'आहत धार्मिक भावनाओं' की बात करने का असली हकदार कौन है?
क्या किसी दूसरे धर्म के प्रार्थना स्थल में बेवक्त जाकर हंगामा करना या अपने पूजनीय/वरणीय के नारे लगाना

- सुभाष गाताडे
केन्द्र में जब से हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातों का बोलबाला बढ़ा है, सभी लोग भले ही कानूनन एक समान हों, मगर समां ऐसा बना है कि गालीगलौज, नफरती नारे यहां तक बहिष्करण का सामना कर रहे धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों के लिए अपनी 'आहत भावनाओं' की शिकायत करने में तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दूसरी तरफ, उनके हमलावरों को, उनके उत्पीड़कों को यह पूरी आज़ादी है।
क्या किसी दूसरे धर्म के प्रार्थना स्थल में बेवक्त जाकर हंगामा करना या अपने पूजनीय/वरणीय के नारे लगाना, ऐसा काम नहीं है, जिससे शांतिभंग हो सकता है, आपसी सांप्रदायिक सद्भाव पर आंच आ सकती है?
सूबा कर्नाटक की उच्च अदालत की न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की एक सदस्यीय पीठ का ताज़ा फैसला यही कहता है कि 'ऐसी घटना से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं।' जाहिर सी बात है कि एक ऐसे समय में जबकि दक्षिणपंथी ताकतें समूचे समाज में विवाद पैदा करने की फिराक में हैं, यह महसूस किया गया कि यह फैसला निश्चित तौर पर ऐसे शरारती तत्वों को मनोबल प्रदान करेगा। हाल के समय में ऐसी तमाम वारदातें सामने आई हैं जब ऐसे उग्र तत्वों ने गैरधर्मियों के प्रार्थनास्थलों में जबरन घुस कर विवाद पैदा करने की कोशिश की और कई स्थानों पर जिसकी परिणति सांप्रदायिक हिंसा या दंगों में हुई। यहां तक कि हाल में बहराइच हिंसा की घटना के लिए भी आततायी तत्वों द्वारा इसी तरह गैरधर्मियों के धार्मिक झंडा उतारने की घटना को जिम्मेदार माना जा रहा है।
पिछले साल 24 सितम्बर 2023 को कडाबा पुलिस स्टेशन से जुड़े बंतरा गांव के हैदर अली ने थाने में शिकायत दर्ज की कि उसी रात 10.50 पर कुछ अज्ञात लोग मस्जिद में घुस गए और उन्होंने 'जय श्रीराम' के नारे लगाए, उसका यह भी कहना था कि इन आततायियों ने यह धमकी दी कि वह 'बेअरी लोगों को छोड़ेंगे नहीं'। बेअरी तटीय कर्नाटक में निवास करनेवाला एक मुस्लिम समुदाय का नाम है।
अगले दिन जब पुलिस ने मस्जिद पर लगे सीसीटीवी फूटेज की जांच की तब उन्हें दिखा कि कुछ अज्ञात लोग मस्जिद के इर्दगिर्द मोटरसाइकिल पर घूम रहे हैं, जिन्होंने बाद में मस्जिद में घुस कर यह शरारत की। बाद में उन्हें पड़ोस के बिलनेली गांव के कीर्थन कुमार (उम्र 28 वर्ष) और सचिन कुमार (उम्र 26 वर्ष) के तौर पर चिन्हित किया गया और स्थानीय पुलिस स्टेशन में उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 447 (किसी परिसर में आपराधिक इरादे से घुसपैठ/, धारा 295 ए) ऐसी कार्रवाई जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं और धारा 505) सार्वजनिक शांति को भंग करने वाली कार्रवाई आदि धारा में मुकदमे दर्ज किए गए।
न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की अदालत के इस फैसले को लेकर एक बड़े तबके में दुख और सदमे की स्थिति है। संवेदनशील लोग इस बात को पूछ रहे हैं कि सीसीटीवी फूटेज में यह दिखने के बावजूद कि वह जोड़ी रात के अंधेरे में वह बिना वजह उसमें घुस गई, उन्होंने धार्मिक नारे लगाए और इतना ही नहीं, एक खास समुदाय से निपटने की बात कही, अदालत उनकी इस कार्रवाई में इरादा क्यों नहीं ढूंढ सकी? कुछ लोगों ने यह भी पूछा कि अगर कल कुछ मुसलमान किसी मंदिर में घुस कर अल्लाहू अकबर का नारा लगाते हैं, तो क्या अदालत का वही रूख होगा?
