अमृत-काल के इस कुम्भ में आखिर हलाहल क्यों छलके?
बस, ठीक एक हफ्ते के बाद प्रयागराज का विश्वप्रसिद्ध कुम्भ प्रारम्भ हो जायेगा

- डॉ. दीपक पाचपोर
अलग-अलग लोगों के इन मेलों के शुरू होने को लेकर विभिन्न विचार हैं। जब से भी ये कुम्भ मेले प्रारम्भ हुए होंगे, लोगों ने इसका एक ही स्वरूप देखा था- वह है इसके द्वार हर किसी के लिये खुले हैं। सम्भवत: भारत का यही ऐसा मेला है जिसमें कोई किसी को बुलाता नहीं। न ही कोई किसी के आमंत्रण का इंतज़ार करता है। ऐसा हर कोई इनमें चला आता है।
बस, ठीक एक हफ्ते के बाद प्रयागराज का विश्वप्रसिद्ध कुम्भ प्रारम्भ हो जायेगा। गंगा-जमुना-सरस्वती की त्रिवेणी पर भरने वाला यह महाकुम्भ देश के अन्य तीन कुम्भ मेलों (क्षिप्रा के किनारे उज्जयिनी, गोदावरी तीरे त्रयम्बकेश्वर-नाशिक और गंगा तट पर हरिद्वार में) से कहीं अधिक प्रसिद्ध और लोगों को आकर्षित करने वाला कुम्भ होता है। हर 12 वर्षों में अलग-अलग वक्त पर लगने वाले कुम्भ के माहात्म्य का कारण भी भिन्न-भिन्न है और यह देशव्यापी जुटान विभिन्न राशियों के मिलान पर होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सभी स्थानों पर लगने वाले कुम्भ का एक सार्वभौम कारण यही है कि ये चारों वे स्थान हैं जहां समुद्र मंथन से निकले अमृत के लिये जब छीना-झपटी हुई तो उस बेशकीमती द्रव्य की चार बूंदें छलक कर इन्हीं स्थानों पर गिरी थी। अबकी फिर से बारी प्रयागराज की आई है (14 जनवरी से 26 फरवरी तक), लेकिन इसे लेकर जिस प्रकार के विचार तत्व अभी से सामने आ रहे हैं उससे साफ है कि अमृत-काल में पड़ने वाले इस कुम्भ में, वह भी नये भारत के धर्म-राज उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं के इस महा समागम में अमृत-वृष्टि कम और हलाहल जमकर छलकने जा रहा है। पौराणिक काल में इन स्थानों पर अमृत छलकता हुआ देखने वाले तो अब दुनिया में रहे नहीं, लेकिन सभी पक्ष यदि समझदारी बरतें तो सामाजिक सौहार्द्र तथा समरसता के घट में इतना अमृत तो अब भी बचा हुआ है कि उसका आचमन कर देश में परस्पर प्रेम को अजर-अमर किया जा सकता है।
अलग-अलग लोगों के इन मेलों के शुरू होने को लेकर विभिन्न विचार हैं। जब से भी ये कुम्भ मेले प्रारम्भ हुए होंगे, लोगों ने इसका एक ही स्वरूप देखा था- वह है इसके द्वार हर किसी के लिये खुले हैं। सम्भवत: भारत का यही ऐसा मेला है जिसमें कोई किसी को बुलाता नहीं। न ही कोई किसी के आमंत्रण का इंतज़ार करता है। ऐसा हर कोई इनमें चला आता है जिसे आने की इच्छा हो। हर जाति, सम्प्रदाय, मजहब के लोग इसमें आते हैं। जो किसी धर्म में यकीन नहीं करते वे भी इसमें दिख जायेंगे। इतना ही नहीं, इसकी ख्याति इस कदर विश्वव्यापी है कि बड़ी तादाद में विभिन्न देशों के लोग आते हैं। यहां कोई किसी को आने से मना नहीं करता, न ही कोई तय करता रहा है कि कौन आयेगा कौन नहीं। पहली बार रीत बदली है। पिछली नवम्बर में अखाड़ा परिषद ने ऐलान कर दिया कि गैर हिन्दू लोगों को इसमें दुकानें नहीं लगाने दी जायेंगी।
अप्रत्यक्ष तौर पर मुस्लिमों के लिये 'नो एंट्री'। देखा-देखी कुछ मुस्लिम संगठन भी उतर आये। ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के अध्यक्ष मौलाना मुफ्ती शहाबुद्दीन रिजवी ने पहले तो इसे 'असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक' कहा था, पर अब उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखे एक पत्र में कहा है कि इस मेले में बड़ी तादाद में मुसलमानों का धर्मांतरण किया जा सकता है। इसलिये सीएम को चाहिये कि अखाड़ा परिषद व नागा संन्यासियों के मंसूबों को पूरा न होने दें जिन्होंने मेला क्षेत्र में मुसलमानों की दुकानों को प्रतिबंधित करने की मांग की है। जमीयत उलमा-ए-हिंद की उत्तरप्रदेश इकाई के कानूनी सलाहकार मौलाना काब रशीदी भी इसे 'संवैधानिक अधिकारों का हनन' बताते हैं। वैसे ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना यासूब अब्बास ने उदार रुख अपनाते हुए कहा है कि 'यदि कोई मुसलमान अपने ज्ञानवर्धन के लिये इसमें जाना चाहे तो कोई आपत्ति नहीं है।' उनके अनुसार- 'इस्लाम इतना कमजोर व हल्का नहीं कि कुछ लोगों के कहीं खड़ा होने, मेला देखने अथवा किसी मजहबी इबादतगाह को देखने से वह कमजोर पड़ जायेगा।'
