लड़ाई साफ है अंबेडकर समर्थक या विरोधी : बीच का कोई रास्ता नहीं
बाबा साहेब डा. आम्बेडकर के मुद्दे पर जनता का दुख और गुस्से से भर जाना स्वाभाविक है

- शकील अख्तर
अम्बेडकर का नाम लेकर जिन्दगी में सब कुछ पा लेने वाले लोगों द्वारा भाजपा का बचाव करने का कोई असर नहीं हो रहा है। हजारों सालों से दलित शोषित समुदाय के मन में यह भावना और तेजी से घर करती जा रही है कि बाबा साहेब उनके लिए काम करते थे इसलिए उनका उपहास उड़ाया जा रहा है। जिस तरह राज्यसभा में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बोला कि यह फैशन हो गया है।
बाबा साहेब डा. आम्बेडकर के मुद्दे पर जनता का दुख और गुस्से से भर जाना स्वाभाविक है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने करोड़ों भारतीयों का जीवन बदल दिया। हजारों सालों से दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा समुदाय जिस अपमान और भेदभाव की जिन्दगी जी रहे थे उसको बदलने का सबसे बड़ा श्रेय उनके नाम है। यह वैसा ही जैसा नेल्सन मंडेला ने काले लोगों को बराबरी और सम्मान का हक दिलाया। रंगभेद पूरी दुनिया में है इसलिए नेल्सन मंडेला का नाम भी पूरी दुनिया में छाया। मगर जातिगत भेदभाव केवल भारत में है इसलिए दुनिया इस के बारे में कम समझ पाई। दूसरी बात काले (ब्लैक) नेल्सन मंडेला के खिलाफ खड़े नहीं हुए। अपने मसीहा को उन्होंने पहचाना। मगर भारत में आज भी डा. आम्बेडकर का अपमान करने वाले और उससे भी ज्यादा शर्मनाक उनका उपहास उड़ाने और नकारने वाले उन लोगों का समर्थन पा रहे हैं जिनके लिए बाबा साहेब जिन्दगी भर लड़ते रहे।
दलित पिछड़े आदिवासियों के कई नेता, कथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले, इन्फ्लूएंसर अभी भी केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को यह कहकर बचाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या इससे पहले बाबा साहेब का अपमान नहीं हुआ था? उस घटना में नहीं हुआ था? फलाने ने नहीं किया था? रिटायर हो गए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अदालत में यह बात शायद चल जाती कि अगर पहले किसी ने ऐसा किया था तो अब भी ऐसा किया जा सकता है। लेकिन किसी गांव की पंचायत में भी यह कारण स्वीकार्य नहीं होगा कि कमजोर को दलित को शोषित को पहले भी मारा जाता था, उससे बेगार करवाई जाती थी, अपमान किया जाता था अब कर दिया तो क्या हो गया?
लेकिन अम्बेडकर का नाम लेकर जिन्दगी में सब कुछ पा लेने वाले लोगों द्वारा भाजपा का बचाव करने का कोई असर नहीं हो रहा है। हजारों सालों से दलित शोषित समुदाय के मन में यह भावना और तेजी से घर करती जा रही है कि बाबा साहेब उनके लिए काम करते थे इसलिए उनका उपहास उड़ाया जा रहा है। जिस तरह राज्यसभा में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बोला कि यह फैशन हो गया है। वह उन सारे शोषित लोगों को तीर की तरह लगा जिनकी जिन्दगी में मान सम्मान, बराबरी के अवसर बाबा साहेब की वजह से आए हैं।
भाजपा की कमान से तीर निकल गया। गांव-गांव में कही जाने वाली वह बात सच होती दिख रही है कि मुंह से निकली बात और कमान से निकला हुआ तीर वापस नहीं आते हैं। और वह बात कोई छोटी मोटी नहीं थी। यह बताने वाली थी कि भाजपा के मन में दलितों के लिए क्या विचार हैं। वही प्रतिगामी, मनुवादी विचार कि समानता, सम्मान की बात मत करो। अंबेडकर अंबेडकर मत करो। जिस हाल में रखें उस हाल में रहो। समरस हो जाओ। समरसता का मतलब ही यह है। यह आरएसएस द्वारा गढ़ा हुआ ही शब्द है। यह समानता का समानार्थी नहीं है, बल्कि झूठा संतोष दिलाने वाला शब्द है।
