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एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है

15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मोदी लालकिले पर न केवल अपनी वापसी का ऐलान कर रहे थे

एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
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- सर्वमित्रा सुरजन

15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मोदी लालकिले पर न केवल अपनी वापसी का ऐलान कर रहे थे, बल्कि अमृतकाल की उपलब्धियों को गिना रहे थे, उसी समय गुजरात के मेहराणा के एक छोटे से गांव लुनावा के एक स्कूल में एक दसवीं कक्षा में पहले नंबर पर आने वाली बच्ची को केवल इसलिए पुरस्कृत नहीं किया गया, क्योंकि वो मुस्लिम थी।

मुझे नहीं मालूम कि अरनाज बानो के दिल में इस वक्त किस तरह के ख्याल आ रहे होंगे। उनके मां-बाप किस किस्म की हताशा और निराशा को महसूस कर रहे होंगे। लेकिन मुझे इतना पता है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाले इस देश के मुखिया जब लालकिले पर चढ़कर, नयी पगड़ी पहने ये घमंड भरा ऐलान कर रहे थे कि अगले साल भी मैं ही आऊंगा, उस वक्त उनके गृहराज्य गुजरात की एक बेटी की आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं, क्योंकि उसे उस उपलब्धि का सम्मान भी नहीं लेने दिया गया, जिसकी वो हकदार थी।

उपलब्धियों का सुख क्या होता है, ये वही लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने खुद कभी कुछ करके दिखाया हो। और इस मामले में मौजूदा निजाम एकदम कंगाल नजर आता है। अभी चांद की सतह छूने और चंदा मामा को धरती की राखी भेजने पर जो थाली-ताली पीटी जा रही है, उसकी नींव भी नेहरूजी के जमाने में ही तैयार हुई थी। संयोग है कि विक्रम साराभाई भी गुजरात के ही थे। जहां उन्होंने भारत के लिए अंतरिक्ष को छूने वाले बड़े सपने देखे और उन सपनों को सच करने का रास्ता नेहरूजी ने तैयार किया।

कल्पना कीजिए कि आज के जमाने में अगर साराभाई प्रस्ताव रखते कि हमें अंतरिक्ष कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है, तकनीकी के सहारे शिक्षा को दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाना है, किसानों को शिक्षित करना है, कपड़ा बनाने वाले बुनकरों को आधुनिक तकनीकी का ज्ञान देकर समृद्ध बनाना है और ये सब सरकार के अंतर्गत करना है, तो क्या विक्रम साराभाई को सरकार का सहयोग मिलता। मेरे ख्याल से तो नहीं मिलता, क्योंकि आज जो व्यक्ति की शिक्षा की बात करे, शिक्षित राजनेताओं की बात करे, उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है।

किसानों के हक में आवाज उठाने वालों को आतंकवादी कहा जाता है। बुनकरों के विकास से ज्यादा जरूरी उद्योगपति मित्रों का विकास जरूरी माना जाता है। इसलिए विक्रम साराभाई और होमी जहांगीर भाभा जैसे वैज्ञानिकों के सपने शुरुआत में ही रौंद दिए जाते और उन्हें सलाह मिलती कि वेदों में विज्ञान से विकास का रास्ता तलाशें।

खैर भाजपा स्वतंत्रता के वक्त नहीं थी, न ही दक्षिणपंथी विचारकों ने कभी आजाद भारत में विकास के सपने देखे। उनका बस चलता तो वे भारत को मध्ययुग की गुफाओं में ही भटकाते रहते। दो उदाहरणों से ये बात समझ आ जाएगी। 1938 में 'वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड' में गोलवलकर लिखते हैं-'नस्ल और उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को सेमिटिक नस्लों-यहूदियों से मुक्त करके दुनिया को चौंका दिया...जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि भिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लिए एक संपूर्णता में समाहित हो पाना कितना असंभव है। हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए यह एक अच्छा सबक है।'

