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स्वागत 'लाथार्थी के तौर पर नागरिक'

केन्द्र सरकार द्वारा 80 करोड़ भारतीयों के लिए हर माह पांच किलो अनाज देने की बात भी कोई कर सकता है जो आने वाले पांच साल तक चलेगी

स्वागत लाथार्थी के तौर पर नागरिक
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- सुभाष गाताडे

केन्द्र सरकार द्वारा 80 करोड़ भारतीयों के लिए हर माह पांच किलो अनाज देने की बात भी कोई कर सकता है जो आने वाले पांच साल तक चलेगी, उसका भी इसके तहत उल्लेख हो। ऐसी योजनाओं की प्रचुरता का- जिनमें से कई योजनाएं विपक्षी पार्टी की सरकारों ने भी शुरू की हैं - मतलब यह कत्तई नहीं है कि हम उन सवालों को सामने न रखें, जो पहले से उठे न हों। दरअसल इससे जुड़े अन्य मामलों के चलते उसकी अहमियत बढ़ गयी है।

सूबाई चुनावों का ऐलान हो चुका है, महाराष्ट्र और झारखंड में अगले माह के अंत तक नई सरकार का गठन होगा। वैसे इस ऐलान के ऐन पहले एक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार द्वारा महाराष्ट्र सरकार को भेजी लीगल नोटिस चर्चा का विषय बनी रही। इस नोटिस का फोकस महाराष्ट्र सरकार द्वारा आनन-फानन हाल में शुरू की गयी 'लाडकी बहिण' योजना से है, जिसके तहत महिलाओं को प्रतिमाह 1,500 रूपए दिए जाएंगे। याद रहे लोकसभा चुनाव में जब महाराष्ट्र में भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन को विपक्षी इंडिया गठबंधन की तुलना में कम सीटें मिलीं,तब इस योजना को शुरू किया गया।

नोटिस में कहा गया है कि सरकार का यह दावा कि इतनी मासिक सहायता महिलाओं के लिए काफी होगी, तथ्यों से परे है, इतना ही नहीं ऐसी खैरात निर्भरता की संस्कृति को बढ़ावा देती है और वह कल्याणकारी राज्य के समूचे विचार को खत्म कर देती है।
इस खास मामले में सरकार का जवाब जो भी हो, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस लीगल नोटिस ने बेहद जरूरी सवाल उठाए हैं। इसमें कहा गया है कि इस योजना के लिए सरकार ने प्रति साल 46,000 करोड़ रुपए के खर्चे का अनुमान लगाया है और इसे पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक आफ इंडिया से तीन हजार करोड़ रुपए का कर्जा भी ले लिया है। उनके मुताबिक यह योजना राज्य की वित्तीय स्थिति को और नाजुक कर देगा तथा उसका राजकोषीय घाटा तीन फीसदी से लेकर 4,6 फीसदी तक पहुंच जाएगा।

वित्तीय तथा अन्य मामलों के अलावा इस नोटिस ने अन्य सवाल उठाए हैं, मसलन महिलाओं के लिए बनी इस योजना से ट्रांसजेंडर महिलाओं को बाहर रखा गया है और सबसे अहम बात यह है कि यह योजना राज्य और स्त्रियों के बीच के रिश्ते को भाई-बहन के गतिविज्ञान में देखता है, जो संविधान निर्माताओं द्वारा नज़रिये को उलट देता है, जो इसे राज्य और नागरिक के बीच के सम्बन्ध के तौर पर देखता है।

इस हस्तक्षेप को लेकर यह प्रतिक्रिया सबसे पहले सुनने को मिल सकती है कि इस योजना में अनोखा कुछ नहीं है। मध्यप्रदेश में शुरू की गयी 'लाड़ली बहिना' योजना की बात की जा सकती है- जिसे शिवराज सिंह चौहान की पूर्व सरकार ने शुरू किया था और बाद में कहा गया था कि भाजपा को लोकसभा चुनावों में जो जीत मिली इसके पीछे इसी योजना का हाथ रहा है- जिसके तहत भी महिलाओं को हर माह कुछ निश्चित रकम दी जाती है।

मुमकिन है केन्द्र सरकार द्वारा 80 करोड़ भारतीयों के लिए हर माह पांच किलो अनाज देने की बात भी कोई कर सकता है जो आने वाले पांच साल तक चलेगी, उसका भी इसके तहत उल्लेख हो।

ऐसी योजनाओं की प्रचुरता का- जिनमें से कई योजनाएं विपक्षी पार्टी की सरकारों ने भी शुरू की हैं - मतलब यह कत्तई नहीं है कि हम उन सवालों को सामने न रखें, जो पहले से उठे न हों। दरअसल इससे जुड़े अन्य मामलों के चलते उसकी अहमियत बढ़ गयी है


बिना किसी पूर्वयोजना के चुनावों के ऐन पहले शुरू की गयी इस योजना का मतलब यह भी है कि इससे सरकार की पहले से चली आ रही योजनाओं पर भी गहरा असर पड़ेगा। पहले से जिन हाशियाकृत तबकों को सबसिडी दी जाती रही है, उसमें कटौती होगी या विलंब होगा। मालूम हो कि इस बात को सरकार के आलोचक नहीं बल्कि खुद केन्द्र सरकार के वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी ने उठाया है। राज्य की पहले से चली आ रही नाजुक वित्तीय स्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि- 'जब राज्य पहले से ही कर्जे में डूबा है तो ऐसी योजना की व्यावहारिकता प्रश्नों के घेरे में है।'