जब अमित शाह ने कहा तो उन्हें और भाजपा को नहीं लगा कि क्या हो गया? उन लोगों के लिए आपस में यह बात करना सामान्य बात है। लेकिन भाजपा जब भी सत्ता में आती है वह उन्माद में वह सब बातें सार्वजनिक रुप से करने लगती है जो वह अपने अन्दरूनी सर्किल में रोज करती रहती है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद कहा था कि व्यापारी सैनिक से ज्यादा रिस्क उठाता है। वे यह भूल गए कि जिस सेना की वर्दी को वह चाहे जब पहन लेते हैं वहां अपनी जान देने को हाइएस्ट सेक्रिफाइस ( सर्वोच्च बलिदान) कहा जाता है। और वह जान देश के लिए दी जाती है। व्यापारी ऐसा कब करता है यह उनसे किसी ने नहीं पूछा? ऐसी बहुत बातें है जो अब सार्वजनिक रूप से बाहर आईं हैं मगर उनके अंदर चलती हमेशा से रही हैं। जैसे देश 99 साल के पट्टे पर कांग्रेस ने लिया था। आजादी के महत्व को कम करने और कांग्रेस केे आजादी की लड़ाई के नेतृत्व को धुमिल करने के लिए अपने लोगों को यह बताया जाता है। जो अब लोग खुलकर कह देते हैं। और बड़े विश्वास के साथ कि पूरी आजादी थोड़ी है। 99 साल का पट्टा है। ऐसे ही डा आम्बेडकर के महत्व को कम करने के लिए वे कोई प्रतिभावान नहीं थे। थर्ड क्लास में पास होते थे। इतने विद्वान नहीं थे। संविधान खाली उन्होंने नहीं बनाया है जैसी कहानियां अपने लोगों को सुनाई जाती रहीं हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की एक और बात भी याद दिला देते हैं जो व्यापारी ज्यादा महान जैसी कहानियों की तरह उनके मन में जमी थी। नेहरू का कद छोटे करने के लिए उनके खिलाफ बहुत कहानियां प्रचारित की गई हैं। उनमें से एक मोदी जी प्रधानमंत्री बनने के बाद एक अख़बार के साथ इंटरव्यू में बोल गए कि नेहरू तो सरदार पटेल की अंत्येष्टि तक में नहीं गए थे। इंटरव्यू के छपते ही सोशल मीडिया पर वह तस्वीरें आने लगीं जिनमें नेहरू सरदार पटेल की अर्थी को कंधा दे रहे हैं।
गांधी-नेहरू-अंबेडकर इन सबसे नफरत है। और नफरत का कारण एक ही है ये सब दलित शोषित कमजोर पिछड़ी जनता को आगे बढ़ाना चाहते थे। महिलाओं को आगे लाना चाहते थे। और जैसा कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा कि भाजपा और संघ मनुस्मृति के आधार पर इन्हें संचालित करना चाहती है। जैसे थे उसी स्थिति में रहने की ओर धकेलना चाहती है। दलित आदिवासी पिछड़ा आरक्षण के मुकाबले सवर्ण आरक्षण देना उसी दिशा में उठाया गया कदम था।
2015 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी। लेकिन उल्टी पड़ गई। भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव हार गई। उसके बाद उसने आरक्षण पर बोलने के बदले दो तरीकों से उसे काउंटर करना शुरू किया। एक तो सरकारी नौकरियां खत्म कर दीं। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। नौकरी ही नहीं होगी तो आरक्षण काहे में मिलेगा? दूसरे आरक्षण के सामने दूसरा आरक्षण ले आई। ताकि सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिए जा रहे आरक्षण को धीरे-धीरे आर्थिक आधार दिया जा सके। जबकि बाबा साहेब का आरक्षण साफ कहता है कि हजारों सालों से दलित आदिवासियों के साथ सामाजिक भेदभाव होता रहा जिसकी वजह से उनके आगे बढ़ने के सारे अवसर रूक गए। इसलिए उन्हें विशेष अवसर दिए जाने की जरूरत है। सामाजिक असमानता सबसे बड़ा पहलू है। तो उस सामाजिक असमानता को आर्थिक आधार पर दबाने की कोशिश।
यह मुद्दा अब रुकेगा नहीं। 24 दिसंबर मंगलवार को देश भर में कांग्रेस ने आंबेडकर सम्मान मार्च निकालने की घोषणा कर दी है। इसी दिन मायावती ने भी धरने प्रदर्शन का आव्हान किया है। जो लोग सोचते हैं कि बाकी मुद्दों की तरह यह मुद्दा भी दब जाएगा। वे गलत सोचते हैं। यह सीधा जनता पर असर डालने वाला मुद्दा है। अडानी, मणिपुर का असर सीधा देश भर की जनता पर नहीं पड़ रहा था। इसे इस तरह समझ लीजिए कि मायावती किसी मुद्दे पर नहीं बोलीं। मगर इस पर चुप नहीं रह पाईं। उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा और यह मुद्दा ही बहुत कुछ बनाने-बिगाड़ने वाला है। दलितों पिछड़ों आदिवासियों के लिए वे भगवान ही थे। उन्हें जो मिला है वह संविधान से ही मिला है। लड़ाई बिल्कुल साफ हो गई है। संविधान वर्सेंस मनुस्मृति।
अंबेडकर से लाभान्वित लोगों और अंबेडकर विरोधी लोगों के बीच। पहली बार इतना स्पष्ट विभाजन हुआ है। बीच का कोई रास्ता नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


