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जनगणना का बहुप्रतीक्षित फैसला

पूरे चार वर्ष के विलम्ब से ही सही, अंतत: केन्द्र सरकार ने अगले साल यानी 2025 में देश में जनगणना कराने का फैसला लिया है

जनगणना का बहुप्रतीक्षित फैसला
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पूरे चार वर्ष के विलम्ब से ही सही, अंतत: केन्द्र सरकार ने अगले साल यानी 2025 में देश में जनगणना कराने का फैसला लिया है। यह काम कम से कम एक वर्ष तक चलेगा और आंकड़ों के परीक्षण, वर्गीकरण एवं अंतिम जनसांख्यिकीय के प्रकाशन में एक और साल लग जाने का अनुमान है। यानी 2026 तक ही यह काम पूरा हो सकेगा। वैसे लक्ष्य यही होगा कि 2028 तक होने वाले परिसीमन तक यह बड़ा काम पूर्ण हो जाये। सामान्य तौर पर जनगणना का उद्देश्य सामाजिक विकास के उद्देश्यों को ध्यान में रखा जाता है परन्तु लगता है कि केन्द्र सरकार ने 2029 में होने वाले लोकसभा चुनाव को सामने रखकर यह फैसला लिया है। 2025 में जनगणना कराने के कारण अगली 2035 में होगी।

भारत में 1872 में पहली जनगणना हुई थी जिसे लॉर्ड मेयो की देखरेख में कराया गया था। हालांकि इस गणना का परीक्षण आदि हेनरी वाल्टर के अधीन हुआ था इसलिये उन्हें ही भारतीय जनगणना का जनक माना जाता है। ब्रिटिश उपनिवेश होने के कारण भारत में भी दशक की शुरुआत में जनगणना कराने की व्यवस्था हुई। अब लगभग पूरी दुनिया में जगगणना का समय यही होता है। इस परम्परा का निर्वाह करते हुए स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना 1951 में हुई जो हर साल बदस्तूर जारी रही। इसके कारण भारत को विश्व भर के देशों द्वारा होने वाली जनगणना के साथ तालमेल करने में सुविधा होती है। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। आर्थिक जनगणना का प्रारम्भ 1976-77 में हुआ था। इसका उद्देश्य देश की आर्थिक संरचना का विश्लेषण करने के लिये होता है। इसमें देश की आर्थिक संस्थाओं के आंकड़े एकत्र किये जाते हैं जो केन्द्र या राज्य सरकार की विभिन्न योजनाएं बनाने में सहायक होते हैं।

सम्प्रभु भारत में 15 बार बिला नागा होने वाली जनगणना को आजाद हिन्दुस्तान में पहली बार 2021 में कोविड-19 के कारण टाला गया था। हालांकि परिस्थितियां 2022 तक ऐसी हो चुकी थीं कि जनगणना कराई जा सके लेकिन देश की प्रशासकीय अराजकता के लिये यह मुफ़ीद था कि जनगणना न हो। कोरोना के कारण लोगों के मरने वालों की संख्या, भूख से प्रभावित लोग, बेरोजगार आदि की संख्या आज भारत सरकार के पास नहीं है। रोजगार पर हुई एक बहस में सरकार ने संसद तक में बताया कि उसके पास इसके आंकड़े नहीं हैं। जितने भी योजनाएं चल रही हैं, उनमें हितग्राहियों या ज़रूरतमंदों सम्बन्धी तमाम आंकड़े संदेहास्पद हैं। इसके कारण कोई भी कार्यक्रम वैज्ञानिक आधार पर क्रियान्वित नहीं हो रहे हैं। केन्द्र सरकार ने 2019-20 में आर्थिक जनगणना तो कराई पर उसका आधार 2011 के ही पुराने आंकड़े थे। बताया जाता है कि भारतीय जनता पार्टी सरकार के दो निर्णयों का असर इन आंकड़ों में सच्चाई के साथ परिलक्षित नहीं हुआ है- नोटबन्दी एवं जीएसटी जिन्होंने भारत के आर्थिक परिदृश्य पर बहुत विपरीत प्रभाव छोड़ा था, परन्तु लोगों की वास्तविक वित्तीय स्थिति को कभी उजागर नहीं किया गया। स्पष्टत: ऐसा इन दो कदमों को गलत साबित होने से बचाने के किया गया। संसद में भी पहले-पहल इन दोनों निर्णयों को सकारात्मक पहल तो बताया गया पर बाद में उन पर चर्चा बन्द हो गयी।

