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युद्ध के साए में ईद

दुनिया के कई देशों में ईद या तो बुधवार को मना ली गई है या गुरुवार को मनाने की तैयारी चल रही है

युद्ध के साए में ईद
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- सर्वमित्रा सुरजन

पिछले छह महीनों से गज़ा पर इजरायल हमले किए जा रहा है। इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हमास को खत्म करने के लिए जंग कर रहे हैं, लेकिन असल में इज़रायल ने इंसानियत को ही खत्म कर दिया है, हमास तो अब केवल बहाना दिख रहा है। छह महीनों में 12-13 हजार बच्चों की जिंदगी खत्म हो गई है। और जो बच गए हैं, उनके सामने जिंदगी की कोई उम्मीद ही नहीं बची है, ऐसे में उनके लिए ईद क्या और नया साल क्या।

दुनिया के कई देशों में ईद या तो बुधवार को मना ली गई है या गुरुवार को मनाने की तैयारी चल रही है। लेकिन युद्ध में बर्बाद हो चुके गज़ा में ईद के मौके पर भी मातम पसरा हुआ है। यहां के बच्चे ईद पर तोहफों या पकवानों की उम्मीद नहीं कर रहे, केवल बमों के धमाकों, बारुद के धुएं और खून-खराबे से मुक्ति का इंतजार कर रहे हैं। एक तस्वीर सोशल मीडिया पर देखने मिली, जिसमें एक उजड़े हुए बगीचे में कई झूले खाली लटके हुए हैं और उन झूलों की परछाई जमीन पर पड़ रही है, उसमें बच्चों के अक्स उभरे हुए हैं। यह तस्वीर किसी भी संवेदनशील इंसान के मन को झकझोर कर रख देगी। बेशक, इस तस्वीर में बच्चों के अक्स को कृत्रिमता से उभारा गया है, ताकि खाली झूलों का प्रभाव दिखाया जा सके। लेकिन गज़ा में अब उजड़े हुए बगीचे, वीरान विद्यालय, टूटे-फूटे मकान, खंडहर हो चुके अस्पताल, सुनसान बाजार ही वहां की असली तस्वीरें हैं। इस सच्चाई से तो कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।

पिछले छह महीनों से गज़ा पर इजरायल हमले किए जा रहा है। इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हमास को खत्म करने के लिए जंग कर रहे हैं, लेकिन असल में इज़रायल ने इंसानियत को ही खत्म कर दिया है, हमास तो अब केवल बहाना दिख रहा है। छह महीनों में 12-13 हजार बच्चों की जिंदगी खत्म हो गई है। और जो बच गए हैं, उनके सामने जिंदगी की कोई उम्मीद ही नहीं बची है, ऐसे में उनके लिए ईद क्या और नया साल क्या।

संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था 'यूनिसेफ़' का कहना है कि ग़ज़ा की कुल विस्थापित आबादी का एक प्रतिशत ऐसे बच्चे हैं जो या तो अनाथ हो गए हैं या फिर उनकी देखभाल के लिए कोई वयस्क नहीं है। ऐसा कोई राहत शिविर नहीं है जहां किसी बच्चे के मां-बाप दोनों नहीं रहे या फिर दोनों में से कोई एक ही बचा है। फ़िलस्तीन के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स की रिपोर्ट के अनुसार, ग़ज़ा में ऐसे बच्चों की संख्या 43 हज़ार से अधिक है जो अपने मां-बाप या फिर दोनों में से किसी एक अभिभावक को खो चुके हैं। वहीं यूनिसेफ़ का अनुमान है कि ग़ज़ा पट्टी में कम से कम 17 हज़ार ऐसे बच्चे हैं जिनके साथ उनका कोई अभिभावक नहीं है या फिर इस जंग के दौरान वे अपने मां-बाप से अलग हो गए हैं।

