परिवार नियोजन के लिए अलग नजरिये की जरूरत
परिवार नियोजन के लिए शुरू की गई सरकारी पहल 'मिशन परिवार विकास' (एमपीवी) अब अपने सातवें वर्ष में है

- डॉ.संजना मोहन-लेखा रत्तनानी
तीन घटनाक्रमों ने संभवत: नसबंदी संख्या में लगातार वृद्धि में योगदान दिया है। पहला, हर गांव में आशा (एक्रिडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट-मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) की उपस्थिति ने व्यवस्था को एक मानवीय चेहरा दिया है। इस उपस्थिति ने लोगों में विश्वास का निर्माण किया है तथा सरकार के व्यवस्था-संचालित निश्चय को गांव के अंतिम घर तक पहुंचाया है।
परिवार नियोजन के लिए शुरू की गई सरकारी पहल 'मिशन परिवार विकास' (एमपीवी) अब अपने सातवें वर्ष में है। इस मुहिम को मूल रूप से तीन से अधिक की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) के साथ 'उच्च प्रजनन क्षमता' क्षेत्रों के रूप में पहचाने गए 146 जिलों में कुछ सफलता हासिल हुई है। चिन्हित जिले सात राज्यों- राजस्थान, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड हैं। एमपीवी को उम्मीद है कि 2025 तक इन उच्च फोकस क्षेत्रों में टीएफआर 2.1 तक कम हो सकती है।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए केंद्रित प्रयासों के परिणाम आंकड़ों में देखे जा सकते हैं लेकिन ये उन छिपी हुई समस्याओं के साथ आते हैं जिन्हें आंकड़े पकड़ नहीं पाते या नहीं पकड़ सकते हैं। उदाहरणार्थ, परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के सरकारी प्रयासों के बाद इन क्षेत्रों में गर्भ निरोधकों के उपयोग में तेजी आई है लेकिन गर्भ निरोधक का सबसे लोकप्रिय तरीका सर्जरी से जुड़े परिवार नियोजन की अपरिवर्तनीय विधि है।
नतीजों के नजरिए से यह अच्छा है लेकिन महिलाओं के दृष्टिकोण से हमेशा अच्छा नहीं है। स्थायी विधि की लोकप्रियता राष्ट्रीय वरीयता को प्रतिबिंबित करती है जहां एनएफएचएस-5 के अनुसार वर्तमान में विवाहित महिलाओं के 36.3 प्रतिशत ने इस विकल्प को अपनाया जिससे यह गर्भ निरोधक सभी विकल्पों में सबसे लोकप्रिय हो गया। एमपीवी जिलों वाले राज्यों में कई और महिलाओं ने स्थायी विधि का विकल्प चुना। चूंकि एमपीवी पिछड़ेपन के उच्च स्तर वाले जिलों में अनिवार्य रूप से चलती है, वह इन जिलों में कमजोर संचार तथा स्वास्थ्य देखभाल के खराब वितरण का संकेत देती है इसलिए महिला नसबंदी के नकारात्मक पक्ष यहां अधिक स्पष्ट होंगे।
महिला नसबंदी जैसी स्थायी विधि आमतौर पर तब अपनाई जाती है जब दंपति के पास उतने बच्चे होते हैं जितने वे चाहते थे तथा अब और बच्चे पैदा न करने का विकल्प चुनते हैं। ग्रामीण भारत में बच्चों व युवा वयस्कों की मृत्यु असामान्य नहीं है। खासकर आदिवासी समुदायों में कई अप्रत्याशित घटनाओं के कारण-जैसे सर्पदंश, तेंदुए के हमले, पेड़ से गिरने, गांव के तालाब में डूबने और कई रोकथाम योग्य या उपचार योग्य बीमारियों का इलाज न होने के कारण मौतें होती हैं। समय पर देखभाल व उपचार न मिल पाने के कारण अक्सर बच्चों की मृत्यु हो जाती है। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जहां दुर्घटनाओं के बाद दो या तीन बच्चों के बाद नसबंदी का विकल्प चुनने वाली महिलाएं खुद को अचानक कम बच्चों के साथ या बेटे के बिना पाती हैं। ऐसे मामलों में सर्जरी का उलटना असंभव नहीं है लेकिन बहुत मुश्किल है। इसके अलावा परिवार पर हुआ आघात का असर अंतहीन है। ग्रामीण भारत में महिला नसबंदी की बढ़ती स्वीकार्यता के ये दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम हैं। वे गर्भ निरोध के अपरिवर्तनीय तरीकों की विशिष्ट भारतीय समस्याओं को भी उजागर करते हैं। खराब स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा भी सर्जरी के दौरान जटिल समस्याओं और यहां तक कि मौतों का कारण बनता है। एक बड़ा आघात यह भी होता है कि अगर सर्जरी से महिला बच जाती है तो वह अपने बच्चों को खो देती है और अब उसे और बच्चे नहीं हो सकते।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने मार्च 2018 में लोकसभा में बताया था कि वर्ष 2014-2017 में नसबंदी के बाद कुल 358 मौतें हुईं। मंत्री ने लोकसभा को बताया कि 'भारत सरकार द्वारा प्रकाशित नसबंदी सेवाओं में मानक और गुणवत्ता आश्वासन- 2014 में निर्धारित मानदंड निर्धारित किए गए हैं और इन्हें नसबंदी प्रक्रियाएं करते समय सेवा प्रावधान में गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करने के लिए सभी राज्यों और सेवा प्रदाताओं को उपलब्ध कराया गया है।'
