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खलनायकों के महिमा मंडन और नायकों पर लांछन का दौर

पिछले दशक भर से भारत एक ऐसा दौर देख रहा है जिसमें डंके की चोट पर राष्ट्रनायकों को लांछित और खलनायकों को महिमा मंडित किया जा रहा है

खलनायकों के महिमा मंडन और नायकों पर लांछन का दौर
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- डॉ. दीपक पाचपोर

स्वतंत्रता संग्राम जिस भारतीयता के मूल्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उसकी राह में अवरोध डालने का काम ये ताकतें लम्बे समय से करती रहीं। एक ओर तो गांधी और उनसे जुड़े संगठन व लोग चाहते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ़ न सिर्फ यह लड़ाई सभी भारतीय मिल-जुलकर लड़ें बल्कि अभी ही सर्वधर्म समभाव तथा भाई-चारे की बुनियाद भी डालें जिसके आधार पर सम्प्रभु भारत विकास करे।

पिछले दशक भर से भारत एक ऐसा दौर देख रहा है जिसमें डंके की चोट पर राष्ट्रनायकों को लांछित और खलनायकों को महिमा मंडित किया जा रहा है- वह भी ऐसे वक्त में जब देश अपनी आजादी के कथित अमृतकाल से गुजर रहा है और संविधान के 75 वर्षों की गौरवशाली यात्रा का जश्न मना रहा है। चेतना और विवेक का ऐसा विकृत रूप इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। वैसे तो किसी के लांछनों और बदनाम करने के प्रयासों से हमारे राष्ट्रनायकों की उज्ज्वल छवि कतई मलिन नहीं होने जा रही; और न ही किसी कुपात्र के होने वाले महिमा मंडन से कोई नायकों की पंक्ति में जा बैठेगा, तो भी किसी भी देश के इतिहास में यह दुर्भाग्यजनक व स्याह दौर के रूप में दज़र् तो होगा ही। समय के साथ चढ़ाया गया कृत्रिम रंग उतर जायेगा तथा जो सम्मान के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं; और जो स्वतंत्रता आंदोलन की भ_ी में तपकर पहले ही कुंदन बन चुके हैं, उन्हें बदनामी का दौर और भी चमकाएगा- यह तय है। बस, देश की जो स्वर्णिम विरासत है और जिसने देश के लिये दुनिया भर में सम्मान अर्जित किया, उसे गिराने की कोशिशें एक सामूहिक निराशा का सबब ज़रूर है। डर यह भी है कि आने वाले समय में देश के स्वतंत्रता आंदोलन, अर्जित आजादी, स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण और उनसे जुड़े लोगों को इस कदर विकृत कर दिया जायेगा कि देश का बड़ा नुकसान हो जायेगा क्योंकि ऐसा तीव्र घृणा और हिंसक विचारों के जरिये होगा। इस रास्ते बनने वाले समाज के विकारों से आगामी कई पीढ़ियां उबर नहीं पायेंगी।

यह कोई ताजा मानसिकता नहीं है। जब देश स्वतंत्र हुआ तब ऐसी भी विचारधाराएं थीं जिन्होंने इसे झूठी आजादी बताया। जिस रास्ते से चलकर देश को आज़ादी मिली, वह दुनिया के लिये नया विचार था जिसने अनेक देशों को अपनी मुक्ति के लिये प्रेरित किया- सत्य और अहिंसा का। महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित इस विचार के पीछे-पीछे धर्मनिरपेक्षता, समानता, बन्धुत्व और न्यायपूर्ण समाज की अवधारणाएं भी चलकर आईं जिनके बूते देश वापस अपने पांवों पर खड़ा हो सका। ये पाये एक सभ्य, आधुनिक एवं लोकतांत्रिक देश के निर्माण के लिये अपरिहार्य थे। एक ऐसे वर्ग ने विचारों के इस पैकेज से बैर ठान लिया जिसके मन में समाज की अवधारणा एकदम विपरीत थी। अनेक ऐसे लोगों एवं संगठनों को न तो यह अवधारणा रास आई और न ही उस चमकदार विचारधारा से जुड़ी शख्सियतें जो असंख्य लोगों के लिये आज भी प्रेरणा पुंज बनी हुई हैं।

स्वतंत्रता संग्राम जिस भारतीयता के मूल्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उसकी राह में अवरोध डालने का काम ये ताकतें लम्बे समय से करती रहीं। एक ओर तो गांधी और उनसे जुड़े संगठन व लोग चाहते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ़ न सिर्फ यह लड़ाई सभी भारतीय मिल-जुलकर लड़ें बल्कि अभी ही सर्वधर्म समभाव तथा भाई-चारे की बुनियाद भी डालें जिसके आधार पर सम्प्रभु भारत विकास करे। ये ताकतें इसके ठीक विपरीत देश के दो प्रमुख सम्प्रदायों- हिन्दुओं व मुस्लिमों के बीच फूट डालती रहीं। उनके द्वारा एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया जिसे लगता था कि देश आजाद होने के बाद उस पर बहुसंख्यकों का एकाधिकार होना चाहिये। न सिर्फ साम्प्रदायिक विभाजन वरन बहुसंख्यकों में भी वही वर्गीकरण बना रहना चाहिये जो देश में कई शताब्दियों से समाज की विभाजनकारी व्यवस्था का निर्धारण करता है। इसलिये इन संगठनों के लोग कहते रहे कि 'उन्हें ऐसी आजादी नहीं चाहिये जिसमें मुस्लिमों, पिछड़ों एवं दलितों को भी अधिकार मिलें।' दूसरी तरफ गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. बीआर अंबेडकर की त्रयी ने इन विचारों व विरोधों को दरकिनार कर एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की नींव पहले दिन ही डाल दी। संविधान ने उन मूल्यों और आदर्शों पर मुहर लगाई।