यानी गोलवलकर भारत को हिटलर वाली जर्मनी के रास्ते पर भेजने के लिए तैयार थे। जर्मनी में नस्लीय शुद्धता के नाम पर हुए नरसंहार से वे हिंदुस्तान को प्रेरणा लेने कहते हैं। जबकि इसी दौरान 1938 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इलाहाबाद में व्याख्यान देते हुए नेहरू कहते हैं- हमारी समस्याएं बहुत बड़ी हैं। इन्हें अकेले राजनेता हल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि हो सकता है कि उनके पास वैज्ञानिक विशेषज्ञता और दूरदृष्टि न हो; उन्हें अकेले वैज्ञानिक भी हल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उनके पास राजनीतिक शक्ति और व्यापक सामाजिक दृष्टिकोण नहीं होगा जो हर चीज को अपने दायरे में ले लेता है। वे समस्याएं विज्ञान और राजनीति इन दोनों के सहयोग से ही हल हो सकती हैं और होंगे।

दोनों विचारों में कितना फर्क है। कहां नेहरूजी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का हल तलाश रहे थे और कहां गोलवलकर नरसंहार की वकालत कर रहे थे। इतिहास के पन्नों को पलटें तो ऐसे अनेक दृष्टांत मिल जाएंगे। लेकिन आज हजार साल बाद के भारत की बात करके मोदी सरकार देश के असली इतिहास से जनता का ध्यान भटका रही है। आज भारत गोलवलकर जैसी सोच रखने वालों की तर्ज पर ही चलाया जा रहा है। आजादी के बाद जो व्यवस्थाएं तत्कालीन सरकारों ने बनाईं और जो व्यवस्था 2014 तक सुचारू चलती रही, उस वजह से अभी भारत में हालात काफी हद तक संभले हुए हैं, लेकिन सवाल यही है कि कब तक हम खैर मनाएंगे। बारुद के ढेर पर बैठे रहने पर विस्फोट का खतरा बना ही रहता है। फिलहाल उसकी चिंगारियां देश में जगह-जगह दिख रही हैं। मणिपुर, हरियाणा इन चिंगारियों की भेंट चढ़ चुके हैं। गुजरात ने 2002 में यह सब भुगत लिया है। और अब वहां हिंदू-मुस्लिम खाई इतनी गहरी बन चुकी है कि इसमें मासूमों को भी नहीं बख्शा जा रहा है।

15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मोदी लालकिले पर न केवल अपनी वापसी का ऐलान कर रहे थे, बल्कि अमृतकाल की उपलब्धियों को गिना रहे थे, उसी समय गुजरात के मेहराणा के एक छोटे से गांव लुनावा के एक स्कूल में एक दसवीं कक्षा में पहले नंबर पर आने वाली बच्ची को केवल इसलिए पुरस्कृत नहीं किया गया, क्योंकि वो मुस्लिम थी। अरनाज बानो सिपाही 15 अगस्त के जलसे में इंतजार करती रही कि उसका नाम पुकारा जाएगा और उसे सम्मानित किया जाएगा, क्योंकि स्कूल में 10वीं और 12वीं में पहले स्थान पर आने वाले बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था। लेकिन अरनाज का नाम लिया ही नहीं गया और दूसरे स्थान पर आने वाली बच्ची को सम्मानित किया गया आत्मसम्मान पर लगी इस गहरी ठेस को लिए अरनाज जब रोते हुए घर पहुंची तो उसके पिता सरवर खान ने स्कूल के प्रिंसिपल अनिल पटेल और संचालक बिपिन पटेल से इस बात की शिकायत की कि मेरी बच्ची पहले नम्बर पर पास हुई थी फिर भी आपने उसका नाम रद्द क्यों किया, जिस पर स्कूल के प्रिंसिपल और संचालक की तरफ से गोल-मोल जवाब मिले कि अरनाज़ बानो को एक नहीं 10 इनाम 26 जनवरी 2024 को हम देंगे। इस पर सनवर खान ने कहा हमको इनाम नहीं चाहिए लेकिन अगर मेरी बेटी का सम्मान होता तो हमें गौरव होता।'

