहा जा सकेगा।
डा. सुनीलम
पूर्व विधायक, किसान संघर्ष समिति


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it