खेसारी दाल उत्पादन बढ़ाने का प्रयास तेज
देश में दलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने और लोगों की प्रोटीन की जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से बेहद स्वादिष्ट मानी जाने वाली खेसारी दाल की पैदावार को बढ़ावा देने का प्रयास तेज कर दिया गया है।

नयी दिल्ली। देश में दलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने और लोगों की प्रोटीन की जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से बेहद स्वादिष्ट मानी जाने वाली खेसारी दाल की पैदावार को बढ़ावा देने का प्रयास तेज कर दिया गया है।
बिहार से इसकी खेती को बढ़ावा देने का शुरुआती प्रयोग सफल हुआ है और अब इसका विस्तार किए जाने की तैयारी की जा रही है। एक समय देश में बड़े पैमाने पर खेसारी की खेती की जाती थी लेकिन इसमें लकवा को बढ़ावा देने वाले तत्व ओडीएपी ( ऑक्सालिल डायमिनो प्रोपियनिक एसिड ) के अधिक मात्रा में पाए जाने के बाद इसकी खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ।
बाद में वैज्ञानिकों ने खेसारी की दो किस्मों रतन और प्रतीक का विकास किया जिसमें ओडीएपी की मात्रा 0.1 प्रतिशत से भी कम है जिससे इसे स्वास्थ्य की दृष्टि से बिल्कुल उपयुक्त माना गया है ।
केंद्रीय जैव प्रोद्योगिकी विभाग ने खेसारी की खेती को बढ़ावा देने तथा फिर से इसे लोकप्रिय बनाने के लिए बिहार कृषि विश्वविद्यालय को बायो टेक किसान हब परियोजना दी है जिसके तहत कई अभिनव प्रयोग किए जा रहे हैं ।
विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एवं इस परियोजना के प्रमुख चंदन कुमार पांडा , निदेशक शिक्षा विस्तार आर के सोहाने तथा अटारी पटना के प्रमुख अंजनी कुमार ने बताया कि खेसारी की दो नई किस्मों में 31 प्रतिशत प्रोटीन, 41 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 17 प्रतिशत रेशा है ।इसकी खेती वर्षा आधारित है और प्रति हेक्टेयर 12..13 क्विंटल इसकी पैदावार हो जाती है। किसानों को इसकी खेती से प्रति एकड़ 25 हजार रुपये का लाभ होता है । खेसारी का साग गांवों में बेहद लोकप्रिय रहा था । इसके पौधे के अगले कोमल हिस्से को तोड़ने के बाद बहुत तेजी से पौधे का विकास होता है ।
पिछले रबी मौसम के दौरान बिहार के पटना , लखीसराय और गया जिले में 214 एकड़ में खेसारी की खेती की गई थी । इस बार इन जिलों के अलावा अन्य जिलों में भी खेसारी की खेती को बढ़ावा देने की योजना है ।
दशकों पहले जब खेसारी की खेती पर प्रतिबंध नहीं था तो महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश , पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में इसकी खेती की जाती थी । गांवो में खेसारी को गरीबों का दाल कहा जाता था क्योंकि इसका मूल्य अन्य दालों की तुलना में कम होता था ।


