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दिल्ली चुनाव में आप को हराने में केंद्रीय प्रशासन ने बड़ी भूमिका निभायी

भाजपा 45.6 प्रतिशत वोट पाकर 48 सीटों के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव जीती

दिल्ली चुनाव में आप को हराने में केंद्रीय प्रशासन ने बड़ी भूमिका निभायी
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- पी. सुधीर

दिल्ली में यह चुनावी लड़ाई सभी धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों के लिए एक संयुक्त चुनावी दंगल का आह्वान होगी ताकि वे लोकतंत्र और संघवाद पर भाजपा के नापाक हमले को हराने के लिए एक साथ आ सकें। परन्तु ऐसा नहीं हुआ, और न ही आप इस अभियान को लोगों के बीच शक्तिशाली रूप से ले जा सकी।

भाजपा 45.6 प्रतिशत वोट पाकर 48 सीटों के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव जीती। आम आदमी पार्टी (आप) 43.6 प्रतिशत वोट पाकर 22 सीटें जीती। दोनों के बीच अंतर केवल 2 प्रतिशत था, लेकिन यह 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली केवल 8 सीटों से 40 सीटें अधिक था।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा और विश्लेषित किया जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि 27 साल के लंबे अंतराल के बाद दिल्ली में भाजपा की जीत ने पार्टी और मोदी सरकार को बढ़ावा दिया है। वहीं, दस साल सत्ता में रहने के बाद आप की हार को एक खास तरीके से व्याख्यायित किया जा रहा है। कॉरपोरेट मीडिया और सत्ता समर्थक टिप्पणीकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला मुख्य दृष्टिकोण यह है कि आप को उसकी करनी और चूकों के लिए मतदाताओं द्वारा दंडित किया गया है।

ऐसा कहा जाता है कि 'इंडिया अगेंस्टकरप्शन' आंदोलन से जन्मी आप पर अब भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके हैं और इसके नेता अरविंद केजरीवाल की छवि खराब हो चुकी है। दूसरी लोकप्रिय बात यह है कि आप ने अपने पहले कार्यकाल में गरीब तबके के कल्याण के लिए कई वायदे पूरे किए थे - हर घर को 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी की आपूर्ति और मोहल्ला क्लीनिक की स्थापना और सरकारी स्कूलों का उन्नयन। लेकिन दूसरे कार्यकाल में आप सरकार महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा शुरू करने के अलावा कोई काम नहीं कर पाई। उपराज्यपाल और आप सरकार के बीच टकराव को भी इसका एक कारण माना जाता है, लेकिन प्रवृत्ति दोनों दलों पर दोष मढ़ने की है।

इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बढ़ती सत्ता विरोधी भावना के कारण मोदी सरकार की गारंटी के भरोसे आप और भाजपा को चुनावी झटका लगा है और डबल इंजन वाली सरकार ने लोगों का जनादेश हासिल किया है। यह सच है कि आप सरकार अपने दूसरे कार्यकाल (2020-25) में अपने कुछ प्रमुख वायदों को पूरा नहीं कर पाई। खासकर मध्यम वर्ग के बीच बिगड़ते बुनियादी ढांचे - सड़क, सीवरेज, कचरा निपटान और पानी की आपूर्ति को लेकर असंतोष है। आप अपने गैर-वैचारिक दृष्टिकोण का शिकार बन गयी है, जिसे उसने अपनी खास शैली बना लिया था। भाजपा और आरएसएस की आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति को हिंदू धार्मिक प्रतीकों और भावनाओं की लगातार अपील करके बेअसर करने की कोशिश की गयी। आप नेतृत्व ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के समर्थन में लगातार रुख अपनाने से परहेज किया, जो हमले के शिकार हुए थे। आप सरकार लगातार दुर्गम होती गयी और श्रमिकों, शिक्षकों और छात्रों सहित लोगों के विभिन्न वर्गों की शिकायतें अनसुनी हो गयीं। अंत में, मोदी सरकार द्वारा झूठे मामले गढ़ने के कारण नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री आवास के महंगे जीर्णोद्धार के कारण आप की स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा। भाजपा के 'शीश महलÓ अभियान ने मतदाताओं के एक वर्ग को कुछ हद तक प्रभावित किया।

इन सभी बातों को स्वीकार करने के बाद भी चुनावी नतीजों में मुख्य कारक - मोदी सरकार और आप सरकार और उसके नेतृत्व पर भाजपा का एकतरफा हमला- को कम करके आंका जा रहा है या अनदेखा किया जा रहा है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जो कुछ हुआ है, वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है।

