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व्यवस्था की संवेदनहीनता का परिचायक तिरुपति हादसा

आंध्रप्रदेश के विख्यात तिरुपति मंदिर में बुधवार रात मची भगदड़ में कम से कम छह लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हुए हैं

व्यवस्था की संवेदनहीनता का परिचायक तिरुपति हादसा
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आंध्रप्रदेश के विख्यात तिरुपति मंदिर में बुधवार रात मची भगदड़ में कम से कम छह लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हुए हैं। भगदड़ का कारण वैकुंठ द्वार के दर्शन के लिए टोकन लेने की लंबी कतार थी, जिसमें कई घंटों के इंतजार के बाद श्रद्धालुओं के सब्र का बांध टूटा और हालात बेकाबू हो गए। तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के मुताबिक 10 से 19 जनवरी तक वैकुंठ एकादशी पर वैकुंठ द्वार दर्शन के लिए खोले जाएंगे। इन 10 दिनों में करीब 7 लाख भक्तों के आने की संभावना है। दर्शन के लिए टोकन 9 जनवरी की सुबह 5 बजे से दिए जाने थे। लेकिन बुधवार 8 जनवरी की सुबह से ही टोकन पाने के लिए भक्तों की भीड़ जुटना शुरू हो गयी। टोकन वितरण के लिए कुल 9 केंद्रों में 54 काउन्टर बनाए गए थे।

हरेक केंद्र पर भारी भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। एक केंद्र में श्रद्धालुओं की कतार तितर बितर हुई तो अतिरिक्त पुलिस बल बुलाकर वहां स्थिति को काबू किया गया। ज्यादा भीड़ को देखते हुए पुलिस ने काउंटर खोले जाने तक लोगों को पास में बने एक पार्क में बैठने को कहा। कुछ ही देर में वो पार्क खचाखच भर गया। पुलिस ने पार्क का गेट बंद कर दिया। शाम 7 बजे के करीब पार्क में दम घुटने के चलते एक महिला बेसुध हो गई। इस महिला के इलाज के लिए उसे पार्क से बाहर निकालने का फैसला किया गया और एक पुलिस अधिकारी के कहने पर पार्क का गेट खोला गया, वहां मौजूद हजारों लोगों को लगा कि टोकन की कतार में भेजने के लिए पार्क का गेट खोला गया है और एक साथ सैकड़ों लोग पार्क के गेट से बाहर निकलने की जद्दोजहद करने लगे इसी दौरान वहां भगदड़ मच गई। जो कई लोगों की मौत का कारण बन गई।

तिरुपति में हर वर्ष वैकुंठ एकादशी के अवसर पर ऐसी ही स्थिति होती है। लेकिन इस साल यह एक अनचाही आपदा में बदल गई। ऐसा नहीं है कि किसी धार्मिक स्थल पर भगदड़ की यह पहली घटना है। हिंदुस्तान हर वर्ष ऐसी कई अप्रिय घटनाओं का साक्षी बनता है। अभी पिछले महीने मथुरा में एक कथा आयोजन में भगदड़ हुई थी। इससे पहले जुलाई में हाथरस में नारायण हरि के सत्संग कार्यक्रम में भयंकर भगदड़ हुई थी, जिसमें कम से कम 120 लोगों की मौत हो गई थी। अगस्त में जहानाबाद के बाबा सिद्धनाथ मंदिर में मची भगदड़ में 7 लोगों की जान चली गई थी। तीन साल पहले जनवरी 2022 में वैष्णो देवी मंदिर में भारी भीड़ के कारण भगदड़ मची और 12 लोगों की मौत हो गई थी। जुलाई 2015 में आंध्रप्रदेश के राजमुंदरी में गोदावरी स्नान के दौरान मची भगदड़ में 27 तीर्थयात्रियों की जान चली गई थी। ऐसी घटनाओं की लंबी फेहरिस्त है। इन घटनाओं में समय, तारीख, स्थान बदले हैं, लेकिन एक बात जो नहीं बदलती कि इन घटनाओं के असल दोषियों को कभी सजा नहीं मिलती, कभी किसी की जिम्मेदारी तय नहीं होती। हालांकि हर घटना के बाद जांच का वादा सरकार करती है।

