खेत और बैल के रिश्ते को बचाना होगा
देश में किसान अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। अब इसे जानने के लिए कोई विशेष अध्ययन करने की जरूरत नहीं है

- बाबा मायाराम
भारत में आज भी खेती और पशुपालन ही सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था केवल खेती-किसानी से ही नहीं, पशुपालन और छोटे-छोटे लघु-कुटीर उद्योग व लघु व्यवसायों से संचालित होती रही है। मवेशी एक तरह से लोगों के फिक्स्ड डिपॉजिट हुआ करते थे, जिन्हें बहुत जरूरत पड़ने पर, वे बेच देते थे।
देश में किसान अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। अब इसे जानने के लिए कोई विशेष अध्ययन करने की जरूरत नहीं है। यह संकट रासायनिक खेती से जुड़ा हुआ है। जबकि परंपरागत खेती में खेत और बैल का संबंध था। किसानी व पशुपालन का गहरा रिश्ता था, जो अब ट्रेक्टर के आने से टूट रहा है। आज इस कॉलम में परंपरागत खेती पर चर्चा करना उचित रहेगा, जिससे खेती-किसानी को समग्रता से समझा जा सके, खेती की लागत को कम किया जा सके और खेती-किसानी और किसानों की आजीविका और पर्यावरण को भी बचाया जा सके।
हमारे देश में खेती-किसानी बरसों से हो रही है। यह हवा,पानी और जलवायु के अनुकूल विकसित हुई है। इसमें काफी विविधता रही है। यह सिर्फ फसल उत्पादन ही नहीं, एक जीवन पद्धति थी। मोटे तौर पर स्वावलंबी व आत्मनिर्भर खेती थी। श्रम आधारित थी। किसानों के पास खुद का देसी बीज होता था। पशुपालन होता था, तो घर की गोबर खाद हो जाती थी। जिससे खेत की मिट्टी की उर्वरता बनी रहती थी। खेती से जुड़े हुए कई रोजगार भी थे, जिससे गांव के लोगों की आजीविका जुड़ी होती थी।
गांव में बढ़ई का काम कृषि यंत्र बनाना होता था। वह बैलगाड़ी के चक्के, बक्खर और हल बनाता था। जिसके बदले उसे किसानों से अनाज मिलता था। परंपरागत खेती में अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी। न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक या नींदानाशक। पशुओं की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था। फसलों के डंठल से तैयार भूसा, पुआल व मेड़ पर होने वाले चारे से उनका पेट भर जाता था।
दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुओं के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी। गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी। फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे। पक्षी भी कीट नियंत्रण में अच्छी भूमिका निभाते थे। गाय-बैल को खिलाने के लिए पहले खेतों में कई तरह का चारा (घास) उपलब्ध था। होशंगाबाद जिले के पुराने गजेटियर में केल, मुचेल, पोनिया, सुकरा, गुनैया और दूब का चारे का जिक्र है। नये घास नेपियर और लुक्रेन हैं। जबकि किसान कई और चारे का नाम बताते हैं जिनमें समेल, कांस, बांसिया, हिरमेचिरी, बथुआ आदि हैं। लेकिन अब नींदानाशक या खरपतवार नाशक दवाईयों के छिड़काव के कारण ये चारे उपलब्ध नहीं हैं, या कम हो गए हैं। इस कारण पशुपालन कम होता जा रहा है।
भारत में आज भी खेती और पशुपालन ही सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था केवल खेती-किसानी से ही नहीं, पशुपालन और छोटे-छोटे लघु-कुटीर उद्योग व लघु व्यवसायों से संचालित होती रही है। मवेशी एक तरह से लोगों के फिक्स्ड डिपॉजिट हुआ करते थे, जिन्हें बहुत जरूरत पड़ने पर, वे बेच देते थे।
आम तौर पर गाय-बैल और मनुष्य के आपसी स्नेह और प्यार की कई कहानियां अब भी प्रचलन में हैं। उनके प्रति गहरी संवेदनशीलता भी देखने में आती थी। उन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला पोसा जाता था। ग्रामीण बताते हैं कि हम मवेशियों को अपने बच्चे की तरह पालते-पोसते हैं। उन्हें भी मनुष्यों की तरह बुढ़ापे में खूंटे पर बांधकर खिलाना चाहिए।
