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मतदाता सूची पुनरीक्षण या मताधिकार पर हमला

बिहार के ही संदर्भ में विपक्षी पार्टियों द्वारा भी और अनेक स्वतंत्र प्रेक्षकों द्वारा भी यह याद दिलाया गया है कि बिहार में ही मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण 2003 में किया गया था

मतदाता सूची पुनरीक्षण या मताधिकार पर हमला
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- राजेंद्र शर्मा

बिहार के ही संदर्भ में विपक्षी पार्टियों द्वारा भी और अनेक स्वतंत्र प्रेक्षकों द्वारा भी यह याद दिलाया गया है कि बिहार में ही मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण 2003 में किया गया था। लेकिन, उस समय इस प्रक्रिया के पूरा होने में दो साल लगे थे। जाहिर है कि पुनरीक्षण के नाम में, गहन से पहले, विशेष का विशेषण और जोड़ने से ही, इसमें लगने वाला समय, बहुत कम नहीं हो जाएगा।

यह अगर संयोग ही है तब भी बहुत कुछ बताने वाला संयोग है। 25 जून को, जिस दिन बड़े जोर-शोर से 'संविधान हत्या दिवस' के नाम से मौजूदा शासन द्वारा इंदिरा गांधी की इमरजेंसी की पचासवीं बरसी मनायी जा रही थी, ठीक उसी रोज बिहार में, जहां अब से कुछ ही महीने में विधानसभा के चुनाव होने हैं, मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण या स्पेशल इंटेंसिव रिव्यू (एसआईआर) की प्रक्रिया शुरू हो रही थी। इस तरह, जिस तारीख से संविधान तथा जनतंत्र के लिए खतरनाक निहितार्थों के साथ इमरजेंसी निजाम की शुरूआत हुई थी, ठीक उसी तारीख से मतदाता सूचियों में भारी काट-छांट की यह प्रक्रिया शुरू की जा रही है, जिसके जनतंत्र की बुनियाद, सार्वभौम वयस्क मताधिकार के लिए ही खतरनाक नतीजे होने जा रहे हैं।

बेशक, इस प्रक्रिया की शुरूआत फिलहाल बिहार से हो रही है। और बिहार के सिलसिले में इस प्रक्रिया के संभावित दुष्परिणामों को रेखांकित करने के अलावा, करीब-करीब सभी जानकार और टिप्पणीकार एक और समस्या की ओर ध्यान खींच रहे हैं। प्राय: सभी जानकार इस पर एकमत हैं कि बिहार के चुनाव से पहले इस प्रक्रिया का पूरा होना, इसके लिए तय की गयी समय सूची का पालन हो पाना, लगभग 'असंभव' है। समय सूची के अनुसार, 24 जून को भारत के चुनाव आयोग द्वारा उक्त विशेष गहन पुनरीक्षण का नोटिस जारी किए जाने के बाद, महीने भर के अंदर सभी 8 करोड़ से अधिक मतदाताओं के हस्ताक्षरित फार्म बूथ लेवल अधिकारी (बीएलओ) के माध्यम से / आयोग की वैबसाइट के जरिए आयोग के पास पहुंच जाने चाहिए, ताकि संशोधित मतदाता सूची में इन नामों को शामिल किए जाने पर विचार किया जा सके। याद रहे कि बचे हुए एक महीने से कम समय में जिन मतदाताओं के हस्ताक्षरयुक्त तथा आवश्यक प्रमाणपत्रों से युक्त फार्म आयोग के पास पहुंच जाएंगे, उनके और सिर्फ उन्हीं के नाम संशोधित मतदाता सूची में शामिल होने के विचारार्थ स्वीकार किए जाएंगे। जो ये फार्म नहीं भर पाएंगे या जिनके मुकम्मल फार्म तय अंतिम तारीख तक आयोग के पास नहीं पहुंच पाएंगे, वे खुद ब खुद प्रस्तावित मतदाता सूचियों से बाहर हो जाएंगे।

बेशक, अब तक के मतदाता सूचियों में शामिल मतदाताओं को, उनके मतदाता सूचियों में जुड़ने की तारीख के हिसाब से तीन अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया और इनमें से हरेक श्रेणी में आने वाले मतदाताओं से अलग-अलग हद तक दस्तावेजों की मांग की गयी है, लेकिन अपने जन्मस्थान व जन्म तिथि के प्रमाण के साथ अर्जी देने की शर्त सभी 8 करोड़ से अधिक मतदाताओं के लिए है। एक महीने से कम समय में यह प्रक्रिया पूरी होना असंभव है।

