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धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद से आखिर किसे है दिक्कत?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सोमवार को उन याचिकाओं को खारिज कर दिया गया जिनमें मांग की गयी थी कि संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' शब्दों को हटा दिया जाये

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद से आखिर किसे है दिक्कत?
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- डॉ. दीपक पाचपोर

जब संविधान का धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप ही एक वर्ग और विचारधारा को पसंद नहीं आया था, तो प्रस्तावना में उसे जोड़ा जाना तो उन्हें नागवार गुजरना ही था। कौन सा है वह वर्ग और कौन हैं ये लोग? निश्चित ही वे लोग जो देश पर बहुसंख्यकवाद को थोपने में यकीन रखते हैं। उनके अनुसार भारत में बहुसंख्यक सम्प्रदाय ही श्रेष्ठ है और दूसरे दोयम दर्जे के हैं। उनके अनुसार नैसर्गिक रूप से बहुसंख्यकों को सारे संसाधनों और अवसरों का लाभ मिलना चाहिये जबकि अन्य का इन पर कोई हक नहीं हो सकता।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सोमवार को उन याचिकाओं को खारिज कर दिया गया जिनमें मांग की गयी थी कि संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' शब्दों को हटा दिया जाये। 22 नवम्बर को इस सन्दर्भ में दाखिल कई याचिकाओं पर दिये गये निर्णय को सुरक्षित रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना एवं जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि ये दोनों शब्द संविधान की बुनियाद हैं। उल्लेखनीय है कि 1949 में जब यह संविधान स्वीकृत किया गया था, तब ये शब्द उसकी प्रस्तावना में नहीं थे। उन्हें इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते 1976 में 42वें संशोधन के जरिये जोड़ा गया था। हालांकि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के तत्व हमारे संविधान की आत्मा में किसी न किसी प्रकार से निहीत थे ही। जस्टिस खन्ना का यह अवलोकन बहुत प्रासंगिक व सटीक है कि भारतीय सन्दर्भों में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के रूप में समाजवाद को देखा जाना चाहिये। संविधान लागू होकर 7 दशक से ज्यादा का वक्त निकल गया है, फिर भी धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के गुणों को संविधान के विभिन्न प्रावधानों एवं व्यवस्थाओं के माध्यम से देश की प्रशासकीय प्रणाली और सार्वजनिक जीवन में समाहित किया गया है। इतने सालों के बाद अगर कोई तत्व इसमें फेरबदल करना चाहते हैं तो उनकी शिनाख्त ज़रूरी है, तथा यह भी समझ लेना आवश्यक है कि आखिर उनका मकसद क्या हो सकता है।

अगर पहले धर्मनिरपेक्षता की बात करें तो ऐसा कहना कतई गलत नहीं होगा कि संविधान निर्माताओं को यह बात बहुत अच्छे से पता था कि विविध धर्मों और मान्यताओं वाले इस देश को अगर एक सूत्र में पिरोकर रखना है और सभी नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को बरकरार रखना है तो राज्य को चाहिये कि वह सभी धर्मों से एक सी दूरी बनाकर रखे। राज्य का खुद का कोई धर्म नहीं होगा लेकिन वह सभी लोगों की धार्मिक आजादी को सुनिश्चित करेगा। यही एक व्यवस्था है जो इन दोनों ज़रूरतों को एक साथ पूरा कर सकती है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से होकर गुजरने वाले राष्ट्र निर्माताओं ने देखा भी था कि धार्मिकता ने देश का कितना नुकसान किया था। इसलिये महात्मा गांधी समेत तमाम वे बड़े नेता, जिन्होंने आजादी के बाद देश की कमान सम्हाली थी, संविधान का चरित्र धर्मनिरपेक्ष ही रखना चाहते थे। ये शब्द चाहे संविधान लागू होने के तकरीबन 25 वर्ष बाद जुड़े हों लेकिन उसमें प्रदत्त मूलभूत अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से साफ है कि वे उसका स्वरूप प्रारम्भ से ऐसा ही चाहते थे। 42वें संशोधन को तो स्पष्टोक्ति मात्र ही कहा जाना चाहिये।

जब संविधान का धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप ही एक वर्ग और विचारधारा को पसंद नहीं आया था, तो प्रस्तावना में उसे जोड़ा जाना तो उन्हें नागवार गुजरना ही था। कौन सा है वह वर्ग और कौन हैं ये लोग? निश्चित ही वे लोग जो देश पर बहुसंख्यकवाद को थोपने में यकीन रखते हैं। उनके अनुसार भारत में बहुसंख्यक सम्प्रदाय ही श्रेष्ठ है और दूसरे दोयम दर्जे के हैं। उनके अनुसार नैसर्गिक रूप से बहुसंख्यकों को सारे संसाधनों और अवसरों का लाभ मिलना चाहिये जबकि अन्य का इन पर कोई हक नहीं हो सकता। स्वतंत्र भारत की पिछली सारी सरकारों ने इस सिद्धांत को ही स्वीकार किया कि देश सभी का है और सभी को यहां के संसाधनों-अवसरों का लाभ उठाने का एक जैसा अधिकार है।

