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गहराई से समझना होगा अमेरिका-ईरान-इजरायल विवाद को

1980 के दशक के दौरान ईरान ने अमेरिका को बार-बार झटका दिया जिससे उसे दबाव में बातचीत करने के लिए मजबूर होना पड़ा

गहराई से समझना होगा अमेरिका-ईरान-इजरायल विवाद को
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- वाप्पला बालाचंद्रन

1980 के दशक के दौरान ईरान ने अमेरिका को बार-बार झटका दिया जिससे उसे दबाव में बातचीत करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 23 अक्टूबर 1983 को लेबनानी गृहयुद्ध में हस्तक्षेप के लिए पहुंचे अमेरिकी समुद्री जहाज 'पीसकीपर्स' को एक ईरानी आत्मघाती हमलावर इस्माइल अस्करी ने ट्रक बम से उड़ा दिया जिसमें 241 अमेरिकी नौसैनिक मारे गए। इस हमले में 18,000 पाउंड विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया था।

कई दिनों तक दुनिया यह अनुमान लगाती रही कि क्या अमेरिका इजरायल-ईरान हवाई युद्ध में शामिल होगा या नहीं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आखिरकार 22 जून को नाटकीय तरीके से ईरान को दी अपनी धमकियों पर अमल किया। ट्रम्प लगातार 'मैं यह कर सकता हूं, मैं ऐसा नहीं कर सकता' जैसी भ्रम फैलाने वाली बातें कर अनिश्चितता का माहौल बना रहे थे लेकिन उस दिन अमेरिकी वायु सेना और नौसेना ने बंकर बस्टर बम तथा टॉमहॉक मिसाइलों का उपयोग कर ईरान के फोर्डो, नतांज व इस्फ़हान परमाणु सुविधा केंद्रों पर हमला कर दिया। इजरायल-ईरान युद्ध में पहले से ही दोनों देशों में कई मौतें हो चुकी हैं और बुनियादी ढांचे को बहुत नुकसान पहुंच चुका है।

इसके तुरंत बाद ट्रम्प ने यह घोषणा करके शांति दूत के वस्त्र धारण कर लिए कि ईरान और इजरायल दोनों 12-दिवसीय संघर्ष के विराम के लिए सहमत होंगे जिसमें अमेरिका को शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था। फिलहाल संघर्ष विराम जारी है।

हालांकि एक समय था जब अमेरिका मध्य पूर्व में ईरान के हमलों की जांच करने में असहाय था। इसकी शुरुआत 14 फरवरी 1979 को तेहरान दूतावास की घेराबंदी से हुई थी जब उनके 52 कर्मचारियों को एक वर्ष से अधिक समय तक बंधक बनाकर रखा गया था। उस अवधि के दौरान कोई भी बड़ी शक्ति, यहां तक कि इजरायल भी वाशिंगटन डीसी और अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी शासन के बीच मध्यस्थता करने में मदद करने को तैयार नहीं था।

अवर्गीकृत सोवियत दस्तावेजों से पता चला कि तब अफगानिस्तान के घटनाक्रम से चिंतित सोवियत नेतृत्व को यह भी डर था कि अमेरिका शाह राजशाही के पतन को रोकने के लिए सैन्य हस्तक्षेप करेगा।

यद्यपि मास्को को विश्वास था कि खुमैनी शासन अमेरिकी प्रभाव को समाप्त कर देगा। 1979 से तेहरान में तैनात केजीबी अधिकारी लियोनिद शेबर्शिन ने अपने संस्मरणों में कहा था कि उनके प्रमुख यूरी एंड्रोपोव को कोई भरोसा नहीं था कि खुमैनी क्रांति सोवियत योजनाओं के अनुसार आगे बढ़ेगी। शेबर्शिन ने यह भी दावा किया कि उनके पास सबूत हैं कि 24 अप्रैल 1980 को 'ऑपरेशन ईगल क्लॉ' के माध्यम से बंधकों को बचाने के लिए अमेरिका के असफल प्रयास में तेहरान में शासन परिवर्तन के लिए 'अधिक दूरगामी उद्देश्य' थे। क्या ट्रम्प अब ऐसा करने का प्रबंध करेंगे?