अरनाज ने 10वीं में 87 प्रतिशत के साथ पहला स्थान हासिल किया था, लेकिन शायद उस बच्ची की धार्मिक पहचान उसकी शैक्षणिक योग्यता पर भारी पड़ गई। अरनाज के पिता अब इस मसले पर ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि उन्हें 2024 के चुनावों में बनने वाले माहौल का अहसास है। सवाल ये है कि मोदी सरकार ने सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास नारा देने के साथ ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाया कि कोई पिता अपनी बच्ची की उपलब्धि के बावजूद लाचार महसूस न कर सके। इस घटना के बाद अब अरनाज भी डरी हुई है कि अब वह स्कूल कैसे जाए। उसे आगे पढ़ना है, मगर भेदभाव ने उसके अबोध मन पर गहरा निशान छोड़ दिया है। इस मामले में भेदभाव के आरोप से स्कूल ने साफ इंकार कर दिया है। स्कूल प्रशासन का कहना है कि हमारा स्कूल किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ सख्त नीति रखता है। निश्चिंत रहें, योग्य छात्रा को 26 जनवरी को उसका इनाम मिलेगा, यह उल्लेखनीय है कि वह निर्धारित दिन पर अनुपस्थित थी, जिससे इनाम देने में बाधा उत्पन्न हुई।' यानी स्कूल रिकार्ड में अरनाज 15 तारीख को उपस्थित ही नहीं हुई थी। यह चीन पर मोदीजी के दिए गए बयान जैसा ही है। न कोई आया है, न कोई घुसा है। तो फिर किसी को लाल आंखें दिखाने या नाम लेकर चेतावनी देने का मतलब ही नहीं है।

लेकिन धुआं उठा है, तो जाहिर है कहीं न कहीं चिंगारी जरूर लगी है। शिक्षा, विज्ञान, मेलजोल की संस्कृति, धार्मिक सहिष्णुता, इन सबको भारत के रजिस्टर से गैरहाजिर बता कर कुछ सालों का सत्ता सुख तो हासिल किया जा सकता है, मगर इससे एक-दो नहीं, लाखों-करोड़ों आंखों में आंसुओं का सैलाब आएगा, इस सैलाब में कौन, कैसे बहेगा, ये भी इतिहास में दर्ज हो ही जाएगा।

