भाईचारा बढ़ाने वाली मड़ई मेलों की परंपरा
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं

- बाबा मायाराम
ऐसे मेलों का आयोजन प्रकृति की गोद में बसे पहाड़ों व जंगलों के आसपास, पेड़ों के नीचे, तालाब व नदियों के किनारे होता है। और इनसे यहां के बाशिन्दों का खास रिश्ता होता है, वे प्रकृति पूजक हैं। उनके देवी-देवता भी जंगल में ही हैं। वे जंगल से उतना ही लेते हैं, जितनी जरूरत है। इसलिए ऐसे मेलों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीने की प्रेरणा भी मिलती दिखाई देती है। ऐसे मेलों से प्राचीन संस्कृति व इतिहास में झांकने का भी एक मौका मिलता है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं। दोनों ही अविभाज्य मध्यप्रदेश में एक थे। कुछ साल पूर्व ही अलग हुए हैं। लेकिन इनकी सांस्कृतिक परंपराएं कुछ हद तक मिलती हैं। मेलों व तीज-त्योहारों में इस सांस्कृतिक विविधता की झलक मिलती है। दीपावली के बाद मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल में मड़ई मेलों का सिलसिला चलता है, हरेक गांव में मड़ई मेला होता है। ऐसी परंपराओं से प्राचीन संस्कृति की झलक तो मिलती ही है, गांवों के जीवन में उत्साह का संचार भी होता है। आज इस कॉलम में इस पर चर्चा करना उचित होगा, जिससे इन तीज-त्योहारों व मेलों के माध्यम से आपस में भाईचारा बढ़ाने वाली व जोड़ने वाली परंपराओं को समझा जा सके।
छुटपन से मैं मड़ई मेलों में जाता रहा हूं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के गांवों में मुझे मड़ई में जाने का मौका मिला है। मड़ई यानी मंडप होता है। मेला यानी मिलना, देखना, मेल-मिलाप करना। मेल-मिलाप का प्रयोजन कई प्रकार का होता है। मेलों में काफी भीड़ उमड़ती है। यहां देवी-देवताओं का मिलन भी होता है, इसे देव मिलन भी कह सकते हैं। मड़ई पर लोग अपने गांव की ढाल भी लेकर आते हैं, यह बांस के एक सिरे पर मोर पंख से छतरीनुमा बनाई जाती है, इसे देवी का रूप माना जाता है। इन्हें लोग समूह बनाकर, नाचते-गाते मंडई में लेकर आते हैं और विधि विधान से पूजा-अर्चना करते हैं।
मड़ई एक छोटे बाजार की तरह होती है। यह मेले नदियों के किनारे, पेड़ों के नीचे, मैदानों में होते हैं। इस प्रकार, खेती-किसानी, प्रकृति और पर्यावरण से तीज-त्योहारों से निकट का संबंध होता है। ऐसे मौकों पर आपसी भाईचारा भी देखने को मिलता है। ऐसे मेले, प्राचीन जमाने के दिनों की याद दिलाते हैं, जब न तो टेलिविजन होते थे, और न ही आने जाने के लिए कोई साधन। पूर्व में मेला ही मिलने-जुलने और एक दूसरे से जुड़ने का माध्यम होते थे। वर्तमान में तो यह साधन उपलब्ध हैं। इसके अलावा, इसमें धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक और लोककला का प्रचार-प्रसार भी होता है।
मेले में कई तरह की दुकानें होती हैं। भोजन की, मिठाईयों की और खिलौने की दुकानें होती हैं। मनोरंजन के लिए झूले होते हैं। यहां लोग घरेलू व रसोई में काम आने वाली चीजें भी खरीदते हैं, पशु और साज-सज्जा के सामान भी बिकते हैं। मेले में तरह-तरह की मिठाईयां मिलती हैं। चाट व गोलगप्पे भी होते हैं। रेवड़ी, और मोतीचूर व खोवा के लड्डू। भुने चने, मूंगफली, सिंघाड़े, अमरूद इत्यादि कई चीजें मिलती हैं। बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने व रंग-बिरंगे गुब्बारे आकर्षित करते हैं। सभी को अपनी रूचि का सामान मेलों में मिल जाता है।
मेलों में कई तरह के नृत्य देखने को मिलते हैं। इसी प्रकार ढोल व टिमकी की थाप पर लोक गीतों को यहां सुना जा सकता है। युवा रंग-बिरंगी पोशाकों में नाचते गाते देखे जा सकते हैं। देवी देवताओं की विधि विधान से पूजा-अर्चना भी होती है।
इसी प्रकार, छत्तीसगढ़ में दीपावली के मौके पर राउत नाचा बहुत ही प्रसिद्ध है। यह पारंपरिक नृत्य है। इसमें विशेष वेशभूषा में लोग टोलियों में नाचते गाते हैं। और गांव व इलाके में घर-घर जाकर उनके समृद्धि व खुशहाली की कामना की जाती है।
मुझे एक गांव के ग्रामीण ने बताया कि वह भुने चने व मूंगफली बेचने के लिए कई मेलों में जाता है। चाय भी बनाकर बेचता है। यानी मेले कई छोटे दुकानदार व फुटपाथ पर सामान बेचने वालों, खोमचे व चाट बेचने वालों के रोजगार का भी माध्यम होता है। कई लोगों को इससे आजीविका भी मिलती है।
