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जीडीपी वृद्धि में छिपा है वैश्विक जलवायु परिवर्तन का राज

अजरबैजान की राजधानी बाकू में चल रहा 'चीफ़ ऑफ़ पार्टीज़' (सीओपी) का 29वां सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएएफसीसीसी) के पक्षों का जमावड़ा है

जीडीपी वृद्धि में छिपा है वैश्विक जलवायु परिवर्तन का राज
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-प्रवीन सिंह एवं डॉ. असीम श्रीवास्तव

भारत में स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर पर 3 करोड़ से अधिक छात्र हैं। इनकी मदद से या एक समकक्ष शहरी समूह कल्याण के माध्यम से हर दो साल में बहु-आयामी उपाय पर डेटा एकत्र करें तो हम हर दौर में आसानी से देश के 25 फीसदी तक का सैंपल ले सकते हैं। जमीनी वास्तविकताओं, स्वैच्छिक राष्ट्रीय सेवा, चरित्र और कम लागत वाले, ईमानदार, सटीक डेटा संग्रह के लिए यह क्या यह एक अच्छा जोखिम नहीं हो सकता है?

अजरबैजान की राजधानी बाकू में चल रहा 'चीफ़ ऑफ़ पार्टीज़' (सीओपी) का 29वां सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएएफसीसीसी) के पक्षों का जमावड़ा है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण सभा है। 2016 के अंत में जब पेरिस समझौता लागू हुआ तो ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 सेंटीग्रेड तक सीमित करने के लिए 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 43 प्रतिशत की कटौती की जानी थी। 2016 में वैश्विक उत्सर्जन कार्बन डाई ऑक्साईड (सीओ 2) के बराबर 48 जीटी था। 2023 में 1.5 से.ग्रे. के लक्ष्य को पाने के लिए हमारा उत्सर्जन आदर्श रूप से 38 जीटी होना चाहिए था, लेकिन 2023 में वास्तविक उत्सर्जन 50 जीटी से अधिक था।

इस बारे में दो स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण हैं। एक, ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 से.ग्रे तक सीमित करना कोई सुहाना सपना नहीं है। हम अभी लगभग 1.1 सें.ग्रे. पर हैं और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जलवायु के बारे में लगभग ऐसी ही खबरें मिलती है। इस लिहाज से 1.5 से.ग्रे. एक बहुत बुरा भविष्य है। दूसरा, सीओपी 29 में 29 का अर्थ है कि हम तीन दशकों से ऐसी 'उच्च-स्तरीय वैश्विक' बैठकें कर रहे हैं और इन महंगी बैठकों के आयोजन का कारण बताने के लिए एकमात्र आउटपुट जीएचजी (ग्रीन हॉऊस गैस) उत्सर्जन की स्थिर वृद्धि है।

संकट के समय धरती को बचाने के लिए इंसान बाध्य है। हमारा निरंतर और प्राथमिक प्रयास हमारी भौतिक बेहतरी के लिए काम करना है। हम सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के लिए जनजातियों या राष्ट्रों का निर्माण करते हैं और इस यात्रा में प्रमुख समझ यह है कि यदि किसी देश को अपने नागरिकों की भलाई सुनिश्चित करनी है तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की जरूरत है या दूसरे शब्दों में अपनी जीडीपी बढ़ाने की आवश्यकता है।

जीडीपी की धारणा यह है कि 'जो समाज दूसरों की तुलना में अधिक उत्पादन और उपभोग करते हैं, वे बेहतर हैं'। अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं ने इस धारणा को हमारे दिमाग में डाल दिया है जिसे मीडिया ने हवा दे रखी है। 1934 में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुज़नेट्स ने जीडीपी का विचार विकसित किया था। कुज़नेट्स ने खुद अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि जीडीपी केवल राष्ट्रीय आय का आंकड़ा है, यह नागरिकों के कल्याण का पैमाना नहीं है। हालांकि अमेरिका में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह उपाय उल्लेखनीय रूप से प्रभावी साबित हुआ। 1940 के दशक के उत्तरार्ध में चले शीत युद्ध की परिस्थितियों ने यह सुनिश्चित किया कि यह देश की आर्थिक ताकत का प्रमुख उपाय बन जाए। दुनिया भर के देशों के लिए इसे अपनाना स्वैच्छिक और मजबूरी, दोनों ही था। नतीजा यह हुआ कि सरकारों ने वस्तुओं के उत्पादन और सेवाओं को प्रोत्साहित करने और सुविधाजनक बनाने के लिए अपनी भूमिका को समझा। 1990 के दशक में जैसे ही मुक्त बाजार अर्थशास्त्र ने जोर पकड़ा, राज्य की नीतियों ने निजी उद्यमों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। जीडीपी एक नीतिगत उपकरण की जगह केवल सभी सरकारों और उनके सलाहकारों का प्रमुख नीतिगत लक्ष्य बन गया।

