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क्या होगा तेरा री दिल्ली?

अब जबकि दिल्ली में चुनाव प्रचार थम चुका है और कम से कम सैद्घांतिक रूप से मतदाताओं को विवेकपूर्ण तरीके से अपना मन बनाने देने के लिए, ''प्रचार शांति'' के घंटे शुरू हो चुके हैं

क्या होगा तेरा री दिल्ली?
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- राजेंद्र शर्मा

हैरानी नहीं होनी चाहिए कि कांग्रेस के पूरे मन से नहीं भी तो, आधे से ज्यादा मन से यह चुनाव लड़ने के पीछे, मतदाताओं के इस हिस्से का रिस्पांस भी हो। विडंबना यह है कि मतदाताओं के इसी हिस्से का रिस्पांस, कांग्रेस के लोकसभा चुनाव के विपरीत आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव न लड़कर, दोनों के स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के चुनावी निहितार्थ को लेकर भाजपा को दुविधा में डालता है। सरल चुनावी गणित यह कहता है कि लोकसभा के चुनाव में मिलकर लड़ीं आप पार्टी और कांग्रेस के अलग-अलग और वास्तव में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने से, भाजपा का ही रास्ता आसान होना चाहिए।

अब जबकि दिल्ली में चुनाव प्रचार थम चुका है और कम से कम सैद्घांतिक रूप से मतदाताओं को विवेकपूर्ण तरीके से अपना मन बनाने देने के लिए, ''प्रचार शांति'' के घंटे शुरू हो चुके हैं, एक बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि इस बार का चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली के 2013 के उसके पहले चुनाव को छोड़कर, सबसे मुश्किल विधानसभाई चुनाव साबित होने जा रहा है। ऐसा होने के दो स्वत:स्पष्टï कारणों की तो अधिकांश टीकाकारों ने चर्चा की है और उनका काफी कुछ विश्लेषण भी हुआ है। इनमें पहला कारण तो किसी हद तक नये जोश के साथ, कांग्रेस का पार्टी का लगभग सभी विधानसभाई सीटों पर उतरना और मुकाबले को किसी न किसी हद तक तिकोना बना देना ही है।

बेशक, कांग्रेस पार्टी के सरकार बनाने के दावे को दिल्ली के मतदाताओं ने बहुत गंभीरता से लिया हो, ऐसा नजर तो नहीं आता है। इसमें शक नहीं कि चुनाव प्रचार के दौरान, खासतौर पर आम आदमी पार्टी की सरकार से असंतुष्टï मतदाताओं के एक गौरतलब हिस्से में, दिल्ली में लंबे अर्से तक रही कांग्रेस की शीला दीक्षित की सरकार के दौर के प्रति आकर्षण दिखाई दिया है। लेकिन, इससे इसका अनुमान तो लगाया जा सकता है कि कांग्रेस, दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार से असंतुष्टï मतदाताओं के एक हिस्से को अपनी ओर खींचने में समर्थ है, लेकिन यह सोचना कांग्रेस के पक्ष में बहुत ही आशावादी होना होगा कि कांग्रेस, इस चुनाव में मुख्य मुकाबले में आ सकती है।

हैरानी नहीं होनी चाहिए कि कांग्रेस के पूरे मन से नहीं भी तो, आधे से ज्यादा मन से यह चुनाव लड़ने के पीछे, मतदाताओं के इस हिस्से का रिस्पांस भी हो। विडंबना यह है कि मतदाताओं के इसी हिस्से का रिस्पांस, कांग्रेस के लोकसभा चुनाव के विपरीत आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव न लड़कर, दोनों के स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के चुनावी निहितार्थ को लेकर भाजपा को दुविधा में डालता है। सरल चुनावी गणित यह कहता है कि लोकसभा के चुनाव में मिलकर लड़ीं आप पार्टी और कांग्रेस के अलग-अलग और वास्तव में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने से, भाजपा का ही रास्ता आसान होना चाहिए।

