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बाजार में क्यों हाहाकार है

बाजार में हाहाकार है। बाजार मतलब सिर्फ शेयर और पूंजी बाजार नहीं करेंसी बाजार और सामान्य बाजार भी

बाजार में क्यों हाहाकार है
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- अरविन्द मोहन

इसका असर निश्चित रूप से हमारे शेयर बाजारों के साथ रुपए का मोल गिरने पर पड़ा है और दुनिया भर में पेट्रोलियम की कीमतों में अचानक और अकारण से उछल पड़ा है। अमेरिकी डालर का मूल्य अमेरिका में भी बढ़ा है क्योंकि उसमें निवेश में कमाई के नतीजे बेहतर होने की रिपोर्ट आई है। वहां भी लगभग एक फीसदी गिरा है और इसका असर वैश्विक है।

बाजार में हाहाकार है। बाजार मतलब सिर्फ शेयर और पूंजी बाजार नहीं करेंसी बाजार और सामान्य बाजार भी। यह बात जोर शोर से प्रचारित की जा रही है कि खुदरा मूल्य सूचकांक गिरा है और चार महीने के न्यूनतम स्तर पर आ गया है लेकिन वह अभी भी 5.2 फीसदी जैसे खतरनाक स्तर से ऊपर है और यह बात रिजर्व बैंक भी मानता है। बल्कि इसके चलते वह बैंक दरों में हेरफेर करने से बच रहा है। अभी तत्काल बड़ी चिंता शेयर बाजार में कोहराम से है। जब 13 जनवरी को बाजार का एक दिन का नुकसान 13-14 लाख करोड़ रुपए का हो गया तो दूसरे दिन सरकार और बाजार के कामकाज पर नजर रखने वाले सचेत हुए। कुछ टेक्नीकल करेक्शन का असर था और कुछ हजारों करोड़ रुपए झोंकने का, बाजार में हल्की बढ़त दिखी। झोंकना शब्द जाना-बूझ कर इस्तेमाल किया गया है क्योंकि साझा कोष हों या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां, उनके निवेश का फैसला बाजार के रुख की जगह सरकार के रुख से तय होता है और हर संकट में ऐसा निवेश बाजार बचाने वाला होता है और करेंसी बाजार को संभालने के लिए तो सचमुच बैंक में जमा धन बाजार में उतारना पड़ता है। इस बार बाजार संभल पाएगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह सिर्फ किसी एक समूह के कामकाज से जुड़ी देसी-विदेशी रिपोर्ट या सच के उजागर होने से आया तूफान नहीं है।

इस बार की गिरावट वैश्विक स्तर पर होने वाले कुछ बड़े बदलावों के चलते है और इसका असर हमारे बाजार पर सिर्फ 13 जनवरी को नहीं आया है। हमारा सेंसेक्स अस्सी हजार अंक से इतना नीचे आ गया है कि जल्दी भरोसा नहीं होता कि वह कभी इतना ऊपर गया था। चार सत्रों में ही गिरावट ढाई हजार अंकों से ज्यादा की हो चुकी है और इसमें हर तरफ लक्षण खराब दिख रहे हंै। बाजार के जानकार जिनकी बारीक चीजों पर नजर रखते हैं उनमें 'निफ्टी नेक्स्ट 50' अर्थात निफ्टी में शामिल पचास शेयरों के बाद वाले पचास शेयरों का हिसाब समझ आता है, में और ज्यादा गिरावट के लक्षण देख रहे ही। उनमें आम तौर पर बीस फीसदी से ज्यादा की गिरावट है लेकिन अदानी ग्रीन जैसे दुलारे शेयरों में साल भर में 58 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। 13 जनवरी को ही बाजार 1.5 फीसदी के आसपास गिरा तो इन पचास शेयरों में गिरावट 4.3 फीसदी थी। अर्थात बाजार में आगे के लिए भी बहुत उम्मीद नहीं दिखती और निवेशक बाजार से मुंह मोड़ रहे है। ऐसा विदेशी निवेशक लगातार कर रहे हैं और उनके पूंजी निकालने(तथा चीन की तरफ रुख करने) पर सरकार अपनी संस्थाओं और सहयोगी संस्थाओं से लिवाली करा के बाजार को स्थिर करने का प्रयास करती रही है। पिछले साल की अंतिम छमाही में यह ट्रेंड रहा है।

