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अमीरी बढ़ रही है और गरीबी भी

अमीर वर्ग का आकार और अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़ता गया है और गरीब वर्ग कम हो न हो लेकिन अर्थव्यवस्था में उसके हिस्से कम संसाधन रह जा रहे हैं।

अमीरी बढ़ रही है और गरीबी भी
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अरविन्द मोहन

मध्यवर्ग को लेकर चाहे जो कन्फ्यूजन हो यह हर कोई मान रहा है कि अमीर वर्ग का आकार और अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़ता गया है और गरीब वर्ग कम हो न हो लेकिन अर्थव्यवस्था में उसके हिस्से कम संसाधन रह जा रहे हैं। अरबपतियों की बढ़ती संख्या या कुछ परिवारों के रिकार्ड दर पर अमीर होते जाने का खेल न भी भूलें तब भी यह मानना होगा कि हमारे मध्य वर्ग का एक हिस्सा उदारीकरण के इन वर्षों में अमीर वर्ग में शामिल हुआ है ।

भारतीय मध्य वर्ग सिकुड़ रहा है या बढ़ रहा है यह बात हमारी अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वालों के लिए एक पहेली बना हुआ है। और सरकार द्वारा जनगणना कराने में अनावश्यक देरी होने के चलते ही नहीं उपभोक्ता सर्वेक्षण समेत काफी सारे सर्वेक्षणों पर रोक लगाने या उनके नतीजे सामने न लाने के चलते भी इस सवाल का विश्वसनीय जबाब देना मुश्किल हो रहा है। हाल में जिस तरह से कार बाजार में स्टाक का रिकार्ड बनता जा रहा है, अर्थात बिक्री से ज्यादा कार बन रहे हैं, वह बताता है कि मध्य वर्ग को लेकर इस बाजार के जानकार चूक कर रहे हैं। दूसरी ओर पिछले डेढ़-दो वर्ष मे शहरी मकानों की बिक्री में जो तेजी दिखी है और मकान बनाने के अंदर जो बदलाव हुए हैं वे बताते हैं कि बड़े मकानों की मांग बढ़ रही है, साल भर में दामों मे लगभग एक तिहाई (दिल्ली एनसीआए में एक साल में 34 फीसदी ) की तेजी के बावजूद रियल इस्टेट बाजार तेज है। इतना ही नहीं अब एक या दो बेडरूम के फ्लैट बनने और बिकने कम हो गए हैं। इसी तरह छोटी कारों की बिक्री कम होने के संाथ ही अब दोपहिया वाहनों, खासकर मोटरसाइकिलों की बिक्री में भी कमी दिखने लगी है। वैसे कुल मिलाकर ग्रामीण उपभोक्ता बाजार भी बढ़ना बंद कर चुका है।

मध्यवर्ग को लेकर चाहे जो कन्फ्यूजन हो यह हर कोई मान रहा है कि अमीर वर्ग का आकार और अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़ता गया है और गरीब वर्ग कम हो न हो लेकिन अर्थव्यवस्था में उसके हिस्से कम संसाधन रह जा रहे हैं। अरबपतियों की बढ़ती संख्या या कुछ परिवारों के रिकार्ड दर पर अमीर होते जाने का खेल न भी भूलें तब भी यह मानना होगा कि हमारे मध्य वर्ग का एक हिस्सा उदारीकरण के इन वर्षों में अमीर वर्ग में शामिल हुआ है और काफी लोग नीचे भी धकेले गए हैं। बजट से पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण ही बताता है कि हमारे समाज के शीर्ष का एक तिहाई हिस्सा 77.8 फीसदी हिस्से पर काबिज है जबकि गरीबों वाले एक तिहाई हिस्से के पास 6.4 फीसदी संसाधन ही रह गए हों। अब इसी से यह बात समझ आती है कि पांच किलो मुफ़्त अनाज योजना के दायरे में अस्सी करोड़ लोग क्यों हैं। और उनकी संख्या कम करने या यह योजना रोकने की हर कोशिश का राजनैतिक विरोध क्यों हो रहा है। अगर देश की आबादी 1.4 अरब मानें तब भी यह संख्या तो तिहाई आबादी को कवर करती है अर्थात शीर्ष अमीर जमात के अलावा सबको। और कथित मध्य वर्ग ऐसी हालत में है कि उसे पांच किलों मुफ्त अनाज लेना (और बदले में राजनैतिक लाभ देना अर्थात वोट देने में) कोई अनैतिक काम नहीं लगता।

