Top
Begin typing your search above and press return to search.

क्या अब लक्ष्मीजी बेड़ा पार करेंगी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश में चाहे जो दावे करती हों पर पिछले दिनों जब वे विश्व बैंक-आईएमएफ की वार्षिक बैठक में गईं

क्या अब लक्ष्मीजी बेड़ा पार करेंगी
X

- अरविन्द मोहन

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश में चाहे जो दावे करती हों पर पिछले दिनों जब वे विश्व बैंक-आईएमएफ की वार्षिक बैठक में गईं तो वहां उन्होंने यूरोप-अमेरिका में बढ़ते संरक्षणवाद की शिकायत करने के साथ उन्होंने अर्थव्यवस्था के बदतर होने की शिकायत की और सुधार की उम्मीद का दौर लंबा खींचने की भविष्यवाणी भी कर दी।

दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियां रह-रह कर याद आती है-
'न हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए'।

जी हां, जिस तरह अर्थव्यवस्था की कमजोरियां रह-रहकर सामने आ जाती है और फिर दुनिया में सबसे तेज विकास और पांंंंच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने के दावे होते हैं (और सामान्य ढंग से उस पर विश्वास भी किया जाता है) वह बताता है कि सरकार के दावों और आंकड़ों को जांचने-परखने और अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर उन पर शक करने का काम आम लोगों ने ही नहीं मीडिया ने भी छोड़ दिया है। सभी श्रद्धा-भाव से नत है- कमीज न हो तो पांव से पेट ढककर भी संतुष्ट हैं। कई धनात्मक और ऋणात्मक सूचनाओं के बीच जब यह खबर आई कि कारों की बिक्री थमने लगी है और कंपनियां अपने उत्पाद पर भारी डिस्काउंट देकर अपना स्टाक हल्का करना चाहती हैं तब भी किसी का ध्यान खास नहीं गया। डिस्काउंट दस-दस लाख का है- जाहिर है कारें भी सत्तर -अस्सी लाख की होंगी। फिर जब शेयर बाजार भरभराकर गिरा तब भी कभी हिंडनबर्ग को विलेन बनाने की कोशिश की गई, कभी अमेरिकी बैंकिंग नीति को। निर्यात में कमी की रिपोर्ट आती है तो यूरोप में मांग घटने और अमेरिका में व्यापार संबंधी बाड ऊंची करने को दोष दिया जाता है। करखनिया उत्पादन घटाने को भी खास परेशानी का कारण नहीं माना जाता।

ऐसा नहीं है कि हर अर्थव्यवस्था हर समय एक ही दिशा में बढ़ती जाती है लेकिन जब तक उसके इन्डिकेटर सही काम कर रहे हों तब उनके आधार पर नीतिगत और प्रशासनिक बदलाव करके चीजों को सुधारने की कोशिश की जाती है। अपने यहां की मुश्किल कई गुना ज्यादा है क्योंकि बीते कुछ समय से आंकड़ों को बताने और छुपाने या सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी होने के पहले सारे आंकड़ों को सरकार की नजर से गुजारने की नीति ने काफी कुछ परदे में कर दिया है। यहां जनगणना से लेकर उपभोक्ता और रोजगार संबंधी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट न आने जैसे मामले न भी गिनें तो काफी कुछ ऐसा है जो जानने की उत्सुकता रहती है या जो सही विश्लेषण में मुश्किल पैदा करता है। जैसे पिछले काफी समय से यह अंदाजा लगने लगा था कि उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कमी आई है। हमारे घरेलू बचत में गिरावट और कर्ज में दोगुनी वृद्धि का व्यावहारिक मतलब यही है कि सामान्य आदमी अपने उपभोग में कमी करके इस स्थिति से निपटना चाहता है। प्याज/टमाटर की महंगाई के समय वित्त मंत्री भी इनकी कम खपत का सुझाव देती ही हैं। अगर इसके ऊपर सब्जियों और अनाज की महंगाई को जोड़ दें तो साफ लगेगा कि सिर्फ उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में ही नहीं पेट काटने का दौर भी शुरू हों चुका है।