जो उस संविधान और इस व्यवस्था के हिमायती थे, वे इन शक्तियों के निशाने पर पहले दिन से आये। हिन्दू महासभा हो या जनसंघ अथवा भारतीय जनता पार्टी का पूरा इतिहास इसी विचारधारा के विरोध का रहा है। फिर भी जनता ने उनके हाथों में लम्बे समय तक सत्ता नहीं सौंपी। दरअसल, जनता की एक पीढ़ी थी जिसने आजादी के संघर्ष को देखा था या फिर उसके बाद होने वाले नवनिर्माण की प्रक्रिया का लाभ भी उठाया था। जैसा गरीब और बदहाल भारत अंग्रेज छोड़कर गये थे, उसे वापस अपने पांवों पर खड़ा करना तथा दुनिया में एक सम्मानजनक स्थान पाना कितना कठिन था- यह नागरिकों का एक बड़ा वर्ग जानता था। बेशक उनके बीच धर्म और जातिवाद में भरोसा रखने वाले लोग भी थे परन्तु सम्भवत: उन्हें भान था कि व्यक्तिगत आस्था को नागरिक बोध पर हावी करना उनके अपने लिये नुकसानदेह हो सकता है।

इसलिये उन्होंने सरकार चुनने के वक्त उन राजनीतिक पार्टियों को बार-बार चुना जिनका दृष्टिकोण प्रगतिशील, वैज्ञानिक और विकासमूलक था। पहले नेहरू तत्पश्चात इंदिरा व राजीव गांधी के नेतृत्व में ऐसी सरकारें बनीं जिन्होंने धर्म आधारित वैमनस्यता और टकरावों को टालने की कोशिशें कीं, न कि उन्हें हवा देने अथवा उनका सियासी लाभ लेने की। ऐसा नहीं कि केवल कांग्रेस की सरकारों ने ही इस नज़रिये से काम किया। लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिंह राव व डॉ. मनमोहन सिंह नेहरू-गांधी परिवार के हिस्सा नहीं थे, पर उन्होंने भी वही राह अपनाई। गैर कांग्रेसी सरकारें भी आईं- गांधीवादी मोरारजी भाई देसाई, वीपी सिंह, एचडी देवेगौड़ा, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल भी पीएम बने लेकिन किसी ने भी न तो स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वालों को कलंकित किया न ही अपने अनुयायियों को इसके लिये प्रेरित किया। खुद को बड़ा साबित करने के लिये उन्होंने बड़ी लकीरों को छोटा करने का प्रयास कतई नहीं किया।

2014 ने सब कुछ बदलकर रख दिया। गुजरात के मुख्यमंत्री होने के अनुभव के अलावा देश के सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक किसी भी क्षेत्र में शून्य योगदान वाला बायो डाटा लिये नरेन्द्र मोदी ने अपना कद बड़ा करने के लिये भारत के महानायकों को छोटा करने का सुनियोजित अभियान चलाया। नेहरू उनके निशाने पर खास तौर पर रहे क्योंकि अपनी तुलना 'हिन्द के जवाहर' से होने की आशंका वे पहले दिन से पाले हुए थे। हर मंच से उन्होंने नेहरू की आलोचना की- या तो प्रत्यक्ष तौर पर या उनके परिवार के सदस्यों की आड़ में।

गांधी, अंबेडकर व नेहरू के परिजनों की छवियों पर कीचड़ उछालने का जिम्मा उनके पार्टी कार्यकर्ताओं, आईटी सेल, कुपढ़ों, ड्रॉपआऊट्स से लेकर फ़िरकापरस्ती, नफरत एवं हिंसा में भरोसा रखने वाले सांसदों, विधायकों, नेताओं ने सम्हाल लिया। इनका मुख्य कार्य यही है कि वे लोगों को बतलाते फिरें कि 'देश स्वतंत्र नहीं हुआ है वरन 99 वर्षों की लीज़ पर है'; या 'देश को असली आजादी 2014 में मिली है।'

खुद की विचारधारा के अग्रणियों का उल्लेख करने से घबराने वाली कार्यकर्ताओं की यह फौज जिस भगत सिंह को गांधी-नेहरू से लड़ाती थी, आज उन्हीं के बारे में कहा जा रहा है कि 'वे आरामतलब थे', 'होटलों में जुगाड़ से खाना खाते थे', 'उपवास के बावजूद उनका वजन बढ़ गया था।' ये विचार अपर्णा वैदिक के हैं जो प्रसिद्ध पत्रकार रहे वेदप्रताप वैदिक की पुत्री हैं और उन्होंने यह जानकारी लोगों को कानपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दी। एक राज्यपाल कहते हैं कि 'अंग्रेज गांधी के कारण नहीं वरन इसलिये डरकर भारत छोड़ गये क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों के हाथों में हथियार थे।' यह देखना होगा कि खलनायकों के महिमा मंडन और नायकों को लांछित करने का यह चलन कहां तक पहुंचता है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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