याद रहे कि 2024 के लोकसभा चुनाव में आप और कांग्रेस ने, चार और तीन सीटों के फार्मूले के आधार पर समझौता कर चुनाव लड़ा था और इसमें सभी सात सीटों पर इंडिया गठबंधन की हार और भाजपा की जीत के बावजूद, इंडिया गठबंधन के पक्ष में कुल 43.3 फीसद वोट पड़े थे, जो 2019 के चुनाव में अलग-अलग लड़कर दोनों पार्टियों को मिले वोट से 2.5 फीसद की बढ़ोतरी को दिखाता था, जबकि भाजपा 54.7 फीसद वोट हासिल करने में कामयाब रही थी और उसके वोट में 2019 के लोकसभा चुनाव के जैसे ही नतीजे के बावजूद, 2.2 फीसद वोट की कमी हुर्ह थी। इसी प्रकार, 2024 में भाजपा को कुल 54 विधानसभाई सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी, जबकि 2019 के चुनाव में उसे पूरी 65 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी। दूसरी ओर, इस बार आप को कुल 10 और कांग्रेस को 8 विधानसभाई सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी। सरल गणित के हिसाब से तो कांग्रेस और आप पार्टी के अलग-अलग चुनाव लड़ने से, भाजपा की संभावनाएं ही बेहतर हो सकती हैं।

लेकिन, जैसाकि हमने पीछे कहा, कांग्रेस पार्टी में कुछ जान पड़ने के उक्त संकेत, भाजपा को चुनाव नतीजों पर इसके असर को लेकर दुविधा में भी डालते हैं। इसका संबंध आम आदमी पार्टी की धमाकेदार एंट्री के बाद के दिल्ली के विशिष्टï चुनावी इतिहास से है। 2013 के चुनाव में जब पहली बार दिल्ली की चुनावी राजनीति में आप की धमक सुनायी दी थी और मतदाताओं के लगभग बराबर के त्रिपक्षीय विभाजन में, 28 सीटों तथा करीब 28 फीसद ही वोट के साथ, दूसरे नंबर पर रही आप पार्टी ने, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के सिद्घांत के आधार पर कांग्रेस द्वारा दिए गए समर्थन के बल पर एक अल्पजीवी सरकार बनायी थी। कांग्रेस, करीब 24 फीसद वोट के साथ, 8 सीटों पर सिमट गयी थी, जबकि भाजपा 31 फीसद वोट के साथ 31 ही सीटें लेकर विपक्ष में बैठने पर मजबूर हो गयी थी। उस चुनाव से ही यह स्पष्टï था कि कांग्रेस के वोट का ही बड़ा हिस्सा आप को मिला था, जबकि भाजपा अपना परंपरागत वोट बनाए रखने में कामयाब रही थी। उसके बाद, 2015 और 2020 के चुनावों में कांग्रेस का वोट उत्तरोत्तर बैठते हुए, 4 फीसद पर पहुंच गया और उसकी सीटें शून्य पर आ गयीं, जबकि आप का मत फीसद 2020 के चुनाव में 54 फीसद से ऊपर निकल गया। इस धु्रवीकरण में भी भाजपा अपने वोट में बहुत मामूली बढ़ोतरी ही कर पायी थी, जिसका अर्थ यह भी था कि कांग्रेस का वोट मुख्यत: आप पार्टी की ओर ही गया था। ऐसी स्थिति में कांगे्रेस के पुराने वोट का जितना भी हिस्सा उसकी ओर वापस लौटता है, वह आप पार्टी का ग्राफ नीचे लाने का और तुलनात्मक रूप से भाजपा की स्थिति मजबूत करने का काम कर सकता है।

लेकिन, दिल्ली की चुनावी राजनीति की विशिष्टïता को हम पूरी तरह से तब तक नहीं समझ पाएंगे, जब तक हम पिछले दो विधानसभाई तथा दो लोकसभाई चुनावों में सामने आयी एक अनोखी चुनावी परिघटना को हिसाब में नहीं लेंगे। इस परिघटना का संबंध, इस शहर राज्य के मतदाताओं के चयन के अनोखेपन से है, जिन्होंने लगातार और बहुत ही निर्णायक तरीके से, लोकसभा चुनाव में मोदी के पक्ष में और विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के पक्ष में वोट दिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अगर दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटें भाजपा की झोली मेें गयीं, तो उसके नौ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में आप पार्टी ने झाडू फेर दी और सत्तर में से 67 सीटें जीत लीं। 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव में भी करीब ज्यों का त्यों वही पैटर्न दोहराया गया और लोकसभा में भाजपा और विधानसभा में आप को झाडूमार कामयाबी मिली। 2024 के लोकसभा चुनावों में वही पैटर्न दोहराए जाने के बाद, अब पूछा जा रहा है कि क्या 2025 के विधानसभा चुनाव में भी वही पैटर्न नहीं दोहराया जाएगा?

