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मणिपुर में इतने बवाल के बाद भी मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंची आंच

मणिपुर जातीय हिंसा की आंच में झुलस रहा है लेकिन राज्य सरकार के नेताओं या मुख्यमंत्री पर इसकी कोई आंच नहीं आई है. केंद्र और प्रदेश की सत्ता पर काबिज बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व एन बीरेन सिंह को क्यों कुछ नहीं कहता.

मणिपुर में इतने बवाल के बाद भी मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंची आंच
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एन.बीरेन सिंह. पूर्वोत्तर के छोटे-से पर्वतीय राज्य मणिपुर के मुख्यमंत्री हैं. तीन मई से पहले तक उनका नाम शायद देश में बहुत कम लोगों ने ही सुना होगा. लेकिन बीते करीब 80 दिनों से मैतेई और कुकी तबके के बीच बड़े पैमाने पर जारी जातीय हिंसा और आगजनी ने उनका नाम देश के कोने-कोने तक पहुंचा दिया है.

अब दो महिलाओं के यौन उत्पीड़न का वीडियो वायरल होने के बाद तो उनका नाम सात समंदर पार विदेशों तक पहुंच गया है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इतना कुछ होने के बावजूद वे अपनी कुर्सी पर मजबूती से जमे हैं. हाल के वर्षो में ऐसी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती.

राजनीति के बड़े खिलाड़ी

बीते मई से अब तक होने वाली घटनाओं ने साफ कर दिया है कि एन.बीरेन सिंह फुटबॉल ही नहीं, राजनीति के भी बड़े खिलाड़ी हैं. फुटबॉल की भाषा में कहें तो उनकी जगह दूसरे किसी राज्य का कोई मुख्यमंत्री होता तो कब का रेड कार्ड दिखा कर उसे मैदान यानी सत्ता से बाहर कर दिया गया होता.

जातीय हिंसा पर अंकुश लगाने की दशा में कई ठोस पहल नहीं करने के बावजूद उनकी कुर्सी जस की तस है. इस बीच, बीते 30 जून को उन्होंने इस्तीफा देने और उसे फड़वाने का नाटक जरूर किया. इससे लगता है कि फुटबॉल और पत्रकारिता के अलावा उनमें एक अभिनेता के गुण भी मौजूद हैं. उनकी यही कला महिलाओं का वीडियो वायरल होने और इस पर हुए चौतरफा हंगामे के बाद देखने को मिली. जिस मामले में एफआईआर दर्ज होने के दो महीने तक पुलिस अभियुक्तों को तलाश नहीं सकी, उसी मामले में 24 घंटों के भीतर मुख्य अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया गया.

जातीय हिंसा की सबसे बड़ी शिकार हैं मणिपुरी महिलाएं

बीरेन सिंह खुद कहते रहे हैं कि फुटबॉल उनका शौक था और पत्रकारिता पैशन. लेकिन आत्मा की पुकार पर लोगों की सेवा करने वे राजनीति में उतरे थे. अब तीन मई से जारी हिंसा में करीब डेढ़ सौ लोगों की मौत और पचास हजार से ज्यादा के विस्थापन के दौरान उन्होंने लोगों की कौन-सी या कितनी सेवा की है, इसका जवाब या तो खुद बीरेन दे सकते हैं या फिर उन पर भरोसा रखने वाले बीजेपी के केंद्रीय नेता.

बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व का भरोसा

मौजूदा परिस्थिति में जब कुकी तो दूर खुद मैतेई लोगों का भी सिंह से भरोसा लगभग खत्म हो चुका है, केंद्रीय नेतृत्व का उन पर भरोसा बनाए रखना हैरत में डालता है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अब इतने दिनों बाद बीरेन सिंह को हटाने या उनसे इस्तीफा लेने पर गलत संदेश जाएगा. इससे यह लग सकता है कि इतने लंबे समय तक जान-बूझकर मणिपुर को जातीय हिंसा की आग में जलने दिया गया.

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि फिलहाल बीरेन सिंह की कुर्सी को कोई खतरा नहीं है. लेकिन उनसे ताजा घटना पर सफाई जरूर मांगी जा सकती है. सिंह ने खुद अपनी एक टिप्पणी से भी अपने लिए एक मुसीबत खड़ी कर ली है. उन्होंने कहा कि यह तो एक वीडियो का मामला है. ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं.