वित्त मंत्रालय द्वारा जारी नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती का प्रवेश हों चुका है। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में तो उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बनी हुई है लेकिन शहरी मांग घटती जा रही है और इसका उत्पादन पर असर दिखाई देता है। कार बाजार उसका एक उदाहरण है। पिछली तिमाही में विकास दर भी गिरी है। पिछले साल जीडीपी का विकास 7.8 फीसदी की दर से हुआ जबकि इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह 6.7 फीसदी रह गया और दूसरी तिमाही में 6.5 फीसदी पर आ गया है। अब लगता है कि रिजर्व बैंक द्वारा सात फीसदी के विकास का अनुमान पूरा होना मुश्किल होगा। इसकी दो बड़ी वजहें हैं। घरेलू मांग कम होने के साथ अलग-अलग कारणों से यूरोप और अमेरिका में हमारे सामान की मांग घाटी है। दूसरी ओर चीन द्वारा अपने यहां निवेश को बढ़ावा देने की नीतियां लागू होने के बाद से हमारे पूंजी बाजार से हजारों करोड़ रुपए की विदेशी पूंजी बाहर गई है। यह क्रम अभी जारी है और शेयर बाजार में उठा-पटक के लिए यही मुख्य कारण है। चीन अपने यहां नया उत्पादन यूनिट लगाने पर कई तरह के आकर्षक कदम उठा रहा है और वहां बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश हो रहा है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा तेजी चीनी शेयर बाजार में दिख रही है।

पूंजी भागने का सीधा प्रभाव हमको अपने यहां सोने की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि, रुपए के मूल्य में कमी और बाजार की गिरावट में दिखाई देती है। अगर मांग न होगी तो करखनिया उत्पादन भी गिरेगा और नई उत्पादक इकाइयों का लगाना मुश्किल होता जाएगा। जो कारखाने चल रहे हैं उनके वार्षिक कारोबार और मुनाफे की रिपोर्ट भी इसी गिरावट का संकेत देती है। जिन 194 लिस्टेड कंपनियों ने अपने कारोबार और मुनाफे की रिपोर्ट सितंबर तक दी है उनके मुनाफे में छह फीसदी की कमी आई है। पिछले वित्त वर्ष में यह गिरावट और ज्यादा थी। इसका कारण मांग की कमी के साथ अदानों का महंगा होना और अन्य खर्चे बढ़ना है। महंगाई की दर से काफी कम दर पर(एक फीसदी से भी कम) मजदूरों की मजदूरी बढ़ी है। जाहिर है इसका मांग पर असर होगा ही।

हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश में चाहे जो दावे करती हों पर पिछले दिनों जब वे विश्व बैंक-आईएमएफ की वार्षिक बैठक में गईं तो वहां उन्होंने यूरोप-अमेरिका में बढ़ते संरक्षणवाद की शिकायत करने के साथ उन्होंने अर्थव्यवस्था के बदतर होने की शिकायत की और सुधार की उम्मीद का दौर लंबा खींचने की भविष्यवाणी भी कर दी। रिजर्व बैंक भी मान्यता है कि खाद्य पदार्थों की महंगाई चिंताजनक है और इसी चलते वह हाल फिलहाल इन्टरेस्ट रेट में कटौती नहीं कर सकता। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले उसके समेत सभी जानकार मानते हैं कि हमारे लिए तत्काल दो चीजें उद्धारक बन सकती हैं। चीन से दोस्ती की आर्थिक वजहें हैं लेकिन पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत तत्काल राहत देने के साथ यह भी संकेत देती है कि वह आगे के संकट में आग में घी डालने नहीं जा रही है। बाजार के जानकार लोग उससे भी ज्यादा दीपावली और त्यौहार के मौसम में मांग और खरीद बढ़ाने से अर्थव्यवस्था में जान आने की आस लगाए बैठे हैं। खेती-किसानी, गांव-देहात सारी उपेक्षा के बावजूद अगर अर्थव्यवस्था को टिकाने वाला बना हुआ है तो लक्ष्मीजी की कृपा पर निर्भरता भी सारे बड़े-बड़े दावों की पोल खोलता है।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it