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काले धन के समतुल्य हैं इलेक्टोरल बॉण्ड

चुनावी बॉण्ड असंवैधानिक करार कर उनसे राजनैतिक दलों को चुनाव फंडिंग न किये जाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह संज्ञान में रहना चाहिये कि कम-से-कम मान्य चुनावी प्रक्रियाओं के संदर्भ में चुनावी बॉण्ड से मिला धन शुचिता वाला धन न होकर काले धन के समतुल्य ही था

काले धन के समतुल्य हैं इलेक्टोरल बॉण्ड
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- वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

जब चुनावी फंडिंग की चुनावी बॉण्ड योजना आई थी, तो संसदीय परम्परा के विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का विचार था कि राजनैतिक दल चुनावों में कालेधन का भारी उपयोग करते हैं। राजनैतिक दलों को इन बॉण्डों को देने वालों का नाम जाहिर करना बाध्यकारी नहीं है, अत: पारदर्शिता का अभाव तो रहेगा ही। जिनका गैर-कानूनी काम किया गया है वे भी तो नेताओं के कहने पर उनके दलों को बॉण्ड दे सकते हैं।

चुनावी बॉण्ड असंवैधानिक करार कर उनसे राजनैतिक दलों को चुनाव फंडिंग न किये जाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह संज्ञान में रहना चाहिये कि कम-से-कम मान्य चुनावी प्रक्रियाओं के संदर्भ में चुनावी बॉण्ड से मिला धन शुचिता वाला धन न होकर काले धन के समतुल्य ही था। दुखद यह रहा कि जब प्रजातांत्रिक चुनावों में काले धन का वर्चस्व हर बीतते चुनावों के साथ बढ़ता ही जा रहा था, चुनावी बॉण्ड की गुमनामी धनराशि भी उसी रूप में इसमें मददगार भी हो रही थी। जब ये ऐन चुनावों के पहले जारी होते थे, तब तो खासकर इनसे पाये करोड़ों रुपयों से राजनैतिक दलों को चुनाव लड़ने में आसानी होती थी। लगभग पांच साल देरी से आये इस निर्णय से पहले चुनावों में गैर-बराबरी जारी थी। इससे कई दलीय उम्मीदवारों की हार-जीत पर असर भी पड़ा होगा।

जब चुनावी फंडिंग की चुनावी बॉण्ड योजना आई थी, तो संसदीय परम्परा के विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का विचार था कि राजनैतिक दल चुनावों में कालेधन का भारी उपयोग करते हैं। राजनैतिक दलों को इन बॉण्डों को देने वालों का नाम जाहिर करना बाध्यकारी नहीं है, अत: पारदर्शिता का अभाव तो रहेगा ही। जिनका गैर-कानूनी काम किया गया है वे भी तो नेताओं के कहने पर उनके दलों को बॉण्ड दे सकते हैं। फर्जी कम्पनियों के माध्यम से राजनैतिक बॉण्ड खरीदकर राजनैतिक आकाओं के दलों को उपकृत करने की संभावनाओं से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसा धन राजनैतिक इस्तेमाल के लिए शुचिता वाला धन कैसे हुआ?

अक्टूबर 2023 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का बयान था कि इलेक्टोरल बॉण्ड के पहले जो कुछ पारदर्शिता थी वह भी खत्म हो गई। पहले राजनैतिक दलों को बीस हजार रुपये और उससे ज्यादा धन देने वालों की सूची चुनाव आयोग के पास होती थी। वह उनको सार्वजनिक भी करता था, परन्तु इलेक्टोरल बॉण्ड जारी होने के बाद यह अनिवार्यता और पारदर्शिता भी नहीं रही।

समाचारों में ही था कि नवम्बर 2023 में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे वहां जब्त राशि पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले सात गुना ज्यादा थी। यदि सालों के अंतराल के बाद 31 अक्टूबर 2023 से चुनावी बॉण्ड की वैधता पर पुन: शुरू हुई सुनवाई पूरी होने के बाद भी उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने अपना निर्णय 2 नवम्बर 2023 को सुरक्षित न रखा होता तो शायद नवम्बर 2023 के विधानसभा चुनावों के पहले चुनावी बॉण्ड जारी भी न होते। स्टेट बैंक औफ इण्डिया की 29 शाखाओं से 29वीं बार 6 नवम्बर से 20 नवम्बर 2023 के दौरान चुनावी बॉण्डों की बिक्री, खरीदारी हुई थी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जो 2 नवम्बर के काफी बाद हुए थे, कुछ राजनैतिक दलों को चुनावी बॉण्ड का फायदा मिल ही गया।