अगर हम घटनाक्रम की तरफ गौर से देखें तो यह साफ है कि राज्य ने नागरिकों के अपने हित से जुड़े मामले में निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता से पूरी तरह इन्कार किया है। दूसरे, जल्दबाजी में शुरू की गयी यह योजना एक तरह से नागरिकों की 'बौद्धिक क्षमता' को भी कम आंकती है और लोगों में आपस में ही संदेह और अविश्वास पैदा करती है।

इसका मतलब और कुछ नहीं बल्कि नागरिक और जनतंत्र के बीच जो एक खास किस्म का रिश्ता बना हुआ है - जहां नागरिक अपने अधिकारों की मांग कर सकते हैं, उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि अधिकार हासिल होते है और राज्य का कर्तव्य होता है कि वह उन्हें पूरी करे - को एक तरह से भंग कर देना या तोड़ देना।
शायद हुक्मरानों को यह लगता हो कि ऐसा रिश्ता अब पुराना हो गया है और उन्हें लगता हो कि पुराने दिन ही लौटाए जा सकें, जहां जनता प्रजा के तौर पर उपस्थित होती थी, जो शहंशाहों और राजे-रजवाड़ों की कृपादृष्टि पर निर्भर होती थी।

हम हाल के वर्षो में उन घटनाओं को याद कर सकते हैं कि किस तरह देश की वित्तमंत्री ने एक सार्वजनिक वितरण योजना की दुकान पर दुकानदार को इसलिए डांटा कि उसने प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर नहीं लगाई थी या खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही एक जनसभा में किस तरह ऐसी सहायता को लेकर जनता क्या सोचती है, इसका किस्सा बयान किया था।

इस तरह आज हम यही देख रहे हैं कि गणतंत्र के 75 वे वर्ष में एक आम नागरिक जो अधिकार सम्पन्न व्यक्ति है, उसे राज्य की दया पर छोड़ा जा रहा है। यह एक किस्म के नए रिश्ते को स्थापित करना है जहां नागरिक के बजाय वह एक लाभार्थी के तौर पर उपस्थित रहे।

2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही विश्लेषकों ने इस किस्म की संभावना प्रकट की थी। अपने पहले ही भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि उनकी सरकार गुड गवर्नेंस का सूत्रपात करेगी, जिसका सूत्र वाक्य होगा कि 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन/गवर्नंस'. यह एक बाहर से आकर्षित करने वाला विचार था, लेकिन उसकी वास्तविकता लोगों के सामने तभी स्पष्ट की गयी थीं।

विश्लेषकों ने बताया था कि उसका मतलब है कल्याणकारी खर्चों' में कटौती या कम से कम इस बात को स्थापित करना कि आर्थिक तौर पर वह एक गलत विचार है। इसके तहत चुने हुए राजनीतिक प्रतिनिधियों के बजाय नीति निर्माण में बिना चुने गए विशेषज्ञों को वरीयता देने की बात थी।

जहां पारदर्शिता, जवाबदेही, सशक्तिकरण या नागरिक सहभागिता जैसी बातों को इस 'गुड गवर्नंस के एजेण्डा' में शामिल किया गया था, लेकिन उनके सामने कोई 'सामाजिक रूपांतरण का संदर्भ' नहीं था बल्कि वह 'गुड गवर्नंस के नवउदारवादी विजन का ही हिस्सा था।' सशक्तिकरण का भी यहां अलग मतलब था, यहां उसका अर्थ था 'टेक्नालॉजी या ई-गवर्नस' के जरिए हाशिये के लोगों को ताकत प्रदान करना।

अपने आलेख का अंत अग्रणी विश्लेषक और हिन्दू के संपादक मंडल के सदस्य जी सम्पथ ने यह कहते हुए किया था कि- गुड गवर्नंस का मतलब होगा 'राजनीति- जो एक तरह से जनतंत्र की आत्मा होती है- उसे प्रबंधन से प्रतिस्थापित करना और 'अधिकारों के बिना नागरिकता' को बढ़ावा देना।

हाल के समयों में विद्वानों और विश्लेषकों ने इस बात को साफ किया है कि किस तरह ऐसी योजनाएं एक अधिकार संपन्न नागरिक को प्रजा में या लाभार्थी में बदलती दिखती है या किस तरह यह कल्याणकारिता, सामाजिक नागरिकता को बढ़ावा देना और एकजुटता कायम करना ऐसे तमाम मुक्तिकामी उद्देश्यों से तौबा करती है, और नागरिकों को राज्य के निष्क्रिय लाभार्थी में तब्दील करती है, जो राज्य की खैरात का इन्तज़ार करता रहता है, न कि एक अधिकारसंपन्न, अपना हक जताने वाले व्यक्ति के तौर पर।

जाहिर सी बात है कि कल्याणकारिता के इस मॉडल की पड़ताल आवश्यक है - जिसने एक तरह से वितरण के संघर्ष का ही गैरराजनीतिकरण कर दिया है या जनतंत्र को प्रभावित किया है- जहां हमारे सामने अधिकार संपन्न नागरिक नहीं, खैरात के इन्तज़ार में खड़े लाभार्थी हैं।
तय बात है संविधान निर्माताओं ने यह बात सपने में नहीं सोची होगी कि गणतंत्र की 75वीं वर्षगांठ नागरिकों के नयी प्रजा के तौर पर या लाभार्थी के तौर पर उपस्थित होने में ही खर्च होगी।


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