अब सरकार चाहे चार लाख तक की आमदनी को कर से मुक्त रखे और 12.75 लाख की आमदनी को कई तरह की शर्तों और बचत के साथ कर मुक्त कर दे लेकिन बाजार के जानकार, जिनका मतलब उपभोक्ता अर्थात कंज्यूमर से होता है, मानते हैं कि देश में शीर्ष दस फीसदी अर्थात करीब 14 करोड़ लोग अमीर या उच्च -मध्यवर्ग के हैं और वे पंद्रह हजार डालर तक खर्च करने लगे हैं। 2019 से 2024 के बीच यह रकम बारह हजार से बढ़कर पंद्रह हजार डालर हुई है। एक ओर उनका औसत खर्च पांच साल में बीस फीसदी बढ़ा है तो अगले 23 फीसदी लोगों का खर्च तीन हजार डालर साल पर रुक सा गया है। बाजार के जानकार इनको 'कंज्यूमर रिलक्टेंट पर्चेजर्सÓ कहते हैं। अब यह दोनों हिसाब रुपए में बदलने पर भी सरकारी आयकर की परिभाषा या गिनती से कितना अलग है यह बताने की जरूरत नहीं है पर यह कहीं न कहीं यही बताता है कि हमारा कथित मध्य वर्ग अभी भी सामान्य उपभोग पर महीने में पचीस हजार रुपए से ज्यादा खर्च नहीं करता। और सरकार जिन्हें बचत या निवेश के आधार पर कर मुक्त रखने की घोषणा कर रही है वे असल में इसी शीर्ष वाले दस फीसदी के लोग हैं।

अब आप रियल इस्टेट की कीमतों में अचानक आई तेजी और बड़े घरों की मांग बढ़ने या बड़ी कारों की मांग बढ़ने जैसे सच पर गौर करते हैं तब यह बात समझ आती है कि मुंबई की कीमतें ऐसी हो गई हैं कि एक आदमी की सौ साल से भी ज्यादा की बचत एक ठीक ठाक मकान दिलवाने लायक नहीं रह गई है। महानगरों में कोई तीन बेडरूम फ्लैट करोड़ से नीचे का नहीं है और मध्य आकार वाले शहर भी वहीं पहुंचने वाले हैं। अगर औसत खर्च पचीस हजार करना भारी पड़ता है तो सत्तर-पचहत्तर हजार महीने की किस्त देकर कौन फ्लैट ले सकता है। सो सिर्फ मुफ़्त या सस्ते राशन पर जोर नहीं पड़ रहा है बल्कि इंदिरा आवास और पीएम आवास योजनाओं जैसे कार्यक्रमों में भारी घूसखोरी और भीड़ है। आधी रकम तक ऊपर बंट जाती है, ऊपर मतलब मोदी-शाह नहीं जिला और ब्लाक के अधिकारियों से लेकर गांव के प्रधान और कर्मचारी तक।

और इसके राजनैतिक लाभ घाटे भी साथ जुड़े हैं। इतना ही नहीं महंगे घर और फ्लैट या गाड़ियों में दोहरा-तिहरा आर्डर भी इन्हीं सबसे जुड़ा है- वहां कोई अंबानी या अडानी छद्मनामों से बुकिंग कराने नहीं जाते। इसी नोएडा में जितने बिल्डर फेल हुए और सरकार ने एनबीसीसी के माध्यम से जिन परियोजनाओं को पूरा कराया उनमें कितने फीसदी बुकिंग वाले आए ही नहीं। यह प्रतिशत और नाम नेताओं और अधिकारियों अर्थात नवधनाढ्य वर्ग की सच्चाई को सामने ला सकता है लेकिन इसमे किसी की रुचि नहीं दिखती। उस पीड़ित वर्ग की भी नहीं जिसकी जिंदगी भर की कमाई इन परियोजनाओं में फंसी पड़ी थी।

सो भारत में अगर करखनिया उत्पादन के आंकड़े गिर रहे हैं, एसेम्बलिङ्ग को उत्पादन माना जाने लगा है और खेती-किसानी को बोझ तो अर्थव्यवस्था का ऐसा बेडौल स्वरूप उभरेगा ही। यह आर्थिक गैर बराबरी और उपभोग के स्तर का अंतर ही भ्रष्टाचार का असली जनक है। इसका लाभ समाज का ताकतवर जमात ज्यादा उठाता है-नीचे के लोगों में भी सुधार की जगह इसी होड़ में शामिल होने का रास्ता आसान लगता है। इसलिए राजनैतिक सामाजिक आंदोलन ठप्प होकर भक्ति समुदाय बढ़ रहा है। और भक्त बनाने वाले पांच किलो राशन से लेकर आशीर्वाद बांटने के काम को प्राथमिकता दे रहे हैं। अगर वे भ्रष्टाचार खत्म कारण एके नाम पर शासन में आते हैं तब भी उनकी रुचि दूसरे कामों में ज्यादा हों जाती है। और जिस मध्य वर्ग को इस सब की ज्यादा चिंता होती रही है वह ऊपर जाने की होड ़में है। वह कब नीचे धकेल दिया जाएगा इसकी समझ भी उसको नहीं है।


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