संविधान की प्रस्तावना के साथ न हो खिलवाड़
आज के भारत में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा के समन्वित हमले को एक च्बहसज् के रूप में वर्गीकृत करना गलत होगा

- जगदीश रत्तनानी
यह वह बहुमूल्य विरासत है जिसे अब नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी तरह का एक प्रयास 2015 में देखा गया था जब केंद्र सरकार ने विज्ञापन जारी किया था जिसमें प्रस्तावना की एक छवि को चित्रित किया गया था लेकिन 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के बिना। इसके तुरंत बाद भाजपा नेताओं अरुण जेटली, एम. वेंकैया नायडू और अमित शाह ने इस बात से इनकार किया कि प्रस्तावना में संशोधन करने का कोई कदम उठाया गया है।
आज के भारत में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा के समन्वित हमले को एक च्बहसज् के रूप में वर्गीकृत करना गलत होगा। यह एक सोचा-समझा एजेंडा है जो न तो राष्ट्र की भलाई करता है और न ही आरएसएस-भाजपा के हित में है। वास्तव में यह केवल उन व्यापक आशंकाओं की पुष्टि करता है कि आरएसएस-भाजपा संविधान की मूल संरचना के साथ खेलने के नए तरीकों की तलाश कर रहा है जो लंबे समय से प्रचारित इस दृष्टिकोण को और वजन देता है कि आरएसएस ने वास्तव में डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर के संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया। यह उस 'चार सौ पार' के असफल अभियान की भी याद दिलाता है जिसमें भाजपा ने 2024 के आम चुनावों में तीन-चौथाई बहुमत की मांग की थी। यह संविधान के साथ छेड़छाड़ करने और उसके चरित्र को बदलने वाली संख्या थी। इस अभियान की असफलता ने भाजपा के इरादों पर पानी फेर दिया था। अगर यह लक्ष्य आज भी जारी है तो यह केवल विभाजनकारी एजेंडे की बात करता है जिसे आपातकाल का हवाला देकर भारत के संविधान से 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' को हटाने या मिटाने की कोशिश से छिपाया नहीं जा सकता।
इस अभियान को चलाकर भाजपा बड़े व्यवसायों के शक्तिशाली हितों से जुड़ी पार्टी के रूप में अधिक देखे जाने का खतरा उठा रही है जो कल्याणवाद से दूर हो रही है और उन चुने हुए क्रोनी पूंजीपतियों की मजबूत पकड़ में है जो 2014 में पार्टी के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से मोटे हो गए हैं। नीतियों ने असमानता को बढ़ाया है, बेरोजगारी को बढ़ाया है और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) जैसे उपहारों को बढ़ावा दिया है जिसे सरकार द्वारा 'खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक कल्याण योजनाओं में से एक' के रूप में वर्णित किया गया है। पीएमजीकेएवाई 2024-2028 से पांच साल की अवधि में 11.80 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित कुल लागत पर 80 करोड़ से अधिक भारतीयों को मुफ्त अनाज प्रदान करता है। यदि यह योजना (और कई अन्य) कल्याणकारी राज्य के आदर्शों में विश्वास नहीं दिलाती है तो इसका क्या अर्थ है? क्या ये खैरात जब अमीर समर्थक नीतियां जोर पकड़ती हैं तब गरीबों को चुप रखने के लिए है? क्या नीति निर्माण के केंद्र में बेईमानी है या वास्तव में भारत की स्थिति इतनी विकट है कि इस योजना से लाभान्वित होने वाला 70 प्रतिशत हिस्सा मुफ्त अनाज के बिना नहीं रह सकता है? प्रधानमंत्री के विचारों से तस्वीर और जटिल हो जाती है। उदाहरण के लिए कई राज्यों में महिलाओं के लिए गतिशीलता और आर्थिक सशक्तिकरण को सक्षम बनाने वाली मुफ्त सार्वजनिक बस सवारी के खिलाफत की नीति। तो आरएसएस-भाजपा समान न्याय और पुनर्वितरण की विचारधारा के पक्ष में हैं या उसके खिलाफ हैं?
