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कश्मीर में चुनाव की आहट

केन्द्र सरकार ने बहुत सही किया कि जी 20 की कश्मीर में होने वाली बैठक पर पाकिस्तान की सारी आपत्तियों को निरस्त करते हुए वहां के लिए तारीखे तय कर दीं

कश्मीर में चुनाव की आहट
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- शकील अख्तर

सरकार किसी का हो। भाजपा अपनी पहली बना ले या विपक्ष एनसी कांग्रेस या पीडीपी मिलकर बना लें या अपनी विधानसभा और दो-चार सीटें आजाद जीत जाएं तो मोदी जी भाजपा के समर्थन से उन्हें बना दें। किसी को भी। मगर बस चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए। दुनिया की नजरें उस पर होगीं।

केन्द्र सरकार ने बहुत सही किया कि जी 20 की कश्मीर में होने वाली बैठक पर पाकिस्तान की सारी आपत्तियों को निरस्त करते हुए वहां के लिए तारीखे तय कर दीं। अगले महीने वहां श्रीनगर में जी 20 के सभी देश मौजूद होंगे। दुनिया के सारे बड़े देश अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, जर्मनी, फ्रांस, रुस,जापान सब। साथ ही तुर्की, सऊदी अरब, इंडोनेशिया भी। मतलब वहां से पूरी दुनिया को संदेश जाएगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और पाकिस्तान इसमें बेवजह अड़ंगा डाल रहा है।

केन्द्र सरकार का फैसला भारत की हमेशा से चली आ रही विदेश नीति के अनुकूल ही है। मगर देश में एक और नीति भी कश्मीर के लिए हमेशा से चली आ रही है जो वाजपेयी टाइम में भी जारी रही वह है कश्मीर के अंदरुनी मामले में मिल-बैठकर निर्णय लेना। कश्मीर की बात अगर कोई दूसरा देश उठाता है तो उस मामले में पूरा देश एक रहता है। सारे राजनीतिक दल। इस बात की परवाह किए बिना कि कौन सत्ता में है और कौन विपक्ष में। कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार के समय कश्मीर पर यूएन में देश का पक्ष रखने के लिए जो प्रतिनिधि मंडल भेजा गया था उसका नेतृत्व भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा गया था।

ऐसे ही हमेशा से कश्मीर की आन्तरिक समस्या पर भी सब दल साथ मिलकर बात करते रहते हैं। सभी दलों ने एक साथ एक स्वर में संसद में यह प्रस्ताव पारित किया था कि कश्मीर में अगर कोई मुद्दा सुलझाने को रहा है तो वह है पाक अधिकृत कश्मीर का। वहां के लिए हमने हमेशा से विधान सभा की सीटें भी रखी हैं। और चुनाव के नोटिफिकेशन के समय यह कहा जाता है कि सुरक्षा कारणों से अभी वहां चुनाव करवाना संभव नहीं है लेकिन स्थिति सामान्य होते ही वहां चुनाव करवाए जाएंगे।

यह सारे फैसले एक मत से हैं। लेकिन अभी पिछले पांच साल से जब से वहां चुनी हुई सरकार नहीं है केन्द्र सरकार ने एक बार भी जम्मू-कश्मीर पर सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई। उसका विभाजन कर दिया गया। पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त करके केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। मगर सभी दलों के साथ बैठकर उनसे कभी भी बात नहीं की गई। कश्मीर हमारा है। मगर सब जानते है कि वह संवेदनशील मुद्दा है। पाकिस्तान इसे हमेशा उठाता रहता है। पाकिस्तान को चुप करने के लिए हमें हमेशा कश्मीरियों के समर्थन की जरूरत होती है। और वह हमेशा हमें मिला भी। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कहा था कश्मीर में सामान्य स्थिति की वापसी वहां के लोगों की वजह से संभव हुई है। और यह सच भी है। बिना जनता के समर्थन के आप कहीं पर भी कुछ भी नहीं कर सकते हैं।

अब वहां जी 20 की बैठक है। दुनिया को सही संदेश जाएगा। लेकिन साथ ही कश्मीरियों को भी सही संदेश जाना चाहिए। जैसा कि राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है इस साल वहां चुनाव होना संभावित लग रहा है। गुलाम नबी आजाद को जिस तरह मीडिया में प्रचार दिया गया वैसा उन्हें अपने 45 साल के राजनीतिक जीवन में कभी नहीं मिला। दो दिन में दर्जनों इंटरव्यू दिखाए गए। इसका उद्देश्य सीधा है। चुनाव में मुसलमानों के ज्यादा से ज्यादा वोट काटकर बीजेपी को फायदा पहुंचाना।

कोई गलत नहीं है। राजनीतिक नजरिए से। ओवैसी यह काम देश भर में कर चुके हैं। वहां वे सफल नहीं होते इसलिए अब कश्मीर में एक ओवैसी बनाया गया है। आजाद अपनी नई भूमिका के लिए बहुत उत्साहित हैं। एक के बाद एक इंटरव्यू देते हुए उनका चेहरा प्रफुल्लित है। थकान के कहीं लक्षण नजर नहीं आ रहे। मगर जब वे लगातार जम्मू-कश्मीर के प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ बातें कर रहे थे और सोनिया गांधी ने उनसे कहा था कि आप बन जाइए तो उन्होंने अपनी उम्र का हवाला देते हुए कहा था कि अब इस उम्र में मैं कोई नई जिम्मेदारी नहीं संभाल सकता। मगर उससे चार दिन और ज्यादा की उम्र में उन्होंने एक नई पार्टी बना ली। और अपनी पुरानी पार्टी जिसने उन्हें मुख्यमंत्री, केन्द्र में हमेशा मंत्री, संगठन में महामंत्री सब कुछ दिया उस पर पूरे जोश से निम्न स्तर के हमले करने लगे।