बिहार के ही संदर्भ में विपक्षी पार्टियों द्वारा भी और अनेक स्वतंत्र प्रेक्षकों द्वारा भी यह याद दिलाया गया है कि बिहार में ही मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण 2003 में किया गया था। लेकिन, उस समय इस प्रक्रिया के पूरा होने में दो साल लगे थे। जाहिर है कि पुनरीक्षण के नाम में, गहन से पहले, विशेष का विशेषण और जोड़ने से ही, इसमें लगने वाला समय, बहुत कम नहीं हो जाएगा। फिर भी मुद्दा सिर्फ इस पूरी प्रक्रिया के लिए उपलब्ध समय का ही नहीं है, हालांकि बिहार के संदर्भ में इस जल्दबाजी का भी विशेष अर्थ भी है और महत्व भी। इसी दौरान चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण का यह प्रोजेक्ट पूरे देश के पैमाने पर लागू किया जाएगा—पहले बिहार में, फिर उन राज्यों में जहां अगले चक्र में विधानसभाई चुनाव होने हैं और फिर बाकी सभी राज्यों में भी। इस संदर्भ में समय-सारणी की अनुपयुञ्चतता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण इस प्रक्रिया के लिए अपनायी जाने वाली पद्घति से जुड़े अन्य मुद्दे हो जाते हैं। अंग्रेजी की यह कहावत इस पर एकदम फिट बैठती है कि-डेविल इज़ इन डिटेल यानी राक्षस तो ब्यौरे में है!

बहरहाल, प्रक्रिया के इन ब्यौरों में जाने से पहले, एक नजर यह निर्णय जिस तरह लिया गया है, उसके अलोकतांत्रिक मनमानेपन पर डालना भी अनुपयुक्त नहीं होगा। हैरानी की बात नहीं है कि बिहार में ही नहीं बल्कि देश भर में लगभग समूचे विपक्ष ने चुनाव आयोग द्वारा बम की तरह अचानक अपने सिर पर इस फैसले के फोड़ दिए जाने की भी तीखी आलोचना की है। नये मुख्य चुनाव आयुक्त के आने के बाद, राजनीतिक पार्टियों के साथ परामर्श में भी और आम तौर पर भी चुनाव आयोग ने आने वाले समय के लिए अपनी जो डेढ़ दर्जन प्राथमिकताएं बतायी थीं, उनमें इसका कोई जिक्र नहीं था। यहां तक कि बिहार में राजनीतिक पार्टियों के साथ चुनाव की तारीखों की घोषणा की ऐन पूर्व-संध्या में बुलायी गयी आखिरी बैठक में भी इसका कोई जिक्र नहीं था। जैसे चुनाव आयोग को एक दिन अचानक मतदाता सूचियों में ऐसा पुनरीक्षण कराने की जरूरत का इलहाम हुआ और उसने राजनीतिक पार्टियों से, जो चुनाव में मुख्य खिलाड़ी होती हैं, किसी भी चर्चा के बिना ही यह फैसला थोप दिया। लेकिन क्यों?

जाहिर है कि चुनाव आयोग ने इसके पक्ष में मतदाता सूचियों को स्वच्छ बनाने की दलील दी है। नये नाम जुड़ने तथा मृतकों के नाम कटने की कमजोरियों से लेकर, पलायन से लेकर अवैध घुसपैठ तक की दलीलें दी हैं। लेकिन, ये दलीलें बहानेबाजी ही ज्यादा लगती हैं। इस बहानेबाजी में जो सांप्रदायिक इशारे झांक रहे हैं, वे भी किसी से छुपे नहीं रहेंगे। सच्चाई यह है कि बिहार से अब जो प्रक्रिया शुरू हो रही है, एक प्रकार से समूची मतदाता सूची ही नये सिरे से बनाए जाने की प्रक्रिया है। क्या 2024 के आम चुनाव जिस मतदाता सूची के आधार पर हुए थे, उसे पूरी तरह से खारिज करने के जरिए चुनाव आयोग आम चुनाव की वैधता को ही खारिज नहीं कर रहा है। यह सिर्फ बिहार में चुनाव के लिए ही नहीं है, पूरे देश में आम चुनाव के लिए ही है, क्योंकि यह नुस्खा पूरे देश के लिए ही पेश किया जा रहा है। यह दिलचस्प है कि चुनाव आयोग ने चंद महीने पहले ही देश भर में मतदाता सूचियों के समरी रिवीजन की प्रक्रिया पूरी की थी। उसके बाद अचानक मतदाता सूची ही नये सिरे से बनाए जाने का निर्णय लिए जाने की क्या तुक है?