हालांकि यह सच है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक काला अध्याय बने आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े गए थे लेकिन यह सच नहीं है कि ये मूल्य संविधान की भावना या स्वभाव के खिलाफ जाते हैं। प्रभावी रूप से संशोधन के ये एकमात्र हिस्से हैं जो आज 50 साल बाद भी अधोरेखित हैं। संशोधन के अन्य हिस्सों को निरस्त कर दिया गया है या हटा दिया गया है लेकिन प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द बने रहे क्योंकि वे भारत के संविधान के व्यापक रूप से स्वीकृत लोकाचार को सुदृढ़ और उजागर करने में मदद करते हैं। 7वीं, 8वीं और 9वीं लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान पर अपनी लोकप्रिय पुस्तकों के लिए जाने जाने वाले संविधान विशेषज्ञ सुभाष सी. कश्यप ने लिखा है: '... (दो शब्दों के) जोड़ने का प्रभाव केवल उस बात की पुष्टि और स्पष्टीकरण देने का था जिसे संविधान की मूल विशेषता के रूप में पहले से मौजूद माना जाता था। कश्यप लिखते हैं कि 1974 में सेंट जेवियर कॉलेज सोसाइटी बनाम गुजरात राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'हालांकि संविधान धर्मनिरपेक्ष राज्य की बात नहीं करता है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि संविधान निर्माता ऐसे राज्य की स्थापना करना चाहते थे'। इसके अलावा जैसा कि संविधान नोट करता है, विशेष रूप से धर्मनिरपेक्षता एक मौलिक अधिकार के रूप में धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी में निहित है। समाजवाद शब्द के लिए भी यही बात है क्योंकि जब सभी नागरिकों को 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक' न्याय सुरक्षित करने का संकल्प लिया गया और 'स्थिति और अवसर की समानता' के विचार को स्वयं प्रस्तावना ने अपना उच्च आदर्श बताया था ।
आपातकाल से काफी पहले 1973 के ऐतिहासिक 'केशवानंद भारती' मामले में 13 न्यायाधीशों की पीठ ने बहुमत से फैसला सुनाया था कि 'संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र' इसकी 'मूल संरचना' का हिस्सा है जो 'सर्वोच्च महत्व' का है और 'किसी भी संशोधन के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता'। अदालत ने निम्नलिखित मुद्दों को 'मूल संरचना' की विशेषताओं के रूप में पहचाना जिन्हें छुआ नहीं जा सकता है: (ए) संविधान की सर्वोच्चता (बी) सरकार का रिपब्लिकन और लोकतांत्रिक रूप (सी) संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र (डी) विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण (ई) संविधान का संघीय चरित्र। न्यायाधीशों ने कहा, 'उपरोक्त नींव और उपरोक्त बुनियादी विशेषताएं न केवल प्रस्तावना से बल्कि संविधान की पूरी योजना से आसानी से समझी जा सकती हैं। आपातकाल के बाद जुलाई 1980 के 'मिनर्वा मिल्स' मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया कि प्रस्तावना में बदलाव के लिए 'कोई अपवाद नहीं लिया जा सकता है' क्योंकि 'वे संशोधन न केवल संविधान के ढांचे के भीतर हैं बल्कि वे इसके दर्शन को जीवन शक्ति देते हैं; वे इसकी नींव को ताकत और सहायता प्रदान करते हैं'। अदालत ने कहा: 'वे और अधिक का वादा करते हैं; वे एक अनमोल विरासत को नष्ट नहीं करते हैं।
यह वह बहुमूल्य विरासत है जिसे अब नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी तरह का एक प्रयास 2015 में देखा गया था जब केंद्र सरकार ने विज्ञापन जारी किया था जिसमें प्रस्तावना की एक छवि को चित्रित किया गया था लेकिन 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के बिना। इसके तुरंत बाद भाजपा नेताओं अरुण जेटली, एम. वेंकैया नायडू और अमित शाह ने इस बात से इनकार किया कि प्रस्तावना में संशोधन करने का कोई कदम उठाया गया है।
अब इस मुद्दे को फिर से उठाया जाना इंगित करता है कि भाजपा के बारे में कुछ भी अनौपचारिक नहीं हो सकता है या वैचारिक मान्यताओं के भार एवं निश्चित फेम के साथ सोचा नहीं जा सकता है जो तेजी से बदलती दुनिया में नीतियों में मददगार हो। अगर यह देश को एक नई दिशा में ले जाने के लिए एक अति-नियोजित, रणनीतिक रूप से डिज़ाइन किया गया सटीक हमला है तो यह सत्तारूढ़ गठबंधन की चिंताओं और प्राथमिकताओं के बारे में अच्छी तरह से नहीं बोलता है। यह एक ऐसा समय है जब भारत कई ज्वलंत मुद्दों का सामना कर रहा है, वैश्विक उथल-पुथल के कारण आंतरिक संकट बढ़ रहे हैं। अगर सत्तारूढ़ गठबंधन भविष्य के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय प्रस्तावना के अच्छी तरह से स्वीकृत और वास्तव में अत्यधिक सम्मानित भागों को संशोधित करने पर अपनी ऊर्जा खर्च करेगा तो यह बहुत अफसोस की बात होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। (द बिलियन प्रेस के माध्यम से)