वैसे तो कुम्भ केवल धार्मिक मेला नहीं है, लेकिन यदि इसका आधार धार्मिक ही मान लिया जाये तो इस वाद-विवाद को मजहबी लोगों की बहस हेतु छोड़ दिया जाना चाहिये था, लेकिन अब इसे लेकर कुछ गैर मजहबी लोगों का प्रवेश हो चुका है। अब तक तो महाकुम्भ में संकीर्ण बातों अथवा किसी राजनैतिक दल या विचारधारा के प्रचार-प्रसार में किसी की रुचि नहीं होती थी; लेकिन हाल के दिनों में कवितागिरी से ज्यादा रामनामी ओढ़कर कथा बांचने में अधिक रुचि ले रहे कुमार विश्वास अभी से वहां धूनी रमा चुके हैं। वे तीन दिन (7-9 जनवरी) वहां कथा सुना रहे हैं। उन्होंने वहां ललकार लगाई कि 'मायानगरी वाले सुन लें कि अब ऐसा नहीं चलेगा कि वे पैसा व शोहरत जनता से लें लेकिन अपने बच्चे का नाम बाहर से आये किसी आक्रमणकारी के नाम पर रखें।' उनका आशय फिल्मी कलाकार सैफ अली खान व करीना कपूर के बच्चे से था जिसका नाम तैमूर है। उन्होंने यह भी कहा कि 'इस कुम्भ में वे ही आयें जो राम को मानते हैं।' यह वाकई लोगों को हैरत में डालने वाली या उन्हें नाराज़ करने की बात है क्योंकि हिन्दू धर्म की ही बात करें तो वह बहुदेववादी है। इसमें विभिन्न सम्प्रदायों व मान्यताओं वाले लोग हैं जो एक सा श्रद्धा भाव लेकर कुम्भ में आते हैं। दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि भारत में हिन्दुओं के भीतर के कई सम्प्रदायों की आस्था का केन्द्र कोई और भी भगवान हो सकते हैं, कोई भी अवतार।
कुमार विश्वास यह भी भूल जाते हैं कि भारत में कई धर्म हैं जिनके आराध्य या श्रद्धा के केन्द्र दूसरे लोग हैं, फिर वे भगवान बुद्ध हो सकते हैं या महावीर। सिख धर्म तो गुरु ग्रंथ साहिब को मानता है। ऐसे में कुमार विश्वास की बात भारतीयों को बांटने वाली होगी तथा यह कुम्भ की भावना के ठीक विपरीत है। अब तक तो देखा यही गया है कि सभी चारों कुम्भ मेलों में तमाम धर्मों व सम्प्रदायों के लोग शिरकत करते हैं। दरअसल यहां सभी के लिये कुछ न कुछ होता है। यहां तक कि फोटोग्राफर, कलाकार, करतबबाज, गायक, लेखक, पत्रकार सभी इसमें पहुंचते हैं। यहां तक कि बड़ी संख्या में विदेशों से भी लोग आते हैं जिसके कारण भारत की संस्कृति व पर्यटन का प्रचार होता है। इनमें से ज्यादातर अलग धर्मों के होते हैं। इतना ही नहीं, भारत का समाज किस प्रकार का है, इसकी भी झलक इस मेले से मिलती है। नफरत फैलाकर कुमार विश्वास कोई राजनीतिक एजेंडा चला रहे हैं।
बात यहीं तक नहीं ठहरती। राष्ट्रवादी कवि कहे जाने वाले मनोज मुंतशिर ने भी एक बयान दे दिया है। उन्होंने मुस्लिमों से पांच प्रश्न पूछे हैं और कहा है कि यदि उनके पास उनके जवाब हों तो वे मुस्लिमों के कुम्भ प्रवेश की बात करें। उनके सवाल हैं- क्या इस्लाम मूर्ति पूजा में विश्वास करता है, क्या मुसलमान समुद्र मंथन व अमृत मंथन की थ्योरी में भरोसा करते हैं, क्या संगम का इस्लामिक धर्म में महत्व है, क्या मुसलमान मानते हैं कि कि नागा साधुओं के दर्शन से जन्मों के पाप कट जाते हैं; और क्या मकर संक्रांति व मौनी अमावस्या का जिक्र इस्लाम में है? मनोज ने कह दिया है कि 'यदि ऐसा नहीं है तो कुम्भ मुसलमानों के लिये एक पिकनिक स्पॉट से अधिक कुछ नहीं है।'
उनके मुताबिक 'हिन्दुओं के लिये कुम्भ 12 वर्षों का इंतज़ार है। कई बुजुर्ग मरने के पहले इसे देखने की प्रतीक्षा करते हैं।' स्वाभाविक है कि मुसलमानों की मान्यताएं एकदम अलग हैं और वे हिन्दुओं का आस्था से मेल नहीं खातीं; वैसे ही जिस प्रकार से हिन्दूवादी श्रद्धा का मिलान इस्लाम, ईसाईयत, यहूदी, बौद्ध आदि किसी से नहीं हो सकता। मुंतशिर यह भी जान लें कि करोड़ों हिन्दुओं ने कभी भी कोई भी कुम्भ नहीं देखा है। इंतज़ार करना तो दूर, उन्हें पता तक नहीं चलता कि कुम्भ कब आया और चला गया।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