दूसरी बात जो नहीं बदलती कि मरने वाले तमाम श्रद्धालु बेहद सामान्य परिवारों के लोग रहते हैं, इनमें किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति का नाम शुमार नहीं होता। अकाल मौत किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए, न आम को, न खास को। लेकिन भारत में आम जनता को अकाल मृत्यु के खौफ से निजात नहीं है, खास कर तब जबकि वह आस्तिक हो और अपनी श्रद्धा के मुताबिक धर्मस्थलों में जाए। यूं तो धार्मिक स्थलों में हमेशा ही भीड़ उमड़ती है लेकिन कुछ खास मौकों पर, कुछ खास धार्मिक स्थलों में इतने लोग एक वक्त में इक_े हो जाते हैं कि प्रशासन, प्रबंधन के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता है। तमाम असुविधाओं के बावजूद श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी करने, अपनी तकलीफों से राहत की प्रार्थना करने या अपना इहलोक, परलोक सुधारने के लिए धार्मिक स्थलों में, प्रवचन और सत्संगों में पहुंचते हैं।

अतिविशिष्ट लोगों को इस असुविधा का सामना कभी-कभार ही करना पड़ता है। क्योंकि उनके लिए विशिष्ट दर्शन, विशिष्ट कीमत पर उपलब्ध होते हैं और उनकी मौजूदगी अन्य लोगों को उस स्थान पर आने के लिए लुभाती भी है।

जिस तिरुपति मंदिर में अभी भगदड़ हुई, वहां कुछ दिनों पहले ही अभिनेत्री जाह्नवी कपूर गई थीं और उनकी तस्वीरें तमाम तरह के मीडिया में दिखाई गई। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। तिरुपति, वैष्णो देवी, कामाख्या मंदिर, देवघर स्थान, अजमेर शरीफ ऐसे तमाम धर्मालयों में देश भर के विशिष्ट लोग पहुंचते हैं, जहां उनके लिए विशिष्ट सुविधाएं होती हैं, उन्हें न धक्का-मुक्की से गुजरना पड़ता है, न दर्शन या प्रसाद के लिए लंबी लाइनों में घंटों खड़े रहना पड़ता है। भगवान के दर पर सभी एक समान है, इस वाक्य को देश की वीआईपी संस्कृति पूरी तरह गलत साबित करती है। विशिष्ट लोगों को भी भगवान के आशीर्वाद की जरूरत है, इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन क्या यह जरूरी है कि उनके लिए एक नियम और आम जनता के लिए दूसरे नियम रहें। क्या भगवान और भक्त के बीच आर्थिक ओहदा मायने रखना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि पहले दिग्गज हस्तियां धार्मिक स्थानों पर नहीं जाती थीं, लेकिन तब इतना प्रचार-प्रसार नहीं होता था। अब तो आलम यह है कि हर दिन कोई मुख्यमंत्री, कोई नेता, कोई खिलाड़ी, कोई अभिनेता किसी न किसी मंदिर में पूजा-पाठ करने पहुंचता है। उनके पीछे-पीछे मीडिया पहुंचता है कि फलाने ने आज यहां दर्शन किए और लोगों की सुख-समृद्धि की कामना की। जबकि लोगों का जीवन सरकारों की ईमानदार कोशिशों से सुधर सकता है, देश को इसी की अधिक जरूरत है। लेकिन इस समय सरकारों का ध्यान भी धार्मिक कामों को बढ़ावा देने में लगा है। पिछले साल इन्हीं दिनों में मीडिया में राम मंदिर के उद्घाटन की तैयारियों और जजमान बने प्रधानमंत्री मोदी के उपवास की सुर्खियां बनी हुई थीं और इस साल प्रयागराज में हो रहे महाकुंभ की तैयारियों का शोर है। कितने करोड़ के विलासितापूर्ण शिविर बनाए जा रहे हैं, खान-पान की क्या तैयारी है, स्वास्थ्य सुविधाओं की क्या व्यवस्था है, ऐसी ही खबरें लगातार आ रही हैं। महाकुंभ के आयोजन में सरकार जितनी दिलचस्पी ले रही है, उतनी ही दिलचस्पी और लगन से अगर लोककल्याण कार्यों के दायित्व को निभाया जाए तो अमृत की बूंदों पर विशिष्ट लोगों तक नहीं, हर वर्ग तक पहुंचेंगी।

रहा सवाल तिरुपति हादसे का, तो मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अस्पताल जाकर घायलों के हाल-चाल लिए हैं, प्रधानमंत्री से लेकर तमाम नेताओं की संवेदनाएं आ चुकी हैं, सरकार ने मुआवजे का ऐलान भी कर दिया है। इससे अधिक राहत या इंसाफ की अपेक्षा मौजूदा निजाम से नहीं की जा सकती।


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