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बाढ़ क्यों स्थायी समस्या बन गई है?

पहले नदियों के आसपास पड़ती जमीन होती थी,नदी-नाले होते थे, लम्बे- लम्बे चारागाह होते थे, उनमें पानी थम जाता था।

बाढ़ क्यों स्थायी समस्या बन गई है?
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— बाबा मायाराम

पहले नदियों के आसपास पड़ती जमीन होती थी,नदी-नाले होते थे, लम्बे- लम्बे चारागाह होते थे, उनमें पानी थम जाता था। नदियों के अतिरिक्त पानी की ठेल ऐसी जगह होती थी। बड़ी नदियों का ज्यादा पानी छोटे- नदी नालों में भर जाता था। लेकिन अब उस जगह पर भी या तो खेती होने लगी है या वह जगह किसी अन्य गतिविधियों के लिए काम आती है।

इन दिनों लगातार बारिश हो रही है। नदी-नाले, ताल—तलैया सभी उफान पर हैं। चारों तरफ पानी ही पानी है। नदियों में बाढ़ से नुकसान की खबरें आ रही हैं। लेकिन यह हर साल की समस्या है, बाढ़ अब मौसमी नहीं, स्थायी समस्या बन गई है, बल्कि लगातार बढ़ रही है। हर साल वही कहानी दोहराई जाती है। आज इस कॉलम में इसी पर बात करना चाहूंगा, जिससे बाढ़ की समस्या को समझा जा सके।

नदियों में पहले भी बाढ़ आती थी। बारिश पूरे चार महीने होती थी। झड़ी लगी रहती थी। लोगों का घरों से निकलना मुश्किल होता था। अब बारिश के दिन कम हो गए हैं। कुछ ही समय में बारिश ज्यादा हो जाती है। पहले जब बाढ़ आती थी, तब वह इतने व्यापक पर कहर नहीं ढाती थी। इसके लिए गांव वाले तैयार रहते थे। बल्कि इसका उन्हें इंतजार रहता था।

खेतों को बाढ़ के साथ आई नई मिट्टी लाती थी, भरपूर पानी लाती थी जिससे प्यासे खेत तर हो जाते थे। पीने के लिए पानी मिल जाता था, भूजल ऊपर आ जाता था, नदी नाले, ताल-तलैया भर जाते थे। समृद्धि आती थी। बाढ़ आती थी, मेहमान की तरह जल्दी ही चली जाती थी।

लेकिन अब वनों की और पेड़ों की कटाई हो गई है। भूक्षरण ज्यादा हो रहा है। पानी को स्पंज की तरह अपने में समोने वाले जंगल कम हो गए हैं। जंगलों के कटान के बाद झाड़ियां और चारे जलावन के लिए काट ली जाती हैं। जंगल और पेड़ बारिश के पानी को रोकते हैं। वह पानी को बहुत देर तो नहीं थाम सकते लेकिन पानी के वेग को कम करते हैं। स्पीड ब्रेकर का काम करते हैं। लेकिन पेड़ नहीं रहेंगे तो बहुत गति से पानी नदियों में आएगा और बरबादी करेगा। और यही हो रहा है।

पहले नदियों के आसपास पड़ती जमीन होती थी,नदी-नाले होते थे, लम्बे- लम्बे चारागाह होते थे, उनमें पानी थम जाता था। नदियों के अतिरिक्त पानी की ठेल ऐसी जगह होती थी। बड़ी नदियों का ज्यादा पानी छोटे- नदी नालों में भर जाता था। लेकिन अब उस जगह पर भी या तो खेती होने लगी है या वह जगह किसी अन्य गतिविधियों के लिए काम आती है।

बढ़ता शहरीकरण और कांक्रीट से कांक्रीट निर्माण भी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं। बहुमंजिला इमारतें, सड़कों राजमार्गों का जाल बन गया है। नदियों का प्राकृतिक प्रवाह अवरूद्ध हो गए हैं। जहां पानी निकलने का रास्ता नहीं रहता है, वहां दलदलीकरण की समस्या हो जाती है। इससे न केवल फसलों को नुकसान होता है बल्कि कई बीमारियां भी फैलती हैं। जो तटबंध बने हैं, वे टूट-फूट जाते हैं जिससे लोगों को बाढ़ से बाहर निकलने का समय भी नहीं मिलता। इससे जान-माल की हानि होती रहती है।

शहरों व कस्बों की नदियों के आसपास अतिक्रमण हो रहा है, उस पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं। जब से जमीनों के दाम बढ़े हैं तब से यह सिलसिला बढ़ रहा है। इसी प्रकार वेटलैंड ( जलभूमि) की जमीन पर भी कम हो गई है। इससे पर्यावरणीय और जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया है। पक्षी व जल जीवों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।

