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श्रमिकों को अधिक वेतन देने की जरूरत

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (चीफ इकॉनामिक एडवाईजर-सीईए) अनंत नागेश्वरन ने उद्योगपतियों के एक कार्यक्रम में बात करते हुए उन्हें सतर्क किया कि भारतीय उद्योग रिकॉर्ड लाभ वृद्धि का आनंद ले रहा है

श्रमिकों को अधिक वेतन देने की जरूरत
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- डॉ.अजीत रानाडे

कुछ बिंदुओं पर उचित मुआवजे का मुद्दा न केवल क्रय शक्ति और उपभोक्ता खर्च वृद्धि को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि समानता और न्याय का भी एक पहलू है। समस्या का मध्यावधि समाधान नौकरी के दौरान प्रशिक्षण के माध्यम से कौशल बढ़ाना व नियोक्ताओं को प्रोत्साहन प्रदान करने, बड़े पैमाने पर इंटर्नशिप, छात्र ऋण तथा श्रम कानूनों के भारी बोझ को कम करना हो सकता है।

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (चीफ इकॉनामिक एडवाईजर-सीईए) अनंत नागेश्वरन ने उद्योगपतियों के एक कार्यक्रम में बात करते हुए उन्हें सतर्क किया कि भारतीय उद्योग रिकॉर्ड लाभ वृद्धि का आनंद ले रहा है जबकि कर्मचारियों की वेतन वृद्धि बहुत कम थी। कोविड के बाद देखा गया कि स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों के कर-पश्चात लाभ का हिस्सा जीडीपी के 5.2 प्रतिशत तक बढ़ गया है जो इसके पहले 2007-08 के उछाल के दौरान देखा गया आंकड़ा है। यह पिछले पंद्रह वर्षों में सबसे अधिक अनुपात है। निफ्टी 500 कंपनियों (यानी एक छोटा सबसेट) के लिए यह अनुपात 4.8 प्रश है। यह अनुपात पिछले तीन वर्षों में काफी तेजी से बढ़ा है लेकिन इसके साथ ही कर्मचारियों को मिलने वाले वेतन का हिस्सा कम हो रहा है। कॉर्पोरेट या औपचारिक क्षेत्र में रोजगार वृद्धि की दर खराब रही है और मुनाफे में वृद्धि की तुलना में नियोजित श्रेणी के भीतर वेतन या वेतन वृद्धि कुछ भी नहीं है। मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 से 2024 की अवधि में निफ्टी-500 कंपनियों के लाभ में वृद्धि प्रति वर्ष 34.5 प्रति सैकड़ा थी जबकि जीडीपी केवल 10.1 फीसदी की दर से बढ़ रही थी।

पिछले चार वर्षों के दौरान मुनाफा बढ़ने की दर जीडीपी में 3.5 गुना से अधिक रही है। वेतन में वृद्धि तुलनात्मक रूप से मुद्रास्फीति दर के अनुरूप भी नहीं थी। अर्थशास्त्री अमित बसोले और ज़िको दासगुप्ता की रिपोर्ट है कि 2021-22 की तीसरी तिमाही से 2023-24 की दूसरी तिमाही तक औसत वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत थी जबकि नियमित मजदूरी स्थिर (शून्य से 0.07 प्रश की वृद्धि) रही। उनके नतीजे सरकार द्वारा हर तीन महीने में प्रकाशित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पिरीऑडिक लेबर फोर्स सर्वे-पीएलएफएस) के आंकड़ों पर आधारित हैं। पीएलएफएस डेटा जल्द ही मासिक आधार पर उपलब्ध होगा।

जीडीपी और मजदूरी की वृद्धि दर में अंतर महामारी से पहले भी स्पष्ट था। उदाहरण के लिए 2017-18 से कोविड के ठीक पहले तक 11 तिमाहियों में जीडीपी 4.8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी लेकिन नियमित मजदूरी वृद्धि दर केवल 0.21 प्रति सैकड़ा थी। बसोले और दासगुप्ता बताते हैं कि 2017 से 2024 तक स्व-नियोजित व्यक्तियों की कमाई के साथ नियमित वेतन वृद्धि सिर्फ 1 प्रश है। सिटी बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि 2024 की पहली तीन तिमाहियों के लिए सूचीबद्ध भारतीय कंपनियों के लिए मुद्रास्फीति समायोजित मजदूरी लागत में वृद्धि 2 फीसदी से कम रही है जबकि दस साल का औसत 4.4 प्रति सैकड़ा है। इस तरह यह दीर्घकालिक विकास का आधा हिस्सा है।

इस प्रकार कॉर्पोरेट भारत का नेतृत्व करने वालों के लिए सीईए द्वारा दी गई चेतावनी लाभ हिस्सेदारी की तुलना में वेतन और वेतन आय के घटते हिस्से की दीर्घकालिक घटना पर आधारित है। सीईए उद्योग के नेतृत्वकर्ता इस प्रकार अपना योगदान देने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विकास में तेजी अधिक समान रूप से साझा की जाए।