हाल के वर्षों में जनगणना की मांग उठने लगी थी। खासकर जब से कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपनी दो यात्राओं (भारत जोड़ो एवं न्याय यात्रा) में इस ओर लोगों का ध्यान खींचा था कि भारत में जिस जाति के लोग जितनी संख्या में हैं, उस परिमाण में उन्हें अवसर नहीं मिलते। उन्होंने बार-बार बताया कि केन्द्र सरकार में केवल 5 सचिव ऐसे हैं जो ओबीसी वर्ग से आते हैं। उनके हाथ में कुल बजट का 5 फीसदी भी नहीं होता। यह विमर्श पहले राहुल गांधी, फिर कांग्रेस और अंतत: विपक्षी गठबन्धन इंडिया ने न केवल अपनाया वरन यह पिछले कुछ विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव का भी प्रमुख मुद्दा बन गया था। अब पूरा देश चाहता है कि जातिगत जनगणना हो जिससे न केवल आरक्षण प्रणाली सुधरे वरन सामाजिक न्याय भी सुनिश्चित हो। हालांकि देखना यह है कि जनगणना में लोगों की जाति व धर्म के आंकड़े कितनी ईमानदारी से प्रविष्ट होंगे।

हालांकि विकास सम्बन्धी योजनाओं एवं कार्यक्रमों के साथ-साथ विभिन्न स्तरों के चुनावों के मद्देनज़र भी जनगणना होती है, पर देखना यह है कि इतनी देर से जो मर्दुमशुमारी कराई जायेगी वह कितनी त्रुटिहीन एवं पारदर्शी होगी; क्योंकि इन आंकड़ों के आधार पर ही भारतीय जनता पार्टी अगले लोकसभा चुनाव के लिये अपनी व्यूहरचना करेगी। न केवल परिसीमन, महिला आरक्षण, आदिवासी, दलित व अति पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों को लेकर होने वाली राजनीति आदि को ख्याल में रखकर भाजपा अपनी रणनीति बनायेगी वरन राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर एवं नागरिकता संशोधन जैसे कानूनों के क्रियान्वयन हेतु भी भाजपा अपने लिये रास्ते खोलेगी। इनका आधार जनगणना के आंकड़े ही होंगे। इसके मद्देनज़र विपक्षी दलों एवं सिविल सोसायटियों को सावधान रहने की ज़रूरत है। उन्हें सरकार द्वारा एकत्र किये जाने वाले आंकड़ों की सटीकता, पारदर्शिता एवं परीक्षण का ख्याल रखने के लिये प्रशासन को जवाबदेह बनाना होगा। इस बार की जनगणना बहुत महत्वपूर्ण है जिसके पीछे भाजपा की सियासी मंशा भी छुपी हो सकती है।

जनगणना के आंकड़े आर्थिक-सामाजिक विकास का आधार बनें, न कि भाजपा की राजनीति की बुनियाद। 2024 में अपेक्षित बहुमत पाने से वंचित रही भाजपा इस जनगणना के बल पर वैसे ही बड़ा खेल कर सकती है जिस प्रकार से वह देश भर में मतदाता सूचियों और ईवीएम सम्बन्धी गड़बड़ियां करती है। नागरिकों को चाहिये कि वे खुद के बारे में सही जानकारी दे न कि मनमानी होने दें।


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