बच्चों को दुनिया का भविष्य कहा जाता है। संरा ने बाल अधिकारों के घोषणा पत्र में लिखा है कि बच्चे को, उसके व्यक्तित्व के पूर्ण और सामंजस्यपूर्ण विकास के लिए, पारिवारिक माहौल में, खुशी, प्यार और समझ के माहौल में बड़ा होना चाहिए। इसके अलावा यह भी लिखा है कि बच्चे को समाज में व्यक्तिगत जीवन जीने के लिए पूरी तरह से तैयार किया जाना चाहिए, और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में घोषित आदर्शों की भावना और विशेष रूप से शांति, गरिमा, सहिष्णुता, स्वतंत्रता, समानता की भावना में बड़ा होना चाहिए।

इस घोषणापत्र की कसौटी पर परखें तो वैश्विक समुदाय फिलिस्तीन के बच्चों का गुनहगार कहलाएगा। क्योंकि गज़ा पट्टी के बच्चे एक सनकी और स्वार्थी प्रधानमंत्री की युद्धपिपासा का शिकार हो रहा है और दुनिया के लोग देख रहे हैं कि उन बच्चों को खुशी, प्यार, शांति, गरिमा, सहिष्णुता, समानता या स्वतंत्रता जैसा कोई भी माहौल नहीं मिल रहा है, बल्कि उन्हें हर दिन जिंदा रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। अगर वे बम या गोली से बच जाएं और एक दिन और जिंदा रह जाएं तो उन्हें अपने परिजनों की मौत का साक्षी बनना पड़ रहा है, अगर इससे भी बच जाएं तो अपने आस-पास लाशों के ढेर देखना पड़ रहा है और अगर इससे भी बच भी जाएं तो उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। शिक्षा और इलाज या खेलकूद और मनोरंजन तो अब गज़ा के बच्चों के लिए विलासिता जैसा बन गया है। इसमें ईद का आना उनके जख्मों को कुरेदने के समान है, जहां उन्हें फिर से अपनों को खोने का गम याद आएगा, पिछले साल की बातें याद आएंगी, जब उन्होंने अपने परिवारजनों के साथ हंसी-खुशी के माहौल में ईद मनाई होगी।

गज़ा पट्टी के राहत शिविरों में रहने वाले हर बच्चे और हर परिवार की ऐसी ही दर्दनाक कहानी है, जहां जिंदा बचे लोग अपने मृत परिजनों को याद करते हुए ईद का दिन गुजारेंगे। बीबीसी की एक रिपोर्ट में एक 14 साल के बच्चे महमूद का जिक्र है, जिसमें बताया गया है कि महमूद का परिवार एक अस्पताल में था, जब उस पर इज़रायली सेना ने मिसाइल दागी, महमूद उस समय पानी लेने बाहर गया था और लौटा तो उसके मां-बाप समेत परिवार के सारे लोग मारे जा चुके थे। इसी तरह एक बच्ची है लयान, जिसके साथ उसकी 18 महीने की बहन है और उनके मां-बाप भी युद्ध का शिकार बन गए हैं। अपने परिजनों के साथ रह रही लयान कहती है कि इस बार ईद पर कोई हमारे घर नहीं आएगा।

बेंजामिन नेतन्याहू को हमास की क्रूरता तो नजर आई है, लेकिन क्या नेतन्याहू को कभी इन अनाथ बच्चों के दर्द में अपनी क्रूरता दिखेगी या नहीं, ये बड़ा सवाल है। गांधीजी ने अगर कहा था कि आंख के बदले आंख का कानून पूरी दुनिया को अंधा बना देगा, तो उसके गहरे मायने थे और वैश्विक नेताओं के लिए बड़ी नसीहत भी थी। यह दुख की बात है कि दुनिया गांधी का नाम तो लेती है, लेकिन उनकी बातों पर गौर नहीं करती। फिलिस्तीन के बच्चों का हमास से कोई लेना-देना नहीं है। वो न आतंकवाद की राजनीति को समझते हैं, न आतंक के कारोबार और मुनाफे को। उन्हें अपने मां-बाप का प्यार, परिजनों का दुलार, किताबों, खिलौनों, बगीचों, खेल के मैदानों की ही समझ है। लेकिन इजरायल ने उनके इस हक को छीन लिया है।

