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पी के की उलझन भरी राजनीति

बिहार विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद इंतजार था कि अब प्रशांत किशोर राजनीति में किस दिशा में बढ़ते हैं।

पी के की उलझन भरी राजनीति
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बिहार विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद इंतजार था कि अब प्रशांत किशोर राजनीति में किस दिशा में बढ़ते हैं। मंगलवार को एक प्रेस कांफ्रेंस कर पी के ने स्पष्ट कर दिया है कि वे न बिहार छोड़ने वाले हैं, न राजनीति। यह जाहिर भी था। भले ही प्रशांत किशोर ने पहले ऐलान किया हो कि अगर जनता दल (यूनाइटेड) ने चुनाव में 25 से ज़्यादा सीटों पर जीत दर्ज की तो वह राजनीति छोड़ देंगे। लेकिन अब जेडीयू ने पी.के. के दावों से तिगुने से अधिक 85 सीटें जीती हैं। तो सवाल उठने लगे कि क्या अब पी. के. राजनीति को अलविदा कह देंगे। इसका जवाब उन्होंने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में दे दिया कि 'मैं उस बात पर बिल्कुल कायम हूं। अगर नीतीश कुमार की सरकार ने ये वोट नहीं ख़रीदे हैं, तो मैं राजनीति से संन्यास ले लूंगा।' पी.के. की पार्टी ने महिलाओं के खाते में 10 हजार देने को घूस भी बताया है। एक पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि 'जब आपने ये बयान दिया था, तब ये शर्तें क्यों नहीं बताईं थीं?' इस पर प्रशांत किशोर ने कहा, 'मैं किस पद पर हूं कि इस्तीफ़ा दे दूं? मैंने ये तो नहीं कहा था कि बिहार छोड़कर चले जाऊंगा। मैंने राजनीति छोड़ रखी है, राजनीति कर ही नहीं रहे हैं। लेकिन ये तो नहीं कहा है कि बिहार के लोगों की बात उठाना छोड़ देंगे।'

इन बातों से जाहिर है कि प्रशांत किशोर की राजनीति भी उनकी बातों की तरह उलझाने वाली है। जिसमें कोई स्पष्टता नहीं है और कभी भी अपने कहे से पलटने की गुंजाइश है। आखिर मौजूदा दौर में इस तरह के राजनेता ही सफल भी हो रहे हैं। जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने यह भी कहा कि 'साढ़े तीन साल पहले वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए आए थे, लेकिन सफलता नहीं मिली। न तो सत्ता परिवर्तन कर सका और न ही व्यवस्था, लेकिन बिहार की राजनीति को जरूर प्रभावित किया है।'

बिहार की राजनीति को किस आधार पर प्रभावित करने की बात प्रशांत किशोर कह रहे हैं, यह अब भी स्पष्ट नहीं है। क्योंकि प्रभाव पड़ता है, तो जमीन पर दिखता है। फिलहाल तो बिहार में यथास्थिति ही कायम है। ज्यादा से ज्यादा मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के नाम बदल सकते हैं, लेकिन सत्ता पहले भी भाजपा के हाथों में थी और अब तो दोगुनी ताकत के साथ आ चुकी है।

शायद प्रशांत किशोर की राजनीति, साढ़े तीन साल पहले की गई उनकी पदयात्रा, बिहार चुनाव में 238 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारने की रणनीति, चुनाव प्रचार में सत्तारुढ़ गठबंधन के साथ-साथ विपक्ष को भी निशाने पर लेना, ये सब भाजपा की दबी-छिपी मदद के ही तरीके थे। भाजपा यह अच्छे से जानती थी कि लोकसभा चुनावों के बाद इंडिया गठबंधन के उठाए मुद्दे जनता को प्रभावित करने लगे हैं। खासकर संविधान बचाने और जातिगत जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने जैसे मुद्दे बिहार में निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं। इसलिए प्रशांत किशोर को आगे बढ़ाकर इन मुद्दों के बरक्स विकास और वंशवादी राजनीति के खिलाफ नैरेटिव तैयार किया गया। याद कीजिए कि प्रशांत किशोर के भाषणों में लालू प्रसाद के साथ-साथ तेजस्वी यादव पर भी हमला होता था, खासकर उनकी शैक्षणिक योग्यता पर पी. के. हमलावर होते थे। पी.के. की तरह ही असद्दुदीन ओवैसी और मायावती भी महागठबंधन के लिए वोट काटने वाले साबित हुए।

चुनाव में प्रशांत किशोर ने दावा किया था कि उनकी पार्टी 'या तो अर्श पर होगी या फ़र्श पर होगी।Ó नतीजे तो बता रहे हैं कि पार्टी फ़र्श पर आ गई है। एक भी सीट न जीतना और कई पर जमानत जब्त होना किसी सफल पार्टी के लक्षण नहीं हैं। और यह भी कोई नियम नहीं है कि चुनावी राजनीति में पहली बार ही सफलता मिल जाए। एक वक्त में भाजपा भी महज दो संसदीय सीटों वाली पार्टी थी। लेकिन उसकी विचारधारा स्पष्ट थी कि देश में हिंदुत्ववादी ताकतों को स्थापित करना है, राम मंदिर बनाना है, कश्मीर से 370 खत्म करना है आदि। प्रशांत किशोर की राजनीति में इस स्पष्टता का अभाव है। अगर वे बिहार के विकास की बात करते हैं, पलायन रोककर राज्य में ही लोगों को रोजगार मुहैया कराने और भ्रष्टाचार खत्म करने के मुद्दों के साथ चुनावी राजनीति में उतरे थे, तो यही मुद्दे महागठबंधन के भी थे। फिर उन्होंने आरजेडी या कांग्रेस का विरोध क्यों किया। इसी तरह वे आरक्षण या जाति आधारित व्यवस्था को खत्म करना चाहते हैं तो खुलकर भाजपा का साथ क्यों नहीं दिया। दो गठबंधनों में किसी एक के साथ जाने का विकल्प प्रशांत किशोर के पास था, अब भी है, लेकिन वे बिहार में अरविंद केजरीवाल की तर्ज वाली राजनीति कर रहे हैं।

आम आदमी पार्टी ने जिस तरह दिल्ली फिर पंजाब और गोवा में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया, वही काम प्रशांत किशोर ने बिहार में किया। अब भले वे अपनी हार की जिम्मेदारी ले रहे हैं और कह रहे हैं कि मैं लोगों का विश्वास नहीं जीत पाया, यह हमारी सामूहिक हार है। लेकिन समझ आ रहा है कि यह असल में भाजपा की जीत है। वैसे प्रशांत किशोर ने यह भी कहा कि जनता ने अपने लिए रास्ता चुना है। अब नीतीश जी और भाजपा की जिम्मेदारी बनती है कि वो सुधार करें। बिहार से पलायन बंद हो। अगर ऐसा होता है तो हमें राजनीति करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

प्रशांत किशोर यह भी कह रहे हैं कि 'जिन नेताओं पर हमने आरोप लगाया है, उनके खिलाफ लगाए आरोपों से पीछे नहीं हटेंगे। भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार ऐसा मंत्रिमंडल बनाएं, जिसमे भ्रष्टाचार करने वाले को शामिल नहीं किया जाए। जनता ने सत्ता में बैठकर लूटने का जनादेश नहीं दिया है। एक तरफ पी.के. घूस देकर जीतने का आरोप एनडीए पर लगा रहे हैं और दूसरी तरफ साफ छवि वाले विधायकों को मंत्री बनाने की सलाह दे रहे हैं। जाहिर है एक बार फिर जनता को गुमराह किया जा रहा है।



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