ये नामंजूर हुई याचिकाएं हों या इस सम्बन्ध में दिये जाने वाले चुनावी नारे एक बड़ी खाई बना चुके हैं। धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बोलना दोहरे उद्देश्यों को पूरा करता है। एक ओर तो ध्रुवीकरण होता है तो वहीं वह समाजवाद की धारणा को भी चुनौती देता है क्योंकि समाजवाद का आधार समानता का सिद्धांत है। हालांकि उसके बहुत से और भी आयाम हैं जो समाज के साथ-साथ देश के राजनीतिक एवं आर्थिक क्षितिजों का भी स्पर्श करते हैं।

ऐसे ही, समाजवाद को लेकर बड़ी भ्रांतियां है। भ्रांति से भी ज्यादा नासमझी है। भारतीय प्रणाली में समाजवादी सिद्धांत का समावेश मूलत: प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की देन कही जा सकती है। यूरोप में उच्च शिक्षा ग्रहण करने तथा उसके बाद सार्वजनिक जीवन में काम करने के दौरान उन्हें यूरोपीय समाजवाद के अध्ययन का मौका मिला था। गांधी के असर और आजादी के संघर्ष के दौरान देश को करीब से उन्हें जानने का जो मौका मिला, सम्प्रभु भारत में उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था को लागू किया। वरना उन्हें साम्यवाद अधिक आकृष्ट करता था लेकिन उन्हें कालांतर में समाजवाद की यह खूबी नज़र आई होगी कि समानता में राज्य की भूमिका अहम है। इसलिये उन्होंने शासकीय व्यवस्था को उसी के अनुरूप ढाला था। लम्बी गुलामी से विपन्न हो चुके भारत के कायाकल्प में समाजवाद ने बड़ी भूमिका निभाई- चाहे वह आधी-अधूरी ही अपनाई गयी हो। देश में पूंजीवाद के खिलाफ तनकर जो विचारधाराएं खड़ी रही उनमें साम्यवाद के अलावा समाजवाद ही था। भारतीयों को कम्युनिस्ट विचारधारा कुछ ज्यादा ही लाल लगती रही है। इसलिये समाजवाद उन लोगों की पहली पसंद थी जो कांग्रेस और नेहरूवियन दर्शन को नापसंद करते थे। हालांकि संसद के शुरुआती दौर में साम्यवादी सांसद ही उनके प्रमुख विरोधी हुआ करते थे। जो लोग धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ होते हैं, वे अपने आप समाजवाद के भी विरोध में दिखाई देंगे क्योंकि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के साफ अंतर्संबंध हैं।

यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं लगाई गई थीं (जिन्हें न्यायालय ने अस्वीकृत किया है) उनमें इन्ही दो शब्दों (धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद) का विरोध है। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद दोनों ही समानता में विश्वास करते हैं जिससे एक वर्ग का दोनों से एक साथ विरोध हो जाता है। 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई और उसने दो और चुनाव जीतकर सरकारें बनाई हैं, तो ऐसे तत्वों के हौसले बुलन्द हैं। हालांकि इन याचिकाकर्ताओं में सुब्रमण्यम जैसे लोग भी हैं जो कहने को तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोधी हैं लेकिन कट्टरता में उनके एकदम समांतर हैं। ऐसे लोगों का भरोसा भारत को एक मजहब विशेष की पहचान वाला देश बनाने में है। उसकी शुरुआत धर्मनिरपेक्षता का विरोध करने से होती है। बताया यह जाता है कि अब तक, खासकर कांग्रेस के राज में मुस्लिम तुष्टीकरण होता रहा है। सभी धर्मों के साथ एक जैसा व्यवहार और सबसे एक जैसी दूरी के सिद्धांत को गलत ढंग से पेश किया जाता है। दरअसल यह एक धर्म विशेष तथा उनके अनुयायियों के प्रति घृणा फैलाने का उपकरण बन गया है। इसकी पराकाष्ठा एक ओर नेहरू के पुरखों को मुस्लिम बताया जाना है, तो दूसरी ओर 11 वर्षों तक शासन करने के बाद मोदी लोगों को यह कहकर डराते हैं कि कांग्रेस की सरकार आई तो महिलाओं के मंगलसूत्र और मवेशी मुसलिमों को दे दिये जायेंगे।

वैसे शीर्ष न्यायालय के इस फैसले के बाद यह बहस बन्द हो जानी चाहिये और सरकार को भी आश्वस्त करना चाहिये कि ये शब्द नहीं हटेंगे, लेकिन सम्भवत: ऐसा नहीं होगा क्योंकि 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' दोनों ही नये निज़ाम की आँखों में न केवल चुभते हैं बल्कि अब ये दोनों शब्द ध्रुवीकरण करने, पूर्ववर्ती शासकों को बदनाम करने और चुनाव जीतने के उपकरण बनकर रह गये हैं। इसलिये इन शब्दों के खिलाफ़ याचिकाएं दायर कराई जाती हैं अथवा लोगों को भड़काया जाता है- जिस प्रकार आरक्षण खत्म करने या संविधान बदलने की बातें होती हैं।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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