पिछले तीन दशकों से भारत में जीडीपी बढ़ रही है। हकीकत में भारत को देखने वाला कोई भी व्यक्ति पूरी तरह से अलग तस्वीर देखता है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में बुनियादी दोष यह है कि यह सभी लोगों के लिए उत्पादन नहीं करती है। यह केवल उन लोगों के लिए उत्पादन करती है जिनके पास क्रय शक्ति है या सीधे शब्दों में कहें तो उनके लिए जिनके पास पैसा है। बाजार यह नहीं देखता कि सैंकड़ों- लाखों लोगों को क्या चाहिए, बल्कि वह वही पैदा करता है जो पैसे वाले लोग खरीदना चाहते हैं। इसलिए भारत में जगमगाते मॉल, लक्जरी कारें, स्मार्टफोन और छुट्टियां बिताने के लिए अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल हैं। फिर भी ये सारी बातें केवल शीर्ष 5 फीसदी आबादी के लिए सुलभ हैं जबकि 50 फीसदी से अधिक जनता स्वच्छ पेयजल, भोजन, अच्छा आवास, नौकरी और स्वच्छता की सुविधा पाने के लिए संघर्षरत है।

हालांकि जीडीपी बढ़ाने की कोशिश कर रहे अस्तित्व के खतरे की तुलना में उपरोक्त सभी विरोधाभास फीके हैं। वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बढ़ाना हवाई ख्याल से कम नहीं होता है। उत्पादन के लिए भौतिक संसाधनों और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीडीपी में वृद्धि सीधे उत्सर्जन में वृद्धि को बढ़ावा देती है क्योंकि हमारा यह विश्वास है कि जीडीपी बढ़ाने से ही मानव कल्याण संभव है इसलिए तीस साल से हो रही सीओपी बैठकें वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को कम करने में असमर्थ रही हैं। चूंकि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि जीएचजी उत्सर्जन में वृद्धि के बिना नहीं हो सकती है इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि गंभीर पारिस्थितिक और जलवायु तबाही की स्थिति तथा मानवता पर मंडराते खतरे के बावजूद उत्सर्जन कम करने में लंबे तीस वर्षों के वैश्विक प्रयास विफल रहे हैं। सीधी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या का ईमानदारी से सामना करने के लिए हमें सबसे पहले इस कल्पना को चुनौती देनी होगी कि जीडीपी से मानव कल्याण होता है।

जीडीपी पर निष्पक्ष न होने का आरोप नया नहीं है। इसकी कई कमियां सर्वज्ञात हैं। हम सभी जानते हैं कि यह अच्छी चीजों को महत्व देती और खराब पहलुओं को छिपाती है। इसलिए उत्पादन में वृद्धि से जीडीपी में वृद्धि होती है एवं गंदी हवा और पानी में भी बढ़ोतरी होती है। जीडीपी प्रकृति को केवल एक दोहन योग्य संसाधन मानता है। जीडीपी की शायद सबसे भ्रामक विशेषता है कि यह औसत का एक उपाय है- इसलिए जब हम प्रति व्यक्ति आय (जीडीपी) की बात करते हैं तो यह बात अस्पष्ट है कि आखिर यह आय कैसे वितरित की जाती है। इस 'भ्रामक उपाय' का एक नमूना जांच के लिए लें- आज भारत में प्रति व्यक्ति जीडीपी लगभग 1.84 लाख रुपये प्रति वर्ष है। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में पांच सदस्यों के औसत परिवार की वार्षिक आय 9.20 लाख रुपये प्रति वर्ष या 76,666 रुपये प्रति माह है। वास्तविकता यह है कि 80 फीसदी भारतीय परिवार प्रति माह 20 हजार रुपये से कम कमाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रति व्यक्ति जीडीपी आज दुनिया भर में भयावह असमानता को छुपाती है।