अब हम ब्यौरों पर आते हैं। इसके लिए अपनायी जाने वाली पद्घति या प्रक्रिया के ब्यौरों का पहला पक्ष, उसके मूल सिद्घांत का है। अब तक भारत में मतदान सूची में लोगों को भर्ती करना राज्य या शासन की जिम्मेदारी रही है। मताधिकार की आयु पूरी होते ही, हरेक व्यक्ति मत का अधिकारी हो जाता है और उसका नाम मतदाता सूची में दर्ज करना चुनाव आयोग अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मानता आया है। नयी प्रक्रिया में, जिसमें मतदाता सूची में नाम लिखवाने के लिए मतदाता को अपने हस्ताक्षरों के साथ और विभिन्न प्रमाणों के साथ अर्जी देनी है, यह जिम्मेदारी सीधे-सीधे मतदाता पर डाल दी गयी है। अब जो इस प्रक्रिया को पूरा नहीं कर पाएगा, स्वाभाविक रूप से मतदाता सूची में नहीं आएगा। उसका छूट जाना, चुनाव आयोग या शासन की सिरदर्दी नहीं है। यह जनतंत्र की अभिव्यक्ति के रूप में चुनाव की व्यवस्था की ही जड़ पर कुठाराघात है।

ब्यौरों का दूसरा पहलू, अपनायी जाने वाली प्रक्रिया से है। प्रक्रिया यह तय की गयी है कि जुलाई 1987 से पहले से जो मतदाता हैं यानी जिनकी आयु 48 वर्ष या उससे अधिक है, उन्हें अपने जन्म स्थान/तिथि का ही प्रमाण देना होगा और मतदाता सूची में अपने नाम की यथावत मौजूदगी का प्रमाण। लेकिन, जो जुलाई 1987 से लेकर 2 दिसंबर 2004 तक मतदाता बने हैं, उन्हें उक्त प्रमाणों के साथ अपने माता-पिता में से किसी एक का जन्म स्थान/ तिथि प्रमाणपत्र भी देना होगा। और 2 दिसंबर 2004 के बाद जो मतदाता बने हैं, यानी जिनकी आयु 18 से 21 वर्ष है, उन्हें माता-पिता, दोनों का जन्म स्थान/तिथि प्रमाणपत्र देना होगा। माता/ पिता के जन्म स्थान के सत्यापन का मतदाता के रूप में रजिस्ट्रेशन के लिए अनिवार्य किया जाना, इस पूरी प्रक्रिया को डरावने तरीके से नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स या एनआरसी तैयार करने की विवादास्पद प्रक्रिया की प्रतिलिपि बना देता है। क्या मोदी सरकार खुद एनआरसी में विफल होने के बाद, अब चुनाव आयोग की आड़ में ही यह मकसद पूरा करने की कोशिश नहीं कर रही है, जिसका मकसद गरीब अल्पसंख्यकों की नागरिकता पर संदेह खड़े करना भी लगता है।

लगभग सभी विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने और स्वतंत्र टिप्पणीकारों ने उचित ही यह सवाल उठाया है कि इस तरह के प्रमाण, कम से कम बिहार जैसे पिछड़े राज्य में, कितने लोग दे सकते हैं? और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि क्या इन शर्तों के जरिए एक तरह मतदाताओं की छंटनी ही नहीं हो रही होगी, जिसमें गरीब, अशिक्षित और सामाजिक रूप से दबे हुए लोग, खुद ब खुद मताधिकार से वंचित हो जाएंगे। बेशक, चुनाव आयोग ने प्रमाणों के मामले में कुछ विकल्प भी दिए हैं। लेकिन, सभी जानकार इस पर एकमत हैं कि ये वैकल्पिक प्रमाण भी, इस सच्चाई को भेद नहीं सकते हैं कि गरीबों, अशिक्षितों और सामाजिक रूप से दबे हुए तबकों का बड़ा हिस्सा, इस छन्नी से छानकर बाहर कर दिया जाएगा। दूसरी ओर उसी प्रकार संपन्न, शिक्षित, सवर्णों का बड़ा हिस्सा, इस छन्नी से छनकर मतदाता सूचियों में पहुंच जाएगा।

दुर्भाग्य से ऐसा होना चुनाव आयोग के अलोकतांत्रिक मनमाने फैसले का अनचाहा दुष्परिणाम नहीं लगता है। इसके विपरीत, ऐसा लगता है कि इसी वांछित दुष्परिणाम के लिए चुनाव आयोग ने अचानक और किसी गुप्त प्रेरणा से यह कदम उठाया है। बेशक, बिहार के संदर्भ में यह और भी प्रखर रूप से देखा जा सकता है, लेकिन वास्तव में यह कमोबेश देश के पैमाने पर सच है कि गरीब, अशिक्षित, सामाजिक रूप से दबे हुए तबकों का ज्यादा झुकाव, बिहार में महागठबंधन और देश के पैमाने पर इंडिया गठबंधन के साथ खड़ी पार्टियों के पक्ष में है और इसी प्रकार संपन्न, शिक्षित, सवर्ण तबकों का उतना ही ज्यादा झुकाव मौजूदा सत्ताधारियों के पक्ष में है। यही तात्कालिक चुनावी राजनीतिक सैटिंग चुनाव आयोग के जरिए, वर्तमान सत्ता द्वारा खेले जा रहे लाखों गरीबों को मताधिकार से ही वंचित करने के इस जनतंत्रविरोधी खेल के पीछे है। जनतंत्र की हिफाजत करने के लिए इस षड्यंत्र को विफल करना ही होगा।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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