सतपुड़ा अंचल में मेले के आयोजन में सक्रिय एक ग्रामीण ने बतलाया कि पुराने समय में जब बीमारियां ज्यादा बढ़ने लगीं, तब बंगाल से गांगो ( देवी) को लेकर आए। वह जादूगरनी थी। उसने बीमारियों से रक्षा की, ऐसा माना जाता है, तभी से यह मंडई की परंपरा पुरखों से चल रही है। कई तरह के विधि विधान से इसकी पूजा की जाती है। होम, धूप, गुड़, नारियल, नींबू जैसी कई चीजें पूजा में लगती हैं।
एक अन्य ग्रामीण ने बताया कि यह त्योहार पशुओं ( गाय-बैल) से जुड़ा है। इस मौके पर उन्हें नहलाते-धुलाते हैं। उन्हें सजाते हैं। खीर व अनाज खिलाते हैं। गोवर्धन पूजा के दिन गाय-बैलों की पूजा करते हैं। लेकिन इन दिनों मवेशी मारे-मारे फिर रहे हैं।
देसी बीजों के संरक्षण में लगे बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि 'हमारे सभी त्योहार खेती से जुड़े हैं। दीवाली भी इनमें से एक है। इसी समय खरीफ की फसलें पककर आने लगती हैं। खुशी व उल्लास का मौका होता है'। किसानों से ही अन्य जातियां जुड़ी हैं। इन सबको इनके काम, सामान व सेवाओं के बदले अनाज दिया जाता है, जिससे इनके घर में खुशियां आती हैं।
वे आगे बताते हैं कि 'इस मौके पर गाय-बैल को सजाया जाता है। उनकी पूजा की जाती है। हल-बक्खर जैसे कृषि-औजारों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब किसान के घर में खरीफ की फसल पककर घर आ जाती है- ज्वार, मक्का, चावल और उड़द जैसी दालें। अरहर की फसल को छोड़कर, वह बाद में आती है, सब फसलें आ जाती हैं।
वे आगे बताते हैं कि पहले स्कूलों में लंबी छुट्टी (24 दिन की) हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीकों सीखते थे, आसपास के पर्यावरण से परिचित होते थे। ज़मीनी हकीकत से जुड़ते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे। अब यह छुट्टी कम हो गई है।
बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि च्च् अब गांव, खेती, अनाज, लोक कला, संस्कृति पीछे होते जा रहे हैं। औद्योगिक सभ्यता आगे बढ़ रही है। एक दिवाली भागती हुई सभ्यता की प्रतीक बन गई है तो दूसरी दिवाली कृषि सभ्यता में ठहर गई है। एक दिवाली में गगनचुंबी इमारतों में होने वाली दिवाली की पार्टियों का शोर है तो दूसरी दिवाली अब गांवों में उजड़ती दिख रही है, खेती और गांव उजड़ती हुई सभ्यता के प्रतीक बन रहे हैं।'
सतपुड़ा अंचल के साहित्यकार कश्मीर उप्पल बताते हैं कि 'मेला कला, संस्कृति व सामाजिकता के संगम हुआ करते थे। जैसे संगम में कई नदियां एकत्रित होती हैं, उसी तरह मेलों में कई तरह की सीख होती थी।' यहां हाथ से बनी चीजें होती थीं, मिट्टी से बने खिलौने होते थे, उनमें सुघड़ता व कारीगरी होती थी। छोटी-छोटी दुकानें होती थी, जहां लोग उनके उत्पाद बेचते थे। लेकिन अब इन सबकी जगह रेडीमेड सामान ले रहे हैं। इससे गांव और अभावग्रस्त होते जा रहे हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मेले से ग्रामीण जीवन की धीमी गति में उत्साह, उल्लास व जोश पैदा होता है। सामाजिक एकरसता व तनाव से मुक्ति दिलाते हैं। गांव- समाज में नई ऊर्जा का संचार करते हैं। प्रकृति से मेलों व त्योहारों का रिश्ता होता है। ऐसे मेले प्रकृति को बचाने, सामूहिकता का भाव पैदा करने, पारस्परिक सौहार्द, एक दूसरे से सहयोग करने की परंपरा की याद दिलाते हैं। इनसे आपसी सूझबूझ का विकास भी होता है।
चूंकि ऐसे मेलों का आयोजन प्रकृति की गोद में बसे पहाड़ों व जंगलों के आसपास, पेड़ों के नीचे, तालाब व नदियों के किनारे होता है। और इनसे यहां के बाशिन्दों का खास रिश्ता होता है, वे प्रकृति पूजक हैं। उनके देवी-देवता भी जंगल में ही हैं। वे जंगल से उतना ही लेते हैं, जितनी जरूरत है। इसलिए ऐसे मेलों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीने की प्रेरणा भी मिलती दिखाई देती है। ऐसे मेलों से प्राचीन संस्कृति व इतिहास में झांकने का भी एक मौका मिलता है।
मेलों की संस्कृति व परंपराएं सदियों से विकसित हुई हैं। यह आपस में जोड़ती हैं, एक दूसरे की मदद करने की परंपराएं सिखाती हैं। इससे हमें खेती व छोटे व लघु कुटीर उद्योगों की ओर बढ़ने की दिशा भी मिलती है। ऐसे कामों से गांव-समाज को आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बनाने में मदद मिल सकती है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे?