भले ही जीडीपी के इन लेखांकन और सांख्यिकीय दोषों को समाप्त कर दिया गया हो या अनदेखा किया गया हो, हमें यह समझने की जरूरत है कि यह मानव कल्याण को दूर से भी नहीं मापता है। इंसान के पास जरूरतों का एक सेट है जिसमें शामिल सभी बातें महत्वपूर्ण हैं। एक अच्छे जीवन के लिए भोजन, आश्रय, स्वच्छता जैसी बुनियादी बातें आवश्यक हैं। इसका मतलब शरीर और मन को सक्षम करने के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवा तथा शिक्षा की उपलब्धता। इसके बाद हर एक व्यक्ति को काम की पेशकश शामिल है जिसके जरिए हम सार्थक योगदान देकर अपनेपन, गरिमा एवं आत्म-मूल्य की भावना महसूस कर सकें। हमें स्वस्थ संबंधों और सामुदायिक भावना की जरूरत है। हमें स्वच्छ हवा-पानी, गैर विषैले भोजन, स्थिर जलवायु तथा एक ऐसे वातावरण की आवश्यकता है जिसमें सभी प्रजातियां पनपती हैं और अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। हमें विचार करने के लिए अवकाश और समय चाहिए।

हमें जीडीपी की 'एकल, उद्देश्यपूर्ण, मात्रात्मक' संख्या को मैट्रिक्स के डैशबोर्ड के साथ बदलने की जरूरत है जो इस बात की सच्ची तस्वीर दे कि समाज एक समृद्ध, पूर्ण, सार्थक जीवन के उपरोक्त घटकों में से प्रत्येक पर कैसे आगे बढ़ रहा है।

सौभाग्य से शिक्षाविदों ने इन सवालों को पूछने में कमी नहीं की है। 'बियॉन्ड जीडीपी' परियोजना दशकों से चल रही है- न केवल सिद्धांत रूप में बल्कि यहां-वहां प्रयोगों के रूप में भी। भूटान के सकल राष्र्ट्रीय खुशी जीएनएच (ग्रास नेशनल हैप्पीनेस एक सूचकांक है, जिसका इस्तेमाल लोगों की सामूहिक खुशी और कल्याण को मापने के लिए किया जाता है। यह आर्थिक खुशी और नैतिक प्रगति का एक माप है) से लेकर पारिस्थितिक अर्थशास्त्रियों के वास्तविक प्रगति संकेतक (जीपीआई-जेन्यूइन प्रोर्गेसिव इंडिकेटर किसी देश की आर्थिक वृद्धि और समृद्धि को नापने का संकेतक। इसमें पर्यावरण एवं सामाजिक मुद्दों को भी शामिल किया जाता है) तक, केट रावर्थ के 'डोनट'(एक ऐसी आर्थिक मॉडल जिसमें मनुष्य की जरूरतों के साथ ही धरती की रक्षा के संतुलन पर विचार किया जाता है) तक उपाय लाजिमी हैं। भारत के मामले में हमें मानव जीवन के विभिन्न महत्वपूर्ण आयामों में कल्याण की निगरानी करने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें जिला स्तर पर डेटा एकत्र करने और रिपोर्ट करने की आवश्यकता है। इससे हमें जमीनी स्तर पर विशिष्ट जरूरतों और बाधाओं को समझने तथा उनका जवाब देने में मदद मिलेगी। जीडीपी की तुलना में सामाजिक कल्याण का सच्चा उपाय हमारे गांवों, कस्बों और शहरों से व्यवस्थित रूप से उत्पन्न हो। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने की हमारी एकमात्र आशा इस रीसेट पर टिकी हुई है।

भारत में स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर पर 3 करोड़ से अधिक छात्र हैं। इनकी मदद से या एक समकक्ष शहरी समूह कल्याण के माध्यम से हर दो साल में बहु-आयामी उपाय पर डेटा एकत्र करें तो हम हर दौर में आसानी से देश के 25 फीसदी तक का सैंपल ले सकते हैं। जमीनी वास्तविकताओं, स्वैच्छिक राष्ट्रीय सेवा, चरित्र और कम लागत वाले, ईमानदार, सटीक डेटा संग्रह के लिए यह क्या यह एक अच्छा जोखिम नहीं हो सकता है?

इस तरह के सुधार से हमें सिस्टम-विचारकों से भी प्रशंसा मिलेगी। बड़े और जटिल सिस्टम को बदलने के लिए हमें लीवरेज पाईंट्स (उत्तोलन बिंदु) को पहचानने की जरूरत है। एक लीवरेज पाईंट वह है जहां किसी चीज़ में एक छोटा बदलाव समग्र प्रणाली में बड़े, वांछित परिवर्तनों का कारण बनता है। किसी सिस्टम के लक्ष्य को बदलना आज तक के शीर्ष दो या तीन ज्ञात लीवरेज बिंदुओं में से एक है। हम अपने समाज और अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को सही तरीके से प्राप्त करें। जलवायु संतुलन एवं अन्य बहुत कुछ स्वयं ही उसका अनुसरण करेंगे।

(प्रवीन सिंह शोधकर्ता हैं। डॉ.असीम श्रीवास्तव इकासोफी
पढ़ाते हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


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