प्रयोग के लिए प्रयोग राजनीति में नुकसानदायक
हिन्दी बेल्ट जहां की जीत हार ही 2004 के लोकसभा चुनाव का माहौल बनाएगी वहां सबसे पहले छत्तीसगढ़ में 7 नवंबर को मतदान होगा

- शकील अख्तर
बात हो रही थी प्रयोग के लिए प्रयोग की। किताबी उसूलों की। अति आदर्शवाद से निकले तरीकों की। कांग्रेस ने इन विधानसभा चुनावों में सर्वे की प्रक्रिया शुरू की थी। हर विधानसभा क्षेत्र में तीन सर्वे करवाए गए। जाहिर है प्राइवेट कंपनियों से। तो इसमें भी वही हुआ कि जो प्रभावशाली थे वे हर बार अपना नाम ऊपर रखवाने में सफल हुए। सर्वे गोपनीय था।
हिन्दी बेल्ट जहां की जीत हार ही 2004 के लोकसभा चुनाव का माहौल बनाएगी वहां सबसे पहले छत्तीसगढ़ में 7 नवंबर को मतदान होगा। पहले चरण का। वहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मतदान के ठीक पहले एक बड़ा जायज सवाल उठाया है। नोटा को खत्म करने का।
बहुत सही मांग है। हालांकि ठीक मतदान से पहले इसे उठाने से इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। यह सरकार में रहते हुए, केन्द्र सरकार में खत्म करने का काम है। मगर विडंबना यह है कि इसे लाया ही यूपीए सरकार के द्वारा था। और यह भी मजेदार है कि सबसे पहले इसे लागू भी छत्तीसगढ़ में किया गया था। 2009 में।
दरअसल भारत के अधिकांश चुनाव सुधार अति आदर्शात्मक और अव्यवहारिक सोच के शिकार रहे। सबसे पहले शेषन ने बिना यह सोचे कि भारत में लोकतंत्र गरीबों का है वाल राइटिंग (दीवारों पर लिखने) झंडे बैनर, नारों, जुलूसों पर प्रतिबंध लगाने, नियंत्रित करने का काम किया। जाहिर है कि वह उस समय की सरकार, जो नरसिम्हा राव की थी, के बिना अनुमोदन के नहीं हुए। उनके अच्छे पक्ष भी हैं। मगर गरीबों के चुनाव लड़ने के जो मुख्य साधन होते थे दीवारों पर खुद रात-रात भर लिखना। छोटे-छोटे झंडे बैनर लगा देना वह सब बंद हो गया।
चुनावों का वह सबसे खूबसूरत पहलू था। आज भाजपा के पास बहुत पैसा साधन हैं। मगर पहले उसके उम्मीदवार भी प्रचार के परंपरागत साधनों दीवारों पर लिखने झंडा बैनर लगाने पर निर्भर थे। ऐसे ही लेफ्ट पार्टियां। उनके पास और कम साधन हुआ करते थे। मगर शहर गांव की दीवारें रंगते हुए वे लड़ते और जीतते भी थे। आज भी पुराने मोहल्लों में दूरदराज के गांवों के खंडहरों की दीवारों पर पुराने नारे, चुनाव चिन्ह और प्रत्याशियों के नाम लिखे दिख जाएंगे।
आज तो चुनाव मीडिया लड़ाता है। और वह केवल एक पार्टी के साथ है। बाकी दलों और प्रत्याशियों के पास क्या है? कैसे प्रचार करें वे अपना?
चुनाव सुधार के नाम पर दूसरा बड़ा काम ईवीएम लाना हुआ। यह 2004 से पूरी तरह शुरु हुआ। इसका भी अब कांग्रेस खुल कर विरोध कर रही है। मगर लाने वाली वही थी। दुनिया के विकसित देशों में इस पर प्रतिबंध लगा हुआ है। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी जैसे प्रमुख देशों में। भारत के अलावा मशीन पर मतदान केवल 2 -4 छोटे देशों में ही हो रहा है।
बिना सोचे समझे इस तरह के प्रयोग भाजपा नहीं करती है। वह इलेक्टोरल बांड लाती है। जिसका फायदा उसे ही होता है। जबकि कांग्रेस के लाए नोटा, ईवीएम, आरटीआई, अपने अग्रिम संगठनों यूथ कांग्रेस एनएसयूआई में आन्तरिक चुनाव, अभी विधानसभा चुनावों के टिकट सर्वे के आधार पर देना विवादों में आ जाते हैं। और खुद उसके लिए लाभदायक नहीं होते।
पहले समाज को नए विचारों के लिए ढालने की प्रक्रिया शुरू करना पड़ती है। जनता के थोड़ा तैयार होने और अनुकूल व्यवस्था बनने के बाद लाया कोई जनहितकारी कानून ही उपयोगी हो पाता है। केवल किताबी सिद्धांत से लाया कानून नहीं। आरटीआई यूपीए लाई और यूपीए के खिलाफ ही इसका खूब उपयोग हुआ। कई आरटीआई एक्टिविस्ट बन गए। देश में और बाहर खूब प्रचार ले लिया। पुरस्कार और अन्य लाभ भी। मगर 2014 के बाद आरटीआई और आरटीआई एक्टिविस्ट कहां हैं? सरकार के खिलाफ तो कोई पूछ नहीं सकता। और पूछता है तो जवाब आता नहीं है। पीछे से कोई धमकी या चेतावनी जरूर आ जाती है। बड़े आन्दोलनजीवी, क्रान्तिकारी बन रहे हैं!