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के इन्साफ पसंद वकील और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इस फैसले की छानबीन कर रहे होंगे ताकि एक बड़ी पीठ के सामने इसे चुनौती दी जा सके। और इस फैसले ने एक तबके में जो असुरक्षा की भावना पैदा की है, वह दूर हो।
फिलवक्त जब हम इस फैसले को लेकर उच्चतम अदालत के हस्तक्षेप का या उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के निर्णय का इन्तजार कर रहे हैं -यह रेखांकित करना गैरवाजिब नहीं होगा कि विगत एक दशक से जबसे हमारे न्यू इंडिया में प्रवेश करने की बात चल रही है, तबसे जमीनी स्तर पर कुछ न कुछ बदला है।
केन्द्र में जब से हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातों का बोलबाला बढ़ा है, सभी लोग भले ही कानूनन एक समान हों, मगर समां ऐसा बना है कि गालीगलौज, नफरती नारे यहां तक बहिष्करण का सामना कर रहे धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों के लिए अपनी 'आहत भावनाओं' की शिकायत करने में तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दूसरी तरफ, उनके हमलावरों को, उनके उत्पीड़कों को यह पूरी आज़ादी है कि वह अपने पीड़ितों के खिलाफ शिकायत दर्ज करें, उन्हें मारे-पीटे। धार्मिक आयोजनों के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में ऐसे तबकों के जनसंहार के ऐलान तक होते हैं, मगर कहीं कुछ पत्ता तक नहीं हिलता।
पिछले साल की बात है, उत्तराखंड के एक दलित युवक पर मंदिर अपवित्राीकरण का केस पुलिस ने दर्ज किया। मामले की शिकायत करने वाले कथित उंची जाति के कुछ लोग थे। दरअसल यह वही लोग थे जिन्होंने चंद रोज पहले दलित युवक को मंदिर प्रवेश से रोका था और बुरी तरह पीटा था, जिसके चलते उन सभी पर अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989 के तहत केस दर्ज हुए थे। उधर दलित युवक अस्पताल में भर्ती था और इन वर्चस्वशाली लोगों ने पुलिस और अदालत में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसके खिलाफ यह झूठा केस दर्ज किया। वैसे यह एक बहुचर्चित और बार-बार आजमाया जाने वाला हथकंडा है, जो दबंग जातियां इस्तेमाल करती आई हैं।
विगत साल सूबा पंजाब के पटियाला से भी सुनाई दी, जब गुरूद्वारे में शाम के वक्त अकेली बैठी पैंतालीस साल की एक महिला को देख कर वहां दर्शन के लिए गए दूसरे शख्स ने उस पर बाकायदा गोली चला दी और उस महिला ने वहीं दम तोड़ दिया। पता चला कि हत्यारे की भावनाएं यह देख कर 'आहत' हो गई थीं, जब कथित तौर पर उसने यह देखा कि वह महिला शराब का सेवन कर रही है। गौर करने वाली बात है कि न शराब पीना अपने आप में गैरकानूनी है और अगर कोई चीज़ गैरकानूनी है तो आप उसकी शिकायत कर सकते है, और फिर अदालत उसमें फैसला दे सकती है। जाहिर है ऐसा कुछ नहीं हुआ।
