पर्यावरण पारिस्थितिकी : पृथ्वी पर जनसंख्या का भार
19 अप्रैल को भारत की जनसंख्या का आंकड़ा 142.84 करोड़ पहुंच करचीन को भी पीछे छोड़ दिया है

- ललित कुमार सिंघानिया
तमाम पत्रकार एवं राजनेता, अपनी पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकी की अज्ञानता के कारण देश में बढ़ रही जनसंख्या के अभिशाप का मूल्यांकन नहीं करके, इसे चीन, जापान, जर्मनी जैसे देशों में घट रही अर्थव्यवस्था को, उनके यहां घट रही जनसंख्या से जोड़ कर उदाहरण देते हैं, यह सर्वर्था आत्मघाती चिंतन है। जबकि जर्मनी, जापान, चीन या अन्य विकसित देशों की अर्थव्यवस्था में मंदी का मूल कारण ही उनकी अर्थव्यवस्था का पर्यावरण घातीय स्वरूप ही है।
19 अप्रैल को भारत की जनसंख्या का आंकड़ा 142.84 करोड़ पहुंच करचीन को भी पीछे छोड़ दिया है। बावजूद इसके जनसंख्या विस्फोट के गंभीर दुष्प्रभावों पर चिंतन करने के बजाय, इस विस्फोटक हो चुकी जनसंख्या में युवा शक्तिमें व्याप्त मानवीय श्रम शक्ति के दोहन के माध्यम सेदेश की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि का भविष्य का सपना बहुत सारे विशेषज्ञ देख रहे हैं।
यद्यपि इसमें कदाचित भी कोई संदेह नहीं है कि किसी भी देश की युवा शक्ति ही उस राष्ट्र की सर्वोच्च उत्पादक शक्ति होती है, किन्तु हमें यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि यही युवा शक्ति पर्यावरणीय एवं ऊर्जा संसाधनों का भी सर्वाधिक उपभोग करती है।
अस्तु, इस पर्यावरण-ऊर्जा संकट की स्थिति में हमें क्या यह मूल्यांकन करना जरूरी नहीं है कि इस युवाशक्ति को यदि हम श्रेष्ठतम उत्पादकता में निहित भी करते हैं, तो क्या यह धारणीय उत्पादन प्रक्रिया में निहित किए जा सकते हैं अथवा उन्हें रोजगार देने की विवशता में हमें और नई-नई कोयला खदानें खोलनी होंगी और नए-नए प्राकृतिक संसाधनों के भंडारों को दुहना होगा?
हमें यह कदाचित नहीं भूलना चाहिए कि पृथ्वी पर उपलब्ध सीमित भूभाग, सीमित जल संसाधन, सीमित खनिज साधन, सीमित ऊर्जा साधनों से भी ज्यादा सीमित हमारे लिए आज के दिन में, अत्यंत सीमित कार्बन आकाश है, जो कि प्रतिदिन, प्रतिपल, प्रतिक्षण घटता ही जा रहा है।
दुनिया भर के राजनेताओं तथा अर्थशास्त्रियों एवं यहां तक कि पर्यावरण विशेषज्ञों की खोपड़ी में भी आज तक ये खतरनाक आंकड़े अच्छी तरह से प्रविष्ट नहीं हो पाए हैं कि आज की तारीख में पृथ्वी पर 1.50 सेंटीग्रेट तापमान से अधिक वृद्धि नहीं होने देने को सुनिश्चित करन ेहेतु कुल केवल और केवल 2800 से 3000 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन करने हेतु ही जगह है। और अभी हम मौजूदा आबादी से ही प्रतिवर्ष लगभग 430 करोड़ टन प्रतिवर्ष कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं। इस उत्सर्जन की राशि में यदि हम पृथ्वी पर वर्तमान में बढ़ रहे तापमान सेमीथेन गैस बनने एवं उत्सर्जन की भी गणना कर जोड़ दें तो यह उत्सर्जन और भी अधिक हो जाएगा। इस प्रकार हम पाते हैं कि पृथ्वी पर उपलब्ध 3000 करोड़ टन कार्बन आकाश को मात्र 7 वर्षों में ही खत्म कर चुके होंगे। तो इस उत्सर्जन स्तर के बाद पृथ्वी पर 1.50 सेंटीग्रेट तापमान बढ़ जाने के जो दुष्परिणाम आएंगे, उसे झेलने का साहस किसके पास होगा? उसे झेलने के लिए आर्थिक साधन किसके और कितनों के पास होंगे?
यह अत्यंत विडम्बना है कि तमाम पत्रकार एवं राजनेता, अपनी पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकी की अज्ञानता के कारण देश में बढ़ रही जनसंख्या के अभिशाप का मूल्यांकन नहीं करके, इसे चीन, जापान, जर्मनी जैसे देशों में घट रही अर्थव्यवस्था को, उनके यहां घट रही जनसंख्या से जोड़ कर उदाहरण देते हैं, यह सर्वर्था आत्मघाती चिंतन है। जबकि जर्मनी, जापान, चीन या अन्य विकसित देशों की अर्थव्यवस्था में मंदी का मूल कारण ही उनकी अर्थव्यवस्था का पर्यावरण घातीय स्वरूप ही है। इसे जनसंख्या घटोत्तरी से जोड़कर देखना उचित नहीं है। इन सभी देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था से उत्पन्न हो रहे पर्यावरणीय आघात को कम करने के लिए जो भी उपाय किए हैं, उसकी सकल परिणिति में आर्थिक सुस्ती स्वाभाविक है।
मैंने इस विषय पर अपना अर्थचिंतन पहले भी स्पष्ट किया था, जिसमें मूल सिद्धांत यही था कि जब तक मुद्रा (रूपया, डालर, युवान, येन या पौंड, स्टर्लिंग) का कार्बन फुटप्रिंट या पर्यावरण आघात पदचिन्ह निर्धारित नहीं किया जाता, तब तक किसी भी अर्थव्यवस्था की प्रगति को मात्र जीडीपी के आधार पर समृद्धिशाली स्वीकार करना सर्वाधिक भ्रामक हो सकता है।
अब यदि हम भारतवर्ष की ही चिंता करके, इस बात का मूल्यांकन करें कि वर्ष 2030 तक भारत की वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर से कितनी जनसंख्या हो जाएगी तथा इसी जनसंख्या का प्रतिव्यक्तिकार्बन फुटप्रिंट आज की ही दर पर रहा तो, कितना कार्बन उत्सर्जन प्रतिवर्ष होगा। तो स्थिति आत्मघाती ही प्रतीत होती है। अत: जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के साथ-साथ प्रतिव्यक्तिकार्बन फुटप्रिंट कम करना आवश्यक है। विश्व पृथ्वी दिवस पर हमें यह अवश्य चिंता करना चाहिए कि हम कहां खड़े हैं और कहां जाने को भटक रहे हैं? हमें इस बात का आंकलन अवश्य करना चाहिए कि पर्यावरण-पारिस्थितिकी और पृथ्वी पर जनसंख्या का भार कितना भयावह हो गया है। यदि इसका समाधान नहीं किया गया तो क्या दुष्परिणाम होंगे?