इसी तरह एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस का संगठन चुनाव के जरिए करवाने का राहुल गांधी का फैसला है। वे जब 2007 में कांग्रेस महासचिव बने और इन अग्रिम संगठनों का प्रभार मिला तब से उन्होंने इन दोनों संगठनों के आन्तरिक चुनाव करवाना शुरू किए। इसमें भी समस्या यह है कि जो ताकतवर पृष्ठभूमि से आए हुए लड़के या लड़कियां हैं उन्हें इसका और ज्यादा फायदा मिला। गरीब का कमजोर पृष्ठभूमि से आया लड़का या लड़की आन्तरिक चुनाव कैसे लड़ेगा? लड़ ही नहीं पाता है।
कालेज यूनिवर्सिटी में जाते ही खासतौर से एडमिशन के समय जुलाई-अगस्त में लड़के -लड़कियों की भीड़ में नेतृत्व क्षमता रखने वाले अलग ही नजर आ जाते हैं। ऐसे ही किसी भी पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों में आने वाले युवाओं में से युवा नेतृत्व अलग ही दिखने लगता है। राजीव गांधी ने युवाओं को आगे बढ़ाने के लिए इस तरह के ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू किए थे। इन्दिरा गांधी एक नजर में प्रतिभाशाली लोगों को पहचान जाती थीं। भाजपा में आडवानी बहुत पारखी थे। सबसे ज्यादा नेता उन्होंने बनाए हैं। यह अलग बात है कि आज के उनके शिष्य ने उनका ही अंगूठा मांग लिया! गुरु आडवानी को उनके प्रतिद्वन्दी वाजपेयी इतना नुकसान नहीं पहुंचा पाए जितना शिष्य ने पहुंचा दिया।
2014 में वाजपेयी स्वस्थ और प्रभावी होते तो आडवनी को राष्ट्रपति तो जरूर बनवाते। मगर मोदीजी ने उन्हें उपराष्ट्रपति भी नहीं बनाया। 2017 में आडवानी को उम्मीद थी कि उन्हें गुरु दक्षिणा के रूप में राष्ट्र्रपति नहीं तो उपराष्ट्रपति तो जरूर बना दिया जाएगा। मगर 2019 में उनको लोकसभा का टिकट भी नहीं दिया गया। खैर यह अलग मुद्दा है। मगर नेता बनाने में जिन लोगों का नाम सबसे ऊपर आएगा उनमें इन्दिरा गांधी और लालकृष्ण आडवानी हैं। दोनों प्रतिभाओं को पहचानने वाले, तराशने वाले और मौका देने वाले नेता निर्माता रहे। आज कोई किसी को नहीं बनाता है।
तो बात हो रही थी प्रयोग के लिए प्रयोग की। किताबी उसूलों की। अति आदर्शवाद से निकले तरीकों की। कांग्रेस ने इन विधानसभा चुनावों में सर्वे की प्रक्रिया शुरू की थी। हर विधानसभा क्षेत्र में तीन सर्वे करवाए गए। जाहिर है प्राइवेट कंपनियों से। तो इसमें भी वही हुआ कि जो प्रभावशाली थे वे हर बार अपना नाम ऊपर रखवाने में सफल हुए। सर्वे गोपनीय था। और सही में बहुत मेहनत करने वाले जनता के काम करवाने वाले कमजोर, आर्थिक स्थिति के उम्मीदवार के लिए वह गोपनीय ही रहा। सर्वे टीम कब आई चली गई उसे पता ही नहीं चला। मगर हर बार टिकट लेने में सफल होने वालों ने उन्हें सेटल भी कर लिया।
समस्या यह है कि आज नेता कार्यकर्ताओं से ही नहीं मिलते हैं तो जनता के बीच तो संपर्क होने का तो सवाल ही नहीं है। पहले पत्रकारों के भी जनता से सीधा संपर्क होता था। नेता उनसे भी फीडबैक ले लेते थे। मगर आज पत्रकार जो बताया जाता है लिख देते हैं। जनता के बीच जाते ही नहीं हैं। पहले नेता हर विधानसभा क्षेत्र के कार्यकर्ताओं, जनता के तमाम लोगों और वहां के काम करने वाले नेताओं को अच्छी तरह जानता था। मगर अब संपर्क संबंध की राजनीति खत्म हो रही है। और जाहिर है इसका सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हो रहा है। क्योंकि भाजपा में तो आरएसएस के माध्यम से एक पुल है। जो नेता कार्यकर्ता और जनता को जोड़ता है। मगर कांग्रेस में बहुत गैप पैदा हो गया है।
राहुल प्रियंका ने कार्यकर्ताओं से मिलने का सिस्टम नहीं बनाया। फिर जनता से तो सवाल ही नहीं। यह जनसभाओं में जाना या यात्रा से वह भावनात्मक जुड़ाव और विश्वास नहीं आता जो कार्यकर्ता या जनता के नेता से उसके आफिस या घर पर मिलने से आता है। खरगे जी को भी एक साल हो गया। मगर मुलाकातों का सिलसिला उन्होंने भी शुरू नहीं किया।
कांग्रेस ने एक काम और किया कि अपने मुख्यालय से अलग एक वार रूम बना लिया। सब गतिविधियां वहीं होने लगीं। मगर वहां कार्यकर्ता, जनता, पत्रकार का प्रवेश वर्जित है। इससे 24 अकबर रोड के मुख्यालय का महत्व खत्म हो गया। यह ऐतिहासिक जगह है जहां इन्दिरा गांधी को 1977 में हारने के बाद कांग्रेस का आफिस लेकर आना पड़ा था। और फिर यहीं से उन्होंने ग्रेट वापसी की थी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