सीईए की सतर्क टिप्पणियों को इस साल की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर तक के आश्चर्यजनक जीडीपी विकास आंकड़ों के साथ पढ़ा जा सकता है। 5.4 प्रतिशत की यह दर उम्मीदों से काफी कम थी। सरकार की तरफ से धीमी पूंजीगत व्यय वृद्धि के लिए चुनावों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है परन्तु निश्चित रूप से इस वृद्धि में बड़ा योगदान उपभोक्ता का ही है जो खर्च को कम कर रहा है, खासकर शहरी क्षेत्रों में। नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर और अन्य प्रमुख फॉस्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स कंपनियों (एफएमसीजी) ने जुलाई से सितंबर तिमाही के दौरान स्थिर या बिक्री में कमी दर्ज की है। बेशक, शहरी उपभोक्ता अन्य कम महंगे ब्रांडों की ओर रुख कर सकते हैं या कम खरीदी कर सकते हैं और विवेकाधीन खर्च भी कर सकते हैं। फिर, एफएमसीजी कंपनियों के भविष्य के लिए शहरी खर्च में गिरावट एक बड़ा संकेतक है। स्पष्ट है कि शहरी उपभोक्ता प्रतिकूल वृहद कारकों का सामना कर रहे हैं, मुद्रास्फीति क्रय शक्ति को खा रही है और वेतन ठहराव आय वृद्धि को सीमित रख रहा है।

इसका निहितार्थ यह है कि सकल जीडीपी वृद्धि, जिसके अगले साल तक 6.5 प्रतिशत से ऊपर पहुंचने की उम्मीद है और कंपनी के मुनाफे की निरंतर मजबूत वृद्धि किसी भी तरह अधिक समावेशी होनी चाहिए। पाठ्य पुस्तकों में हम बढ़ती राष्ट्रीय आय में श्रम और पूंजी के हिस्से को देखते हैं। यदि दोनों शेयर राष्ट्रीय आय वृद्धि के साथ ताल-मेल रखते हैं तो यह अच्छा है पर श्रम आय में गिरावट अंतत: उपभोक्ता खर्च और आय असमानता के प्रतिकूल परिणाम है। यह तर्क दिया जा सकता है कि वही श्रमिक म्यूचुअल फंड और उनकी बचत के माध्यम से कंपनी के शेयरों के मालिक भी हो सकते हैं लेकिन फिर लाभांश आय अभी भी अधिकांश श्रमिकों के लिए घरेलू आय का एक छोटा हिस्सा है। इसलिए मजदूरी व वेतन आय उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है।

ऐसा कोई अलोकप्रिय एवं कड़ा आदेश नहीं दिया जा सकता कि भारतीय उद्योग जगत को अपने कामगारों के वेतन का हिस्सा बढ़ाना चाहिए। इसके अलावा यह रोजगार के बदलते पैटर्न के बड़े मुद्दे से संबंधित है। ठेका श्रमिकों और रोजंदारी श्रमिकों में (जिन्हें कर्मचारी भी नहीं माना जा सकता) वृद्धि हुई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते उपयोग का मतलब है कि कई कंपनियां और व्यवसाय शायद आकार कम कर रहे हैं तथा अधिक ऑटोमेशन की मदद ले रहे हैं। वहीं भारतीय कॉर्पोरेट कंपनियां अक्सर कुशल एवं अर्ध-कुशल श्रमिकों की भारी कमी के बारे में शिकायत करती हैं। बड़े किसानकृषि श्रमिकों की भर्ती करने में असमर्थ हैं जो आम तौर पर गरीब राज्यों के प्रवासी श्रमिक हैं। इसका कारण मुफ्त खाद्यान्न और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी कल्याणकारी योजनाएं है जिसका श्रम आपूर्ति पर विकृत प्रभाव पड़ता है। इसके लिए रिवर्स माइग्रेशन और औद्योगिक डाउनसाइज़िंग को धन्यवाद दिया जा सकता है जिसके कारण वास्तव में महामारी के दौरान कृषि में लगे कार्यबल का हिस्सा बढ़ गया है।

उद्योगों में श्रमिकों का हिस्सा बहुत लंबे समय तक स्थिर रहा है और इसलिए मजदूरी भी स्थिर रही है। वर्क इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 57 प्रतिशत से अधिक ब्लू-कॉलर नौकरियां 20,000 रुपये प्रति माह से कम वेतन देती हैं। कम औसत उत्पादकता के कारण शायद यह उचित है। इस प्रकार हम कम उत्पादकता, कम कौशल, कम वेतन और कम रोजगार के चक्र में फंस गए हैं। यह औद्योगिक व सेवाओं के विकास में अधिक पूंजी निवेश को बढ़ाता है जो बदले में कौशल की कमी बढ़ाता है जिसके कारण उच्च बेरोजगारी तथा कुशल जनशक्ति की कमी का अजीब सह-अस्तित्व है।

कुछ बिंदुओं पर उचित मुआवजे का मुद्दा न केवल क्रय शक्ति और उपभोक्ता खर्च वृद्धि को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि समानता और न्याय का भी एक पहलू है। समस्या का मध्यावधि समाधान नौकरी के दौरान प्रशिक्षण के माध्यम से कौशल बढ़ाना व नियोक्ताओं को प्रोत्साहन प्रदान करने, बड़े पैमाने पर इंटर्नशिप, छात्र ऋण तथा श्रम कानूनों के भारी बोझ को कम करना हो सकता है जिन्होंने रोजगार में वृद्धि को रोक दिया है। सीईए की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने श्रम के उचित मुआवजे का मुद्दा सामने लाया है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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