बैलों के प्रति विशेष प्रेम तब दिखाई देता है जब उन्हें दीपावली के समय रंग-बिरंगी फीते, गेंठा, मुछेड़ी, नाथ और पट्टों से सजाया जाता है। मड़ई-मेलों में बैलगाड़ी से लोग सपरिवार जाते हैं। नर्मदा के मेलों में सजे बैलों की छटा निराली दिखती थी। गाय-बैल अपने आपको ऐसा ढाल लेते हैं कि कई तो खुद ही खेतों या जंगल में चरकर खुद घर आ जाते हैं। उन्हें लाने-ले जाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। अगर वे कहीं दूर हो तो उनके गले की टपरी ( घंटी) या ढूने की आवाज सुनकर उनको हांक कर घर ले आते हैं। गाय की पूजा की जाती है। उन्हें अनाज खिलाया जाता है। यानी गाय-बैल को समान रूप से सम्मान मिलता था।
गाय-बैल को नहलाने-धुलाने से लेकर चराने-पिलाने का हर काम जिम्मेदारी से किया जाता था। खासकर महिलाएं और बच्चे मवेशियों की देखभाल में मदद करते थे। महिलाएं मवेशियों को बांधने के कोठा या सार की साफ-सफाई, भूसा-चारा डालना आदि का काम करती थीं। जबकि बच्चे उन्हें घास या भूसा डालने से लेकर पानी पिलाने का काम करते थे। अब भी असिंचित व दूरदराज के इलाकों में, मिश्रित खेती वाले क्षेत्रों में पशुपालन होता है। वहां आज भी बैलों से जुताई की जाती है।
हमारे कई त्यौहार भी खेती से जुड़े हैं। हाल ही में पोला त्यौहार निकला है, जिसमें बैलों की पूजा की जाती है। उन्हें नहलाया धुलाया जाता है। रंग-बिरंगी रंगों के छापों से सजाया जाता है। लेकिन रासायनिक खेती में बैलों की खेती पीछे छूटते जा रही है। दीपावली पर भी पशुओं की पूजा होती है।
खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। इसका उदाहरण राजस्थान से आने वाले घुमंतू पशुपालकों की भेड़-बकरियों, ऊंटों को किसान अपने खेतों में चरने की इजाजत देते हैं जिससे खेत उर्वर बने और उनका पेट भी भरे। यही घुमंतू पशुपालक पशुओं की अच्छी नस्ल उपलब्ध कराने में विशेष भूमिका निभाते थे।
लेकिन अब पशुपालन खत्म हो रहा है। किसान बताते हैं कि अब पशुओं को चरने के लिए खेत खाली नहीं हैं। तारों की फैंसिंग कर दी गई है। पड़ती या ऊसर भूमि भी अब नहीं है। गाय- बैल सड़कों पर मारे—मारे फिर रहे हैं। इन सब कारणों से पशुपालन कम हो रहा है। अब बबूल और बेर के पेड़ भी खत्म हो रहे हैं जिनकी पत्तियां बकरियां चरती थीं। इन पेड़ों पर घोंसले बनाकर रहने वाले पक्षी भी बसेराविहीन हो गए हैं।
पहले गांव में सभी घरों के मवेशियों को चराने के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता था। एक साथ जो पशु चरने जाते थे। बदले में उस व्यक्ति को हर घर से अनाज मिलता था, जो मवेशी चराता था। इससे कुछ लोगों को आजीविका भी मिलती थी।
हल-बैल की जगह ट्रैक्टर की जुताई से मिट्टी भी सख्त (भट्टल) हो रही है। किसान बताते हैं कि अगर गीले खेत में से एक भैंस निकल जाए तो जहां-जहां उसके खुरों के निशान बन जाते हैं, वहां-वहां दाने नहीं उगते। फिर तो अब ट्रैक्टर से जुताई की जा रही है। उसका वजन तो बहुत ज्यादा होता है। इससे हमारी जमीन कड़ी हो रही है। हल से जुताई की यह समस्या नहीं आती थी।
कुल मिलाकर, खेती और पशुपालन का रिश्ता आज टूट रहा है। लेकिन अगर इसको बरकरार रखा जाए तो न केवल हमें भूमि को उर्वर बनाने के लिए गोबर खाद मिलेगी। बल्कि बड़ी आबादी को रोजगार भी मिलेगा। पशु शक्ति के बारे में कई विशेषज्ञ व वैज्ञानिक भी यह मानने लगे हैं कि यह सबसे सस्ता व व्यावहारिक स्रोत है।
मशीनीकरण से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ेगी, जो आज दुनिया में सबसे चिंता का विषय है। लेकिन ऊर्जा संकट, बिजली संकट और मानव श्रम की बहुलता के मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा और इसमें पशु ऊर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण तो होगा ही, जैव विविधता व पर्यावरण भी होगा। किसानों व पशुपालकों की आजीविका भी बचेगी। खेती से जुड़े रोजगार व कौशल भी बचेगा। लेकिन क्या हम इस दिशा में बढ़ने के लिए तैयार हैं?