थॉमस एल. फ्र्रीडमैन (न्यूयॉर्क टाइम्स, 22 नवंबर, 1986) के अनुसार, इजरायल 1979 में खुमैनी सरकार से जुड़ने के लिए एक चैनल खोलने के लिए 'क्रांतिकारी तेहरान में ईरानी सेना के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों और क्रांतिकारी तेहरान के अन्य तत्वों' के साथ अपनी खुफिया जानकारी के माध्यम से संबंध बनाने में व्यस्त था। यह ईरानी यहूदियों को देश से बाहर निकालने के लिए 'निहित ईरानी सहयोग' हासिल करना था। फ्रीडमैन ने कहा कि -इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेनाचेम बिगिन ने तेहरान को थोड़ी मात्रा में हथियार व स्पेयर पार्ट्स भेजने शुरू किये। हालांकि उन्होंने कहा कि इजरायल के इस तर्कका अमेरिका समर्थन नहीं करता है कि 'वाशिंगटन को हथियारों के सारे हस्तांतरण के बारे में सूचित किया गया था और उसने इसका मौन रूप से अनुमोदन किया था'। फ्रीडमैन ने महसूस किया कि खुमैनी शासन के एक वर्ग के साथ इजरायल के संबंध ईरान में यहूदियों को चरमपंथियों के गुस्से से बचाने की एक 'सामरिक चाल' थी तथा '1980 के दशक के मध्य में अपने ईरानी सैन्य संपर्कों के 'विलुप्त हो जाने' से पहले कुछ उपयोगी खुफिया जानकारी हासिल कर सकते थे'।

29 जनवरी, 2025 को राणा नेजाद ने इसकी पुष्टि की थी जिन्होंने पहले द वाशिंगटन पोस्ट के साथ काम किया था। उन्होंने कहा कि रिकॉर्ड से पता चलता है कि दोनों देशों ने महसूस किया कि गुप्त संबंध बनाए रखना रणनीतिक रूप से फायदेमंद होगा। परिणामस्वरूप शाह मोहम्मद रजा पहलवी के पतन के बाद 'तेहरान ने सार्वजनिक रूप से इजरायल के अस्तित्व के अधिकार से इनकार कर दिया था', फिर भी ईरान और इजरायल प्रति वर्ष लाखों डॉलर के व्यापार में संलग्न रहे।

नेजाद के अनुसार इस गुप्त गठबंधन में कई कारणों का योगदान था। खुमैनी शासन को 'दुनिया की छठी सबसे बड़ी सेना, विदेशी भंडार में 26 अरब डॉलर, एक दिन में 105 लाख डॉलर का तेल उत्पादन करने वाला तेल उद्योग और इजरायल के साथ घनिष्ठ संबंध' विरासत में मिला था। इजिप्त के राष्ट्रपति गमाल नासिर और सोवियत संघ से सुरक्षा खतरों के कारण शाह ने इजरायल के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए थे। यद्यपि खुमैनी ने शाह की सेना को 60 प्रतिशत तक शुद्ध कर दिया लेकिन वे चाहते थे कि इस गुप्त गठबंधन को बनाए रखा जाए क्योंकि उन्हें सितंबर 1980 और अगस्त 1988 में लड़े गए ईरान-इराक युद्ध के दौरान इराक का सामना करने में इजरायल की मदद की जरूरत थी।

नेजाद का कहना है कि 1985 तक इजरायल सरकार और निजी हथियार डीलरों द्वारा बुक किए गए चार्टर्ड डेनिश मालवाहक जहाजों ने फारस की खाड़ी के माध्यम से बंदर अब्बास के ईरानी बंदरगाह तक अमेरिकी निर्मित हथियार ले जाने के लिए 600 से अधिक यात्राएं की थीं। 'जब तक युद्ध जारी रहा, इजरायल ने ईरानी सैन्य विमानों की उड़ानें जारी रखी और इजरायली सैन्य प्रशिक्षक इस्लामी गणराज्य के सेना कमांडरों को प्रशिक्षित करते रहे'।