हालांकि युद्ध के अंधेरे में कुछ लोग हैं जो बच्चों के जीवन में किसी तरह थोड़ी बहुत मुस्कुराहट लाने की कोशिश में लगे हैं। अहमद मुस्तफा और उनके दोस्त 2011 से फिलीस्तीन में सर्कस चलाते रहे हैं और युद्ध के बाद अब वो राहत शिविरों में जाकर अपने सर्कस के करतब दिखाते हैं, उनके सर्कस का जोकर तहस-नहस इमारतों के सामने भी अपनी हरकतों से बच्चों को हंसाने की कोशिश में लगा है। अहमद मुस्तफा को लगता है कि ईद के दौरान लावारिस और अनाथ बच्चों को हंसा कर वो थोड़ी बहुत खुशी उनके जीवन में ला सकते हैं। मुस्तफ़ा कहते हैं, 'हम जब भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं तो काफ़ी ख़ौफ़ में रहते हैं। हम कई बार बाल-बाल बचे हैं और घायल भी हुए हैं। लेकिन हमारा एक ही मक़सद है युद्ध की त्रासदी को भुलाने में बच्चों की मदद करना।'

मुस्तफा के अलावा राहत कैंपों में रहने वाले कई वयस्क भी इस समय कहीं ईद के थोड़े बहुत पकवान बनाकर बच्चों के जीवन में कुछ पलों की खुशियां भरने की कोशिश में हैं। हालांकि युद्ध के कारण जरूरी खाद्य सामग्री भी कई गुना दामों पर मिल रही है।

कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी फिलीस्तीन में राहत पहुंचाने के लिए लगातार सक्रिय हैं। बच्चों के साथ-साथ फिलीस्तीन के आम लोग भी इस युद्ध में पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। ग़ज़ा पट्टी में क़रीब एक लाख 70 हज़ार विस्थापित लोग रहते हैं और ये सभी खाने-पीने के लिए अंतरराष्ट्रीय मदद के मोहताज हैं। ऐसी ही एक संस्था है वर्ल्ड सेंट्रल किचन'। इस संस्था के लोग खाद्य सामग्री लेकर बड़ी मुश्किल से फिलीस्तीन के लोगों तक पहुंच रहे थे, लेकिन पिछले हफ्ते इनके सात कर्मचारी इजरायली हमले में मारे गए। जिसके बाद इस संस्था ने अपना काम रोक दिया है और कहा है कि वो जल्द ही ग़ज़ा में अपने कामकाज के भविष्य के बारे में फ़ैसला करेगी।

वर्ल्ड सेंट्रल किचन के कर्मियों ने बाकायदा जैकेट पहन रखी थी, जिससे उन्हें पहचाना जा सकता था, लेकिन फिर भी इजरायली सेना ने उन्हें अपना निशाना बनाया। बेंजामिन नेतन्याहू ने इस हमले और सात लोगों की मौत पर खेद तो प्रकट किया, लेकिन अपने बयान में कहा कि - 'ऐसा युद्ध के दौरान होता है। हम सरकारों के संपर्क में है। ऐसा दोबारा न हो ये सुनिश्चित करने के लिए हम हर संभव क़दम उठाएंगे।'

इस बयान का खोखलापन समझने के लिए कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। युद्ध के दौरान ऐसा होता है, यह कहना ही बताता है कि नेतन्याहू को युद्ध में राहत पहुंचाने वालों को निशाना बनाने का कोई अफसोस नहीं है। अगर नेतन्याहू वाकई चाहते हैं कि दोबारा ऐसा न हो, तो इजरायली सेना को फौरन युद्ध रोक देना चाहिए। लेकिन इज़रायल ने युद्ध विराम के कोई संकेत नहीं दिए हैं। और क्रिसमस, नए साल के बाद अब ईद भी बम के धमाकों के बीच गुजर जाएगी।


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