मुनव्वर राना ने लिखा है-

एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है,

तुम ने देखा नहीं आंखों का समुंदर होना।।

एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
ठ्ठ सर्वमित्रा सुरजन
15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मोदी लालकिले पर न केवल अपनी वापसी का ऐलान कर रहे थे, बल्कि अमृतकाल की उपलब्धियों को गिना रहे थे, उसी समय गुजरात के मेहराणा के एक छोटे से गांव लुनावा के एक स्कूल में एक दसवीं कक्षा में पहले नंबर पर आने वाली बच्ची को केवल इसलिए पुरस्कृत नहीं किया गया, क्योंकि वो मुस्लिम थी।
मुझे नहीं मालूम कि अरनाज बानो के दिल में इस वक्त किस तरह के ख्याल आ रहे होंगे। उनके मां-बाप किस किस्म की हताशा और निराशा को महसूस कर रहे होंगे। लेकिन मुझे इतना पता है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाले इस देश के मुखिया जब लालकिले पर चढ़कर, नयी पगड़ी पहने ये घमंड भरा ऐलान कर रहे थे कि अगले साल भी मैं ही आऊंगा, उस वक्त उनके गृहराज्य गुजरात की एक बेटी की आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं, क्योंकि उसे उस उपलब्धि का सम्मान भी नहीं लेने दिया गया, जिसकी वो हकदार थी। उपलब्धियों का सुख क्या होता है, ये वही लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने खुद कभी कुछ करके दिखाया हो। और इस मामले में मौजूदा निजाम एकदम कंगाल नजर आता है। अभी चांद की सतह छूने और चंदा मामा को धरती की राखी भेजने पर जो थाली-ताली पीटी जा रही है, उसकी नींव भी नेहरूजी के जमाने में ही तैयार हुई थी। संयोग है कि विक्रम साराभाई भी गुजरात के ही थे। जहां उन्होंने भारत के लिए अंतरिक्ष को छूने वाले बड़े सपने देखे और उन सपनों को सच करने का रास्ता नेहरूजी ने तैयार किया। कल्पना कीजिए कि आज के जमाने में अगर साराभाई प्रस्ताव रखते कि हमें अंतरिक्ष कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है, तकनीकी के सहारे शिक्षा को दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाना है, किसानों को शिक्षित करना है, कपड़ा बनाने वाले बुनकरों को आधुनिक तकनीकी का ज्ञान देकर समृद्ध बनाना है और ये सब सरकार के अंतर्गत करना है, तो क्या विक्रम साराभाई को सरकार का सहयोग मिलता। मेरे ख्याल से तो नहीं मिलता, क्योंकि आज जो व्यक्ति की शिक्षा की बात करे, शिक्षित राजनेताओं की बात करे, उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। किसानों के हक में आवाज उठाने वालों को आतंकवादी कहा जाता है। बुनकरों के विकास से ज्यादा जरूरी उद्योगपति मित्रों का विकास जरूरी माना जाता है। इसलिए विक्रम साराभाई और होमी जहांगीर भाभा जैसे वैज्ञानिकों के सपने शुरुआत में ही रौंद दिए जाते और उन्हें सलाह मिलती कि वेदों में विज्ञान से विकास का रास्ता तलाशें।खैर भाजपा स्वतंत्रता के वक्त नहीं थी, न ही दक्षिणपंथी विचारकों ने कभी आजाद भारत में विकास के सपने देखे। उनका बस चलता तो वे भारत को मध्ययुग की गुफाओं में ही भटकाते रहते। दो उदाहरणों से ये बात समझ आ जाएगी। 1938 में 'वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड' में गोलवलकर लिखते हैं-'नस्ल और उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को सेमिटिक नस्लों-यहूदियों से मुक्त करके दुनिया को चौंका दिया...जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि भिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लिए एक संपूर्णता में समाहित हो पाना कितना असंभव है। हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए यह एक अच्छा सबक है।'यानी गोलवलकर भारत को हिटलर वाली जर्मनी के रास्ते पर भेजने के लिए तैयार थे। जर्मनी में नस्लीय शुद्धता के नाम पर हुए नरसंहार से वे हिंदुस्तान को प्रेरणा लेने कहते हैं। जबकि इसी दौरान 1938 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इलाहाबाद में व्याख्यान देते हुए नेहरू कहते हैं- हमारी समस्याएं बहुत बड़ी हैं। इन्हें अकेले राजनेता हल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि हो सकता है कि उनके पास वैज्ञानिक विशेषज्ञता और दूरदृष्टि न हो; उन्हें अकेले वैज्ञानिक भी हल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उनके पास राजनीतिक शक्ति और व्यापक सामाजिक दृष्टिकोण नहीं होगा जो हर चीज को अपने दायरे में ले लेता है। वे समस्याएं विज्ञान और राजनीति इन दोनों के सहयोग से ही हल हो सकती हैं और होंगे।