शेयर बाजार की बदहाली का एक बड़ा कारण तो अचानक चीन के बाजारों में बढ़ता निवेश है और इसमें चीन सरकार की नीतियों के साथ दुनिया के बाजार में चीन की अनिवार्यता को स्वीकार करना भी एक कारण है। आज चीन का विदेश व्यापार का सरप्लस एक ट्रिलियन डालर का हो चुका है और काफी सारे देशों को लगता है कि चीन के उत्पादन तंत्र में पूंजी, ब्रांड-मूल्य और तकनीक की साझेदारी से अगर वे घाटे को कम कर सकते हैं तो जरूर करना चाहिए। चीन ने भी विदेशी निवेश आकर्षित करने के इंतजाम बढ़ाए हैं। पिछले छह महीने का जो हिसाब है वह बताता है कि चीन के प्रति डोनाल्ड ट्रम्प के जहर उगलने का भी निवेशकों के मन पर कोई असर नहीं हो रहा है। आज दुनिया के पूंजी बाजार में एक अलग तरह की हलचल है (और हमारे बाजार भी उससे गहरे प्रभावित हैं) उसका ट्रम्प के आगमन और उससे भी ज्यादा सरकारी अमेरिकी गील्ड में रिटर्न की डर का पांच फीसदी से ऊपर पंंहुंचने का हाथ है। जब बैंक और सरकारी बांड वगैरह में पड़ी रकम पांच फीसदी से ज्यादा की कमाई देने लगे तब अमेरिकी ही नहीं विकसित दुनिया के काफी सारे निवेशकों को दूसरी तरफ देखने की जरूरत नहीं है। ऐसा भरोसा तब और असरदार हो जाता है जब ट्रम्प के आगमन की आशंका से बाजार में बेचैनी हो।

इसका असर निश्चित रूप से हमारे शेयर बाजारों के साथ रुपए का मोल गिरने पर पड़ा है और दुनिया भर में पेट्रोलियम की कीमतों में अचानक और अकारण से उछल पड़ा है। अमेरिकी डालर का मूल्य अमेरिका में भी बढ़ा है क्योंकि उसमें निवेश में कमाई के नतीजे बेहतर होने की रिपोर्ट आई है। वहां भी लगभग एक फीसदी गिरा है और इसका असर वैश्विक है। लेकिन हमारे बाजार और रुपए की गिरावट को हम अकेले इसी बहाने नजरअंदाज नहीं कर सकते।

डालर का 86.53 रुपया छूना बताता है कि हम असल खतरे वाले जोन में आ रहे हैं। अगर डालर की मजबूती और अमेरिकी बैंक रेट में गिरावट के लक्षण नहीं हैं तो रुपए जैसी कमजोर मुद्राओं पर लगातार दबाव रहेगा। स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक की भविष्यवाणी है कि साल भर में हमारा रुपया डालर के मुकाबले सवा रुपया और गिरेगा। इसका सीधा असर हमारे आयात बिल पर पड़ेगा। पिछले सितंबर से दिसंबर के तीन महीनों में रुपए को संभालने में चार लाख करोड़ से ज्यादा की लिक्वीडिटी कम हुई है अर्थात बाजार में नकदी कम हुई है।

लेकिन यह मात्र करेंसी का मामला नहीं है। 20 जनवरी को जब ट्रम्प सत्ता में आएंगे तब के बाद वे काफी ऐसी चीजें करने वाले हैं जिनका हमारी पूरी अर्थव्यवस्था पर असर आएगा। इसमें वी•ाा नियमों का बदलाव भी है लेकिन हमारे विदेश मंत्री अमेरिका यात्रा करते हैं तो ज्यादा से ज्यादा अपने लिए शपथ ग्रहण समारोह का न्यौता जुगाड़ पाते हैं या कुछ गोपनीय मिशन पूरा करते हैं।


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