असंवैधानिक साधनों का सहारा लेकर केंद्र द्वारा राज्य सरकार पर वास्तविक कब्ज़ा कर लिया गया। 1991 में पारित अधिनियम के अनुसार, दिल्ली सरकार की शक्तियां सीमित कर दी गई थीं, जिसमें पुलिस, कानून और व्यवस्था तथा भूमि को उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में लाया गया था। लेकिन 2020 के चुनावों में आप को हराने में विफल रही मोदी सरकार ने प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण दिल्ली सरकार और और उसके मंत्रालय से छीनने की शैतानी योजना शुरू कर दी।

उपराज्यपाल ने अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले की शक्तियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। नौकरशाही ने मंत्रियों की बात सुनना बंद कर दिया और इसके बजाय उपराज्यपाल के निर्देशों का इंतजार करने लगी। इस आदेश के खिलाफ दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी। मई 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में उपराज्यपाल की शक्तियों को खत्म कर दिया और कहा कि दिल्ली सरकार के पास सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के विभागों को छोड़कर प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण है। केंद्रीय गृह मंत्री इस फैसले को स्वीकार नहीं कर सके और तुरंत एक अध्यादेश लाया गया जिसमें सेवाओं को उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। इसके बाद इसे दिल्ली एनसीटी अधिनियम के संशोधन के रूप में शामिल किया गया।

इस पूरी अवधि के दौरान, एक तमाशा सामने आया जिसमें नौकरशाह न केवल मंत्रियों की बात अनसुनी करते थे, बल्कि अक्सर मंत्रियों द्वारा दिये गये निर्देशों के खिलाफ काम करते थे। उपराज्यपाल और वरिष्ठ नौकरशाहों ने मंत्रियों के खिलाफ आरोप तय करने में मिलीभगत की।

इसके अलावा पहले एक वरिष्ठ मंत्री की गिरफ्तारी भी हुई। फिर उपमुख्यमंत्री और अंत में मुख्यमंत्री को भी जेल भेज दिया गया। पानी जैसी कई आवश्यक आपूर्तियां केंद्र द्वारा शक्तियों के हड़पने का शिकार बन गयीं। उदाहरण के लिए, दिल्ली विधानसभा ने फरवरी 2024 में बजट आवंटन में दिल्ली जल बोर्ड के लिए 3,000 करोड़ रुपये पारित किये थे। यह विधानसभा द्वारा कानून के रूप में पारित एक बजट प्रावधान था। फिर भी वित्त सचिव ने इन निधियों को जल बोर्ड में जाने से रोक दिया। दिल्ली सरकार को इस मामले में राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा।

इसलिए सरकार का पक्षाघात और वरिष्ठ सिविल सेवकों द्वारा आप सरकार के विरुद्ध कार्य करना राज्य सरकार पर एक बोझ बन गया। यह वही अपराध है जो मोदी सरकार ने किया था, जिसे अब उसने भुनाया है, जबकि आप ने गैर-प्रदर्शन की कीमत चुकाई है।

किसी ने सोचा होगा कि दिल्ली में यह चुनावी लड़ाई सभी धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों के लिए एक संयुक्त चुनावी दंगल का आह्वान होगी ताकि वे लोकतंत्र और संघवाद पर भाजपा के नापाक हमले को हराने के लिए एक साथ आ सकें। परन्तु ऐसा नहीं हुआ, और न ही आप इस अभियान को लोगों के बीच शक्तिशाली रूप से ले जा सकी।
इन चुनावों में कांग्रेस के रुख की आलोचना भारतीय जनता पार्टी और उसके अन्य सहयोगी दलों द्वारा सही ही की जा रही है। कांग्रेस का चुनाव अभियान आप को हराने और उसके नेता केजरीवाल को भ्रष्ट व्यक्ति के रूप में पेश करने पर अधिक केंद्रित था। इस अभियान की दिशा खुद राहुल गांधी ने तय की। इसके अलावा, कांग्रेस पार्टी, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में केवल 4.26 प्रतिशत वोट हासिल किये थे, को विधानसभा की सभी 70 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था, जबकि आप के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता था।

आप की हार का मुख्य कारण जहां आप से बहुत अधिक वोटों का दूर जाना है, वहीं यह भी एक तथ्य है कि जिन 13 सीटों पर आप हारी, वहां कांग्रेस को हार के अंतर से अधिक वोट मिले। आप के नेता - केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सौरभ भारद्वाज - सभी कांग्रेस को मिले मतों से कम अंतर से हारे।
हालांकि परिणाम धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक विपक्ष के लिए निराशाजनक है, लेकिन तथ्य यह है कि लगभग 44 प्रतिशत मतदाताओं ने आप को वोट दिया, जिनमें से अधिकांश गरीब वर्ग के लोग और महिलाएं थीं।


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