दोनों विचारों में कितना फर्क है। कहां नेहरूजी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का हल तलाश रहे थे और कहां गोलवलकर नरसंहार की वकालत कर रहे थे। इतिहास के पन्नों को पलटें तो ऐसे अनेक दृष्टांत मिल जाएंगे। लेकिन आज हजार साल बाद के भारत की बात करके मोदी सरकार देश के असली इतिहास से जनता का ध्यान भटका रही है। आज भारत गोलवलकर जैसी सोच रखने वालों की तर्ज पर ही चलाया जा रहा है। आजादी के बाद जो व्यवस्थाएं तत्कालीन सरकारों ने बनाईं और जो व्यवस्था 2014 तक सुचारू चलती रही, उस वजह से अभी भारत में हालात काफी हद तक संभले हुए हैं, लेकिन सवाल यही है कि कब तक हम खैर मनाएंगे। बारुद के ढेर पर बैठे रहने पर विस्फोट का खतरा बना ही रहता है। फिलहाल उसकी चिंगारियां देश में जगह-जगह दिख रही हैं। मणिपुर, हरियाणा इन चिंगारियों की भेंट चढ़ चुके हैं। गुजरात ने 2002 में यह सब भुगत लिया है। और अब वहां हिंदू-मुस्लिम खाई इतनी गहरी बन चुकी है कि इसमें मासूमों को भी नहीं बख्शा जा रहा है।15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मोदी लालकिले पर न केवल अपनी वापसी का ऐलान कर रहे थे, बल्कि अमृतकाल की उपलब्धियों को गिना रहे थे, उसी समय गुजरात के मेहराणा के एक छोटे से गांव लुनावा के एक स्कूल में एक दसवीं कक्षा में पहले नंबर पर आने वाली बच्ची को केवल इसलिए पुरस्कृत नहीं किया गया, क्योंकि वो मुस्लिम थी। अरनाज बानो सिपाही 15 अगस्त के जलसे में इंतजार करती रही कि उसका नाम पुकारा जाएगा और उसे सम्मानित किया जाएगा, क्योंकि स्कूल में 10वीं और 12वीं में पहले स्थान पर आने वाले बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था। लेकिन अरनाज का नाम लिया ही नहीं गया और दूसरे स्थान पर आने वाली बच्ची को सम्मानित किया गया आत्मसम्मान पर लगी इस गहरी ठेस को लिए अरनाज जब रोते हुए घर पहुंची तो उसके पिता सरवर खान ने स्कूल के प्रिंसिपल अनिल पटेल और संचालक बिपिन पटेल से इस बात की शिकायत की कि मेरी बच्ची पहले नम्बर पर पास हुई थी फिर भी आपने उसका नाम रद्द क्यों किया, जिस पर स्कूल के प्रिंसिपल और संचालक की तरफ से गोल-मोल जवाब मिले कि अरनाज़ बानो को एक नहीं 10 इनाम 26 जनवरी 2024 को हम देंगे। इस पर सनवर खान ने कहा हमको इनाम नहीं चाहिए लेकिन अगर मेरी बेटी का सम्मान होता तो हमें गौरव होता।'अरनाज ने 10वीं में 87 प्रतिशत के साथ पहला स्थान हासिल किया था, लेकिन शायद उस बच्ची की धार्मिक पहचान उसकी शैक्षणिक योग्यता पर भारी पड़ गई। अरनाज के पिता अब इस मसले पर ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि उन्हें 2024 के चुनावों में बनने वाले माहौल का अहसास है। सवाल ये है कि मोदी सरकार ने सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास नारा देने के साथ ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाया कि कोई पिता अपनी बच्ची की उपलब्धि के बावजूद लाचार महसूस न कर सके। इस घटना के बाद अब अरनाज भी डरी हुई है कि अब वह स्कूल कैसे जाए। उसे आगे पढ़ना है, मगर भेदभाव ने उसके अबोध मन पर गहरा निशान छोड़ दिया है। इस मामले में भेदभाव के आरोप से स्कूल ने साफ इंकार कर दिया है। स्कूल प्रशासन का कहना है कि हमारा स्कूल किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ सख्त नीति रखता है। निश्चिंत रहें, योग्य छात्रा को 26 जनवरी को उसका इनाम मिलेगा, यह उल्लेखनीय है कि वह निर्धारित दिन पर अनुपस्थित थी, जिससे इनाम देने में बाधा उत्पन्न हुई।' यानी स्कूल रिकार्ड में अरनाज 15 तारीख को उपस्थित ही नहीं हुई थी। यह चीन पर मोदीजी के दिए गए बयान जैसा ही है। न कोई आया है, न कोई घुसा है। तो फिर किसी को लाल आंखें दिखाने या नाम लेकर चेतावनी देने का मतलब ही नहीं है।लेकिन धुआं उठा है, तो जाहिर है कहीं न कहीं चिंगारी जरूर लगी है। शिक्षा, विज्ञान, मेलजोल की संस्कृति, धार्मिक सहिष्णुता, इन सबको भारत के रजिस्टर से गैरहाजिर बता कर कुछ सालों का सत्ता सुख तो हासिल किया जा सकता है, मगर इससे एक-दो नहीं, लाखों-करोड़ों आंखों में आंसुओं का सैलाब आएगा, इस सैलाब में कौन, कैसे बहेगा, ये भी इतिहास में दर्ज हो ही जाएगा।मुनव्वर राना ने लिखा है-एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है,तुम ने देखा नहीं आंखों का समुंदर होना।।


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