बहरहाल, इस पैटर्न के अंदर हो रहा एक बदलाव भी गौर करने वाला है। पहली बार जब यह पैटर्न सामने आया था, तब चुनावी विश्लेषणों में यह रेखांकित किया गया था कि दिल्ली के करीब 40 फीसद मतदाता ऐसे थे, जिन्होंने लोकसभा के लिए भाजपा को और विधानसभा के लिए आप को बेहतर च्वाइस माना था। इन चुनावों के दूसरे चक्र में भी यह पैटर्न बहुत हद तक बरकरार तो रहा था, लेकिन इसका प्रभाव कुछ घट गया था। 2019 और 2020 के चुनावों में 35 फीसद करीब मतदाताओं ने ही इस तरह का विवेक दिखाया था। हैरानी की बात नहीं होगी कि इस बार, यह अनुपात कुछ और घट जाए।

बहरहाल, यह मानने का खास कारण नहीं है कि आप के लिए इस अनुपात में सारी गिरावट भाजपा के ही हिस्से में जाएगी। फिर भी, चाहे इस गिरावट का बड़ा हिस्सा भाजपा की ओर लौट भी जाए, आप से असंतोष का एक अच्छा खासा हिस्सा, कांग्रेस की ओर भी पलट सकता है। और अगर ऐसा होता है, जिसके कुछ आसार दिखाई भी दे रहे हैं, तो भाजपा के हाथ में मुख्यत: उसका अपना परंपरागत वोट ही रह जाएगा, जबकि आप के वोट में कमी के ज्यादा हिस्से में कांग्रेस के मतदाताओं की घर वापसी हो रही होगी। उस सूरत में आप पार्टी की एक भिन्न किस्म की, जनहितकारी राजनीति करने वाली पार्टी की, सघन प्रचार और लाभार्थी योजनाओं के बल पर निर्मित छवि में, मोदी सरकार ने विभिन्न केसों तथा आरोपों के जरिए जो डेंट लगाया भी है, उससे भी भाजपा को बहुत ज्यादा लाभ शायद नहीं हो।

यह दूसरी बात है कि भाजपा द्वारा सारी जनतांत्रिक मर्यादाएं तोड़ते हुए, पैसे और प्रचार साधनों के बल पर, जो आंधी उठायी गयी है, वह उसके लाभ की संभावनाओं को ही कई गुना बढ़ाकर दिखाती है, जिसे अक्सर चुनाव-पूर्व सर्वे भी प्रतिबिंबित करते हैं। लेकिन, इस सब के बीच, चुनाव जीतने के लिए संघ-भाजपा के कुछ भी करने के लिए तैयार होने को उस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, जहां चुनाव की सारी कसरत की ही वैधता बड़े सवालों के घेरे में आ गयी है। राजधानी का भी दिल कहे जाने वाले, नई-दिल्ली विधानसभाई क्षेत्र में, राष्टï्रीय-अंतर्राष्टï्रीय मीडिया की सारी नजर रहने के बावजूद, जिस तरह से मतदाता सूचियों में रिगिंग तथा भाजपा प्रत्याशी द्वारा खुले आम मतदाताओं के बीच पैसा तथा साड़ियां आदि बांटे जाने से लेकर, चुनावी हिंसा तक के प्रसंग सामने आये हैं, इसका संकेत करने के लिए काफी हैं कि अगर इन तिकड़मों के बाद भी भाजपा दिल्ली में सरकार में आ जाती है, तो इन धांधलियों को देश के पैमाने पर आम होने में देर नहीं लगेगी। जनतंत्र का सामना वाकई एक आज एक बड़े खतरे से है।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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