सिर्फ आंकड़ों के संदर्भ में देखें तो एनएफएचएस-3 से एनएफएचएस-5 की अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों में महिला नसबंदी (वर्तमान में विवाहित महिलाओं के प्रतिशत के रूप में) राजस्थान में 32.2 प्रश से बढ़कर 44.5, बिहार में 22.6 से 35.3, छत्तीसगढ़ में 39.8 से 47.6, झारखंड में 19.8 से 37.4 और मध्य प्रदेश में 46.9 से बढ़कर 55.7 फीसदी हो गई है।
हाल के तीन घटनाक्रमों ने संभवत: नसबंदी संख्या में लगातार वृद्धि में योगदान दिया है। पहला, हर गांव में आशा (एक्रिडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट-मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) की उपस्थिति ने व्यवस्था को एक मानवीय चेहरा दिया है। इस उपस्थिति ने लोगों में विश्वास का निर्माण किया है तथा सरकार के व्यवस्था-संचालित निश्चय को गांव के अंतिम घर तक पहुंचाया है। दूसरा, गांवों में स्मार्टफोन और उच्च कनेक्टिविटी की पहुंच ने ग्रामीणों की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया है। गांव में होने वाली शादियों में डीजे बजाना, जन्मदिन मनाना, ग्रामीण लड़कियों का बदलता पहनावा इसके उदाहरण हैं।
शहरों में छोटे परिवारों के आकार और जीवन शैली को भी ग्रामीण परिवार नोट कर रहे हैं तथा इसे खुद अपनाने को तैयार हैं। नसबंदी की संख्या बढ़ाने में योगदान देने वाला तीसरा कारक काम के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पुरुषों के प्रवास की बढ़ती प्रवृत्ति है। दक्षिणी राजस्थान में ही करीब 70 प्रतिशत परिवारों में कम से कम एक पुरुष सदस्य आजीविका के लिए गुजरात या महाराष्ट्र अथवा किसी और राज्य के शहरों में पलायन करता है। पति की अनुपस्थिति में महिलाओं के लिए बच्चों का पालन-पोषण करना और ज्यादा मुश्किल हो जाता है। इन हालातों में नसबंदी ऑपरेशन हर किसी के लिए हालातों पर एक जीत जैसा लगता है।
प्रसूति विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि ऑपरेशन अंतिम विकल्प होना चाहिए क्योंकि ऑपरेशन के लिए शरीर को खोलने के अपने जोखिम हैं इसलिए अन्य उपलब्ध तरीकों का उपयोग किया जाना चाहिए जो सुरक्षित हैं। महिला नसबंदी से जटिलताएं और मौतें असामान्य नहीं हैं लेकिन ये घटनाएं इस विधि का चयन करने वाली महिलाओं की संख्या को प्रभावित नहीं करतीं। शायद उन्हें नसबंदी करने के लिए उचित प्रोत्साहन के साथ लुभाया जाता है। फिर भी हम इस समस्या से भाग नहीं सकते। भारत में जनसंख्या नियंत्रण का पूरा बोझ महिलाओं द्वारा वहन किया गया है और अभी भी वहन किया जा रहा है। यह बोझ विशेष रूप से नसबंदी के मामले में है। पिछले दस वर्षों का सच यही है जो सरकार के एनएचएफएस 2005-2006 से एनएचएफएस 2015-2016 के सर्वेक्षण में दिखाई दे रहा है।
गर्भधारण रोकने के लिए आज कई विकल्प उपलब्ध हैं इसलिए महिलाएं ट्यूबेक्टोमी के लिए 'ना' कह सकती हैं। अंतर्गर्भाशयी गर्भनिरोधक उपकरण (आईयूसीडी) जैसे कॉपर-टी या अन्य हार्मोनल उपकरण लंबी अवधि के लिए प्रभावी हैं। ये लगभग स्थायी विधि की तरह काम करते हैं। महिलाओं के लिए इनका एक या दो बार उपयोग करना पूरे प्रजनन चक्र में गर्भावस्था को रोकने के लिए पर्याप्त हो सकता है। इस प्रकार यह एक स्थायी विधि के रूप में भी कार्य करता है।
जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) नियमित रूप से नहीं खुलते हैं, डॉक्टर और नर्स पूरी तरह से मौजूद नहीं हैं और लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों पर बहुत कम भरोसा है वहां जन्म दर नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए नसबंदी एक निश्चित तरीका है। विकल्प उपलब्ध कराने और सुझाने के लिए हमारे डॉक्टरों तथा नर्सों को प्रशिक्षण देने की आवश्यकता होगी। इन तरीकों को उपलब्ध कराने और इन विभिन्न तरीकों से जुड़े भय एवं मिथकों को दूर करने के लिए लोक संवाद बढ़ाना होगा। इस मामले में कॉपर-टी एक उदाहरण है जिसके बारे में एक आम डर यह है कि 'यह पेट में ऊपर जाएगा।'
इस भय पर काबू पाने के लिए महिलाओं के डर को सुनने और स्वीकार करने की आवश्यकता होगी तथा महिलाओं को यह समझने में मदद मिलेगी कि ये भय निराधार क्यों हो सकते हैं। इसके लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को सातों दिन और चौबीसों घंटे खुला रखने और वहां स्वास्थ्य कर्मियों को मौजूद रहने की आवश्यकता होगी ताकि वे अन्य तरीकों के उपयोग से होने वाले रक्तस्राव व पेट दर्द जैसे किसी भी दुष्प्रभाव का प्रबंधन करने में सक्षम हो सकें।
प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर नए सिरे से जोर देना, नए स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों की स्थापना, पीएचसी तथा उप-केंद्रों में डॉक्टरों व कुशल कर्मचारियों की बढ़ती संख्या इस सिलसिले में स्वागतयोग्य कदम हैं जो इस आदर्श बदलाव को संभव बना सकते हैं।
(डॉ. संजना चिकित्सक व लेखा वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट:दी बिलियन प्रेस)