इस संबंध में द टाइम्स ऑफ इजरायल (14 जून, 2024) ने राष्ट्रीय ईरानी अमेरिकी परिषद के संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष त्रिता पारसी के हवाले से एक नया आयाम जोड़ा कि इजरायल ने 1981 के 'ऑपरेशन ओपेरा' से पहले ईरानियों से मूल्यवान खुफिया जानकारी प्राप्त की जो 'इराक की परमाणु महत्वाकांक्षाओं की आधारशिला' ओसिरक परमाणु रिएक्टर का विनाश का कारण बना था। चालीस साल बाद इजरायल अब ईरान की परमाणु परियोजनाओं को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है।

1980 के दशक के दौरान ईरान ने अमेरिका को बार-बार झटका दिया जिससे उसे दबाव में बातचीत करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 23 अक्टूबर 1983 को लेबनानी गृहयुद्ध में हस्तक्षेप के लिए पहुंचे अमेरिकी समुद्री जहाज 'पीसकीपर्स' को एक ईरानी आत्मघाती हमलावर इस्माइल अस्करी ने ट्रक बम से उड़ा दिया जिसमें 241 अमेरिकी नौसैनिक मारे गए। इस हमले में 18,000 पाउंड विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया था। एफबीआई ने इस विस्फोट को 'द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से पृथ्वी पर सबसे बड़ा गैर-परमाणु विस्फोट' निरुपित किया था। इसके कुछ मिनट बाद हुए एक और आत्मघाती बम विस्फोट में 58 फ्रांसीसी सैनिक मारे गए। नतीजतन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन को लेबनान से अमेरिकी नौसैनिकों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

वर्षों बाद 26 सितंबर 1983 को या उसके आसपास अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) ने एक ऐसा संदेश पकड़ लिया था जिसमें ईरानी खुफिया मुख्यालय द्वारा दमिश्क में तत्कालीन ईरानी राजदूत अली अकबर मोहताशमी को एक मौखिक निर्देश था जिसमें उन्हें आतंकवादी समूह इस्लामिक अमल के नेता हुसैन मुसावी को अमेरिकियों के खिलाफ 'असाधारण कृत्य' करने का निर्देश देने के लिए कहा गया था। यह बात 2003 में अमेरिका में एक अदालत के मुकदमे के दौरान सामने आयी थी।

लेबनान गृहयुद्ध के दौरान 1982 में इस्लामिक जिहाद-हिजबुल्लाह ने लगभग 104 विदेशी नागरिकों का अपहरण कर लिया जिनमें ज्यादातर अमेरिकी और पश्चिम यूरोपीय नागरिक थे। इस 'बंधक संकट' ने अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन को ईरान के साथ बातचीत करने के लिए मजबूर किया। बंधकों में सीआईए स्टेशन प्रमुख विलियम बकले और नौसेना कर्नल विलियम हिगिंस थे जिन्हें मौत के घाट उतार दिया गया था। इनमें से कुछ बंधकों की रिहाई 'ईरान-कॉन्ट्रा अफेयर' के विषय में थी जिसने रीगन प्रेसीडेंसी को इजरायल के माध्यम से ईरान को हथियार बेचने के लिए गुप्त रूप से सहमत होने और सैंडिनिस्टा विरोधी विद्रोहियों (कॉन्ट्रास) को निधि देने के लिए मजबूर कर दिया जिसे अमेरिकी कांग्रेस ने 'बोलैंड संशोधन' के माध्यम से प्रतिबंधित कर दिया था। इसका उद्देश्य निकारागुआ सरकार का विरोध करने वाले विद्रोहियों को मिलने वाली सीआईए फंडिंग को रोकना था। 'बंधक घटना' ने रीगन सरकार को हिला दिया था।

ये सारी बातें ब्रिटिश राजनेता और राजनीतिज्ञ लॉर्ड पामर्स्टन के शब्दों को सही साबित करते हैं जिन्होंने कहा था कि 'एक राष्ट्र का कोई स्थायी मित्र या दुश्मन नहीं होता है, केवल स्थायी हित होते हैं'।

(लेखक कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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