गौर करने वाली बात यह थी कि धर्म के अलम्बरदारों ने भी मृतक महिला के प्रति कोई सहानुभूति नहीं प्रगट की, न यह सवाल पूछा कि आखिर किसी प्रार्थनास्थल के अंदर ऐसे हथियार कैसे आसानी से ले जा सकते हैं, उन्होंने गोया हत्या को औचित्य प्रदान करते हुए महिला के व्यवहार को सूबे में बेअदबी की घटनाओं के संगठित प्रयास का हिस्सा घोषित किया और कहा कि ऐसी घटनाओं को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। स्टैंण्ड अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को जिस तरह उस जोक के लिए जेल भेजा गया, जो उन्होंने कार्यक्रम में सुनाया तक नहीं गया, वह घटना तो आप जानते ही हैं।
वैसे 'आहत भावनाओं के हालिया उभार के इस दौर में हम चाहें तो दुनिया के इस हिस्से में 'आहत भावनाओं' के लंबे इतिहास पर और उसकी गहरी सामाजिक जड़ों पर भी निगाह डाल सकते हैं।
सुश्री नीति नायर की एक किताब आई है जिसका शीर्षक है ‘Hurt Sentiments & Secularism and Belonging in South Asia’ -Harvard University Press’ 2023।
इस किताब में वह भारत, पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश की राज्य विचारधाराओं पर निगाह डालती हैं और अलग-अलग किस्म के राजनीतिक कारकों द्वारा इस्तेमाल किए गए आहत भावनाओं के तर्क की विवेचना करती है, फिर चाहे गांधी की हत्या के लिए औचित्य प्रदान करने के लिए नाथुराम गोडसे के तर्क हों या पाकिस्तान के निर्माताओं के तर्क हों।
दरअसल यह एहसास कि भावनाओं को भड़काने या 'दुश्मनी या नफरत की भावनाओं' को हवा देने से अलग-अलग समुदायों में तनाव बन सकता है, इसके चलते ही भारतीय दंड विधान की धारा 153 (ए) का निर्माण उन्हीं दिनों हुआ, जिसने विवादास्पद भाषण या लेखन का अपराधीकरण किया या बीसवीं सदी की शुरूआत में भारतीय दंड विधान की धारा 295 ए का निर्माण हुआ था जिसके तहत 'धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर अपमानित करने की कार्रवाइयों का' अपराधीकरण किया गया था।
बांग्लादेश की एक अग्रणी पत्रकार ने महज एक साल पहले अपने एक तीखे आलेख में यही सवाल बिल्कुल सीधे तरीके से पूछा था- जब बांग्लादेश के नारैल नामक स्थान पर अल्पसंख्यक हिन्दू हमले का शिकार हुए थे, जब किसी हिन्दू युवक के फेसबुक पोस्ट के चलते बहुसंख्यक इस्लामिस्ट उग्र हुए थे। अपनी 'आहत भावनाओं' की प्रतिक्रिया में एक संगठित हिंसक भीड़ ने उनकी बस्ती पर हमला किया था।
वैसे घटाटोप के इस माहौल में सुकून देने वाली बात यह ढंूढी जा सकती है कि जगह-जगह आवाज़ें उठ रही है किसी बहुआस्थाओं वाले मुल्क में आहत होने के दोहरेपन को प्रश्नांकित करती दिख रही हैं और अल्पसंख्यक पर होने वाले हमलों के मामलों में बहुसंख्यकों के विराट मौन को भी प्रश्नांकित करने को तैयार हैं।
बांग्लादेश के एक लेखक ने नारैल की घटनाओं के दिनों में ही लिखा था कि -किस तरह ऐसा मौन समाज में विभिन्न तबकों की हिंसा का सामान्यीकरण कर देता है और इस बात की भी चीरफाड़ की थी कि ऐसा मौन एक तरह से एक 'झुंडवाद' का नतीजा है - जिसके तहत लोग अपने समूह या अपने समुदाय के प्रति जबरदस्त एकनिष्ठा का प्रदर्शन करते हैं।
लेख के अंत में लेखक ने मौन बहुमत को अपनी चुप्पी तोड़ने का आह्वान किया था और आखिर में 13वीं सदी के महान कवि दान्ते अलिगिअेरी की रचना डिवाइन कॉमेडी के इस बात को उद्धृत किया था।