मणिपुर में क्यों भड़की है हिंसा की आग

फुटबॉल और पत्रकारिता

बीरेन सिंह का जन्म मणिपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. उनको बचपन से ही खेल के प्रति काफी लगाव था और स्कूल के दिनों में वे फुटबॉल मैच खेला करते थे. इसी खेल ने उनको सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में नौकरी दिलाई थी. खेल कोटे में भर्ती होने के बाद वे कुछ साल तक बीएसएफ की फुटबाल टीम में शामिल रहे.

कुछ साल बाद उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया था और पत्रकारिता की ओर मुड़े थे. एक पत्रकार के तौर पर नौकरी की शुरुआत कर वे धीरे-धीरे संपादक के पद तक पहुंच गए थे. उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत वर्ष 2002 में क्षेत्रीय पार्टी डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशनरी पीपुल्स पार्टी के साथ की थी.दो साल बाद कांग्रेस मनें शामिल हो गए. वर्ष 2016 में वे कांग्रेस से नाराज होकर बीजेपी में शामिल हो गए थे. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है.

बीजेपी के साथ कामयाबी का सफर

वर्ष 2017 में मणिपुर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनको राज्य में बीजेपी के नेतृत्व वाली पहली सरकार का मुख्यमंत्री बनाया गया. पांच साल के अपने पहले कार्यकाल के दौरान बीरेन सिंह को मणिपुर में शांति बहाल करने का श्रेय मिला और साथ ही राज्य में कई नई विकास परियोजना शुरू करने में मदद मिली.

इस दौरान पत्रकारों के बेवजह उत्पीड़न के लिए भी वे खबरों में बने रहे. लेकिन इसका असर ना तो उनके करियर पर पड़ा और ना ही सरकार पर. यही वजह है कि वर्ष 2022 के चुनाव में वे दोबारा चुने गए और इस बार पार्टी ने अकेले अपने बूते बहुमत हासिल कर लिया. इससे केंद्रीय नेतृत्व की निगाह में बीरेन सिंह का कद काफी बढ़ गया.

जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीरेन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान कई ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए थे जिससे घाटी और पर्वतीय इलाकों के बीच विभाजन को कम करने में मदद मिली. इस दौरान महीने में एक दिन पूरा मंत्रिमंडल और सरकारी अधिकारी पर्वतीय इलाके में किसी जगह जाकर आम लोगों की समस्याएं सुनते थे.

तो क्या अपने बूते बीजेपी को बहुमत दिलाने के कारण बीरेन सिंह अति आत्मविश्वास का शिकार हो गए और इसी वजह से कुकी बहुल पर्वतीय इलाके में भीतर ही भीतर धधकती आग की आंच नहीं भांप सके? या फिर खुफिया एजेंसियों से मिली जानकारी के बावजूद उनको अपनी और सरकार की ताकत पर पूरा भरोसा था और क्या उन्होंने हालात के इस कदर हाथ से निकलने की उम्मीद नहीं की थी?

यह और ऐसे कई सवाल जातीय हिंसा शुरू होने के बाद बीरेन सिंह की चुप्पी को देखते हुए पूछे जा रहे हैं, लेकिन इनके जवाब ना तो बीरेन सिंह ने दिए हैं और न ही बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने. शायद उन्होंने अपनी चुप्पी को ही अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है.

केंद्रीय नेतृत्व का समर्थन

विश्लेषकों का कहना है कि अब तक जारी घटनाक्रम से साफ है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बीरेन सिंह के साथ है. उन्होंने सीमा पार से घुसपैठ, नशीली दवाओं के धंधे से जुड़े लोगों और पैसों आदि को हिंसा की जड़ बता कर अपनी कुर्सी फिलहाल सुरक्षित रखी है.

राजनीतिक विश्लेषक ओ. नाओबा कहते हैं, "बीते करीब 80 दिनों के घटनाक्रम से साफ है कि फुटबॉल के गुर का इस्तेमाल करते हुए ही सिंह ने अब तक अपनी कुर्सी बचा रखी है. लेकिन वे इसमें कब तक और कितना कामयाब होंगे, इस सवाल का जवाब तो आने वाला समय ही देगा. और इसी पर उनका राजनीतिक करियर टिका है. फिलहाल उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं है."


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