यहां तक कह गए कि पार्टी अध्यक्ष नहीं बनाया। मतलब जो आदमी पार्टी को बुरे समय में छोड़कर चला गया हो वह आरोप लगा रहा है कि पार्टी का सर्वोच्च पद नहीं दिया। मतलब अगर अध्यक्ष होते तो पूरी पार्टी लेकर चले जाते। प्रणव मुखर्जी को कांग्रेस ने राष्ट्रपति बनाया। और उसके बाद वे संघ के मुख्यालय नागपुर चले गए। उन्हें भी शिकायत थी कि प्रधानमंत्री नहीं बनाया। क्या गारंटी थी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वे नागपुर नहीं जाते।

एक और मजेदार बात कि आजाद ने अब प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की बात नहीं कही। एंकर ने भी नहीं। मतलब यह मैसेज है कि अब वह दोनों पद तो कांग्रेस दे ही नहीं सकती है। यह सारी राजनीति, प्रचार बहुत बारीकी से हो रहा है। कांग्रेस को कितना समझ में आ रहा है पता नहीं। समझ में आ ही नहीं रहा होगा। नहीं तो वह आजाद को तब बाहर का रास्ता नहीं दिखा देती जब उन्होंने राज्यसभा में प्रधानमंत्री के साथ आंसू बहाए। तब एक्शन नहीं लिया जब जम्मू में जाकर समानांतर सम्मेलन किया। तब होश नहीं आया जब पार्टी के मुख्यालय आकर प्रेस कान्फ्रेंस में सोनिया को बेचारी कहा। मगर कांग्रेस के लोग मनाते रहे। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के साथ मीटिंग। संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल वरिष्ठतम नेता अंबिका सोनी के साथ मीटिंगे। सारे ऑफर। प्रदेश अध्यक्ष हटा दिया। नया इनकी मर्जी वाला बना दिया। मगर मानना किस को था? बात तो वहां हो गई थी। लेकिन यह तो कांग्रेस है सोते-सोते ही चलेगी।

अभी सचिन पायलट ने बगावत का ऐलान कर दिया। अपनी ही सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठ रहे हैं। इसी साल चुनाव हैं। भाजपा की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। मगर कांग्रेस ने काम्पटिशन में उससे भी ज्यादा खराब हालत कर ली। भाजपा की गुटबाजी तो पुरानी है। 25 - 30 साल पहले उसी दिन से जब महारानी ने वहां एन्ट्री की थी। भैरोंसिंह शेखावत भी उन्हें नहीं संभाल पाए। मगर कांग्रेस की तो यह समस्या अभी चार साढ़े चार साल से है। 2018 के चुनाव नतीजों के बाद से ही जैसे पायलट और गहलोत लड़े वैसे सास-बहू जैसे झगड़े इससे पहले किसी राज्य में नहीं देखे गए थे। अब कमजोर भाजपा से कमजोर कांग्रेस की लड़ाई राजस्थान में होगी। लेकिन इस संभावना को बिल्कुल नहीं भूलें कि दोनों जगह अगर बागी नेता हिम्मत कर लेते हैं और हाथ मिलाकर तीसरा मोर्चा बना लेते हैं तो राजस्थान की लड़ाई दिलचस्प हो जाएगी।

खैर राजस्थान की बात बाद में फिलहाल कश्मीर की बात थी तो वहां प्रधानमंत्री मोदी को चुनाव जीतने के लिए जो कुछ राजनीति करना है करें। मगर यह याद रखें कि वहां का असर बाहर भी जाता है। देश के हर प्रधानमंत्री ने गैर कांग्रेसी वाजपेयी, मोरारजी भाई, देवगौड़ा और गुजराल सब ने। हर एक ने कहा कि चुनाव में कोई हारे या जीते देश जीतना चाहिए।

आज पंजाब की स्थिति फिर से खराब हो गई है। आसाम और दक्षिण से लेकर उत्तर-पूर्व के अरुणाचल तक से अच्छे संकेत नहीं मिल रहे हैं। चीन कोई काल्पनिक नहीं वास्तविक समस्या है। इसलिए कश्मीर से यह संदेश जाना बहुत जरूरी है कि वहां एक वास्तव में लोकप्रिय सरकार लोगों ने चुनी है। और केन्द्र के सहयोग से वह वहां लोगों की खुशहाली और अमन की वापसी के लिए पूरी ताकत से काम कर रही है।

वह सरकार किसी को हो। भाजपा अपनी पहली बना ले या विपक्ष एनसी कांग्रेस या पीडीपी मिलकर बना लें या अपनी विधानसभा और दो-चार सीटें आजाद जीत जाएं तो मोदी जी भाजपा के समर्थन से उन्हें बना दें। किसी को भी। मगर बस चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए। दुनिया की नजरें उस पर होगीं।

अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की भीड़ होती है। इसीलिए 2002 में वाजपेयी ने और 2008 में मनमोहन सिंह ने चुनाव कराते हुए कहा था कि यह राजनीतिक दलों के हार-जीत का चुनाव नहीं है। लोकतंत्र की मजबूती और देश का कश्मीर के साथ और कश्मीर का देश के साथ यकजहती ( एकजुटता) का चुनाव है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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