शहरों में तो यह समस्या बड़ी है। पानी निकलने का रास्ता ही नहीं है। सब जगह पक्के कांक्रीट के मकान और सड़कें हैं। जैसे कुछ बरस पहले मुंबई की बाढ़ का किस्सा सामने आया था। वहां की नदी ही गायब हो गई, और जब पानी आया तो शहर जलमग्न हो गया। ऐसी हालत ज्यादातर शहरों की हो जाती है। शहरों की नदियां या तो गटर में तब्दील हो गई हैं, या फिर गायब ही हो गई हैं। शहर अपनी सारी गंदगी इन्हीं नदियों में डाल देता है।

लेकिन बाढ़ के कारण और भी हैं। जैसे नदियों में रेत कम होना। रेत भी पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखती है। अगर रेत ही नहीं रहेगी तो पानी कहां रहेगा। इसके अलावा नदियों के किनारे तट लंबे-चौड़े होते थे, जिससे पानी फैल जाता था। उसके आसपास नालों में पानी चला जाता था, जिससे पानी का वेग कम हो जाता था। पानी को ठहरने की जगह मिल जाती थी और नदियों का प्रवाह कम होने से बाढ़ से नुकसान भी कम होता था।

कई बांध व बड़े जलाशयों में नदियों को मोड़ दिया जाता है, उससे नदी ही मर जाती हैं। नदियां बांध दी जाती हैं। निचले हिस्से में लोग समझते हैं, नदी ही नहीं तो वे उसकी जमीन पर खेती करने लगते हैं या कोई और उपयोग, तो जब बारिश ज्यादा होती है तो पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलता। इससे बाढ़ से बरबादी होती है।

इसके अलावा, कई बार बांधों से पानी छोड़ने के कारण भी बाढ़ की समस्या बढ़ जाती है। क्योंकि एकदम से पानी छोड़ने से नदियां उफान पर आ जाती हैं, और बाढ़ आ जाती है। जिन बांधों को कभी बाढ़ नियंत्रण का समाधान बताया जाता था, अब उनके कारण ही कई बार बाढ़ आ जाती है। ऐसी खबरें भी आती रहती हैं।

मौसम बदलाव भी एक कारण है। पहले सावन भादो के महीने में लम्बे समय तक झड़ी लगी रहती थी। कभी-कभी हफ्ते भर बारिश होती थी। सूर्य के दर्शन भी नहीं होते थे। लोग घरों से निकल नहीं पाते थे। घरों में ही रहकर रस्सी बनाने जैसे छोटे-मोटे काम करते थे।

इस तरह, लगातार बारिश का पानी फसलों के लिए और भूजल पुर्नभरण के लिए बहुत उपयोगी होता था। फसलें भी अच्छी होती थी और धरती का पेट भी भरता था। पर अब अब बड़ी-बड़ी बूंदों वाला पानी बरसता है, जिससे कुछ ही समय में बाढ़ आ जाती है। वर्षा के दिन भी कम हो गए हैं।

पहाड़ी नदियों में बाढ़ थोड़ी ही बारिश से आ जाती है। क्योंकि ऊपर पहाड़ यानी चट्टानें होती हैं, जिनमें पानी सरपट दौड़ता है। उसे रूकने व ठहरने का कोई स्थान नहीं मिलता। इससे कई बार जो मछुआरे समुदाय तरबूज-खरबूज की खेती करते हैं। उनकी वह फसल पानी में बह जाती है। इससे उन्हें बहुत नुकसान होता है।

मछुआरों का यह नुकसान इसलिए भी बड़ा होता है, क्योंकि यह मछुआरे समुदाय ज्यादातर भूमिहीन होते हैं, और इस फसल पर उनकी निर्भरता ज्यादा होती है। अगर बाढ़ में यह फसल बह जाती है, तो उन्हें आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

कुल मिलाकर, पानी के परंपरागत ढांचों की भी भारी उपेक्षा हुई है। ताल, तलैया, तालाब, कुएं खेतों में मेड़ बंधान आदि से भी पानी रूकता है। लेकिन इन सबकी उपेक्षा हो रही है। आज कल इन पर ध्यान न देकर भूजल के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। हमारी बरसों पुरानी परंपराओं में ही आज की बाढ़ जैसी समस्या के समाधान के सूत्र छिपे हैं। अगर ऐसे समन्वित विकल्पों पर काम किया जाए तो न केवल बाढ़ जैसी बड़ी समस्या से निजात पा सकते हैं। बल्कि पर्यावरण और जैव-विविधता और बारिश के पानी का संरक्षण कर सकेंगे। नदियों को भी बचा सकते हैं, और धरती का पुनर्भरण भी कर सकते हैं। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?


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