पहली बार चुनावी बॉण्ड मार्च 2018 में बिके थे। इसके बाद वे विभिन्न सालों में विभिन्न अवधियों में बिकते रहे। अप्रैल 2021 में भी गैर-सरकारी संस्था एडीआर (एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स) ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में तब कुछ राज्यों में होने वाले विधान सभा के चुनावों के पूरे होने तक इलेक्टोरल बॉण्ड की बिक्रियों पर रोक लगाने की मांग की थी, किन्तु बेंच ने उसे खारिज कर दिया। केन्द्र ने एक अप्रैल 2021 से 10 अप्रैल 2021 तक बॉण्ड जारी भी किये थे। तब याचिकाकर्ता संस्था एडीआर का कहना था कि गैर-कानूनी और अवैध धन की मुखौटा कम्पनियों के माध्यम से फंडिग की और ज्यादा होने की संभावनायें बढ़ जायेगी। दो नवम्बर 2023 को चुनावी बॉण्डों की वैधता पर अपने निर्णय को सुरक्षित रखने के पहले अदालत ने ये टिप्पणी भी की थी कि सरकार की यह दलील मानना मुश्किल है कि मतदाताओं को राजनैतिक चंदों का स्त्रोत जानने का अधिकार नहीं है।

भारत आये भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन 12 दिसम्बर 2023 को बिना लाग-लपेट यह कह गये थे कि बॉण्ड चुनावी फंडिंग का नकदी से भी ज्यादा खराब विकल्प है। यह गैर-पारदर्शी है। केवल स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया ही जानता है कि चुनावी बॉण्ड से पैसे देने वाला कौन है। गुमनाम चुनावी बॉण्ड राजनैतिक दलों के बीच गैर-बराबरी के मैदान तैयार करता है। किसी काम के एवज में भी राजनैतिक दल चुनावी बॉण्ड से पैसे ले सकते हैं। सत्तारूढ़ दल तो चुनावी बॉण्ड से अकूत धन पाकर चुनावी खर्चे के चेक काट सकता है, किन्तु विपक्ष ऐसा नहीं कर सकता। चुनाव बराबरी में लड़ा जा सके इसके लिये विपक्ष को भारी नकदी का इंतजाम करना पड़ता है। काले धन पर निर्भर रहना पड़ता है। उन्हीं दिनों राज्यसभा सांसद धीरेन्द्र साहू से जुड़े ठिकानों में तीन सौ करोड़ रूपये की बरामदगी भी सुर्खियों में थी।

यह विडम्बना ही थी कि दो जनवरी 2018 को अधिसूचित जिस चुनावी बॉण्ड योजना को वैकल्पिक पारदर्शी राजनैतिक फंडिंग की पहल बताया गया था उससे भ्रष्टाचार पनपने व सत्तारूढ़ दलों को ही ज्यादा फायदा पहुंचने की शंकायें छ: साल पूरे होते-होते काफी गहरा गईं। बॉण्डों से प्राप्त धन चुनाव आयोग द्वारा सत्यापित एक अलग एकाउण्ट में रखना होता था। नियमत: कार्पोरेट या निजी दानदाता विभिन्न मूल्यों के बॉण्डों को खरीदकर पात्र राजनैतिक दलों को दे सकते थे। बॉण्डों पर न देने वाले का नाम होना था, न दाता की पहचान बताई जानी थी। कम्पनी के अंशधारकों या जनता के संज्ञान में नहीं आ सकता था कि राजनैतिक दलों को कौन धन दे रहा है। मोदी सरकार ने कहा था इससे हालांकि राजनैतिक दलों को मिले चंदे का विवरण पता चल जायेगा, किन्तु देने वालों के नामों का पता नहीं चलेगा। ऐसे में कांग्रेस पार्टी ने भी इसे धनशोधन या मनी-लॉण्डरिंग के समकक्ष ही माना था। बैंकों का भी ऐसा ही सोचना था। चुनाव आयोग की भी चाहत थी कि खरीदकर बॉण्ड देने वालों का नाम गुप्त रखा जाये।

भविष्य में जब स्टेट बैंक आफ इण्डिया द्वारा अब तक बिके बॉण्ड के मूल्यों, उनके खरीदारों, उनके मूल्यों व उनसे जिन राजनीतिक दलों को जब-जब धन मिलने की सूचना चुनाव आयोग को दी जायेगी तो उसके सार्वजनिक होने के बाद खोजी जानकारी से ही मालूम चल सकेगा कि किन मामलों में चुनावी बॉण्डों से राजनैतिक दलों को धन दिये जाने में व्यवसायिक लाभ लिये व दिये जाने के कारण थे। परन्तु जिन मामलों में ऐसा हुआ होगा उनमें तो बाद में भी और काले धन बनने और उसकी एक श्रृंखला बनने की संभावना बन जाती है। साफ धन दिया जाना है तो सीधे चेक से पार्टी को दिया ही जा सकता था तो कई क्षेत्र के नियमों में बदलाव लाकर चुनावी बाण्ड जैसे नये गुमनामी वाले दस्तावेज बनाने की योजना पर संदेह के कारण तो थे ही।
(लेखक पैन्यूली स्वतंत्र पत्रकार हैं।)


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