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बदलावों में ही संविधान की रमणीयता है

भारतीय संविधान ने अपने लिये जो जिम्मेदारियां तय की हैं

बदलावों में ही संविधान की रमणीयता है
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- डॉ. दीपक पाचपोर

समयानुसार हुए इन्हीं संशोधनों ने हमारे संविधान को गतिशील और नया-नवेला बनाये रखा है। यदि अब तक हुए संशोधनों की सूची पर नज़र डालें तो स्पष्ट हो जायेगा कि इन्हीं के कारण संविधान प्रासंगिक और उपयोगी बना हुआ है। आधुनिक विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की उसकी क्षमता इन्हीं संशोधनों की वजह से है।

भारतीय संविधान ने अपने लिये जो जिम्मेदारियां तय की हैं, उनमें देश के भीतर एक सुगठित राजनीतिक प्रणाली बनाने, सरकार के कामों का निर्धारण, शक्ति पृथक्करण कर विभिन्न अंगों के बीच संतुलन बनाये रखने, नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करने, नीति निर्देशक तत्वों के अनुरूप राज्य को परिचालित करने आदि जैसे महती उत्तरदायित्व तो हैं ही, जो कि दुनिया भर के ज्यादातर लिखित-अलिखित अथवा छोटे-बड़े संविधानों में भी तय किये गये हैं; परन्तु दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य भारत के संविधान ने अपने लिये चुने हैं। पहला है एक कल्याणकारी राज्य का सृजन और दूसरे, मानवीय गरिमा को स्थापित करना। संविधान पिछले लगभग 75 वर्षों से अपने इन दोनों उद्देश्यों को हासिल करने में लगभग कामयाब रहा है। देश ने केन्द्र के साथ राज्यों में कई तरह की सरकारें देखी हैं- अच्छी और बुरी, बहुमत वाली और अल्पमत की भी, कठोर व उदार या फिर मध्यमार्गी। उनकी वैचारिक पृष्ठभूमियां भी अलग-अलग रहीं। फिर भी किसी भी सरकार ने (केन्द्र की हों या सूबों की) संविधान से ऐसी छेड़छाड़ करने का कभी प्रयास नहीं किया जिसके कारण हमारा राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक ढांचें चरमरा जायें।

इस मायने में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार सबसे अलग निकली। चाहे वह खुद इसी संवैधानिक प्रणाली की उपज हो लेकिन उसने 2014 के पहले से ही इसके लिये ऐसा कुछ करना शुरू कर दिया था कि मौका मिले और वह संविधान का बैंड बजा दे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही मनुस्मृति का समर्थक रहा है। उसका सपना रहा कि जब भी वह सत्ता में आये, इस संविधान को दफ़ा कर मनुस्मृति लागू कर दे। इसका मौका देशवासियों ने कभी नहीं दिया। न जनसंघ और न ही भाजपा के रूप में वह कभी इतनी सक्षम हो पायी कि डॉ. बीआर अंबेडकर रचित संविधान को रद्द कर अपनी मान्यताओं के अनुरूप या मनुस्मृति आधारित ऐसा दस्तावेज़ दे सके जो देश को परिचालित करे। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार में उसकी भागीदारी ऐसी नहीं थी कि वह संविधान की ओर देखने की भी हिम्मत कर सके। पक्ष और विपक्ष में ऐसे अनेक बड़े नेता और उनकी पार्टियां थीं जो सजगता से संविधान की रक्षा में तैनात रहीं। उसके बाद 13 दिन, 13 माह और अंतत: पूरे पांच वर्षों की केन्द्र में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारें ज़रूर बनीं परन्तु वे अनेक पार्टियों के भरोसे थीं। इसलिये संविधान साफ-साफ बच निकला।

अलबत्ता 2014 के लोकसभा चुनाव के काफी पहले से जिस ढंग से मोदी और भाजपा ने कांग्रेस पर हमले किये, साफ हो गया था कि पूरी व्यवस्था में जिस सुधार की बात की जा रही है, वह दरअसल संविधान में बदलाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। कांग्रेस की यात्रा में पहले आजादी का संग्राम उसका साथी था, तो स्वतंत्रता के पश्चात संविधान उसका हमसफर बना। भारत के वैविध्यपूर्ण सामाजिक ढांचे के अनुकूल एक ऐसा संविधान देने में अंबेडकर सफल रहे जो करोड़ों लोगों का उत्थान, एक मजबूत व प्रगतिशील राष्ट्र सुनिश्चित कर सके। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में पहली सरकार ने उसे प्रसन्नतापूर्वक लागू किया। यह पवित्र ग्रंथ ही पिछले साढ़े सात दशकों से किसी मशाल की भांति भारत का पथ प्रदर्शन करता रहा है।

भाजपा-संघ की विचारधारा इस संविधान के ताप को बर्दाश्त करने में नाकाबिल थी। जब इसे लागू किया गया तभी इसके बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुखों की ओर से कहा गया कि 'इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।' उनके अनुसार मनुस्मृति ही भारतीय व्यवस्था को संचालित करने वाली संहिता हो सकती है। दूसरी तरफ़, गांधी के 'हिन्द स्वराज्य' और नेहरू की भारतीय परिवेश के अनुकूल परिमार्जित की गयी समाजवादी अवधारणा से जो रसायन तैयार हुआ वह भारत के समग्र विकास के लिये रामबाण साबित हुआ। इस काढ़े को पीकर भारत में मनुस्मृति पर आधारित समाज से उपजने वाली तमाम तरह की व्याधियों से भी लड़ने की ताकत पैदा हुई। इसलिये हिंदू महासभा, संघ और उनके जैसे संगठनों व वैचारिक बुनावट वाले लोगों के लिये आवश्यक था कि कांग्रेस को कोसें, स्वतंत्रता आंदोलन की गौरवशाली विरासत को लांछित करें तथा राष्ट्रनायकों को अपमानित करें। इससे तैयार हुई मानसिकता ने संविधान के श्रेष्ठ तत्वों पर हमले किये।

भाजपा के वर्तमान नेताओं और काडर की ओर से संविधान का जो सतत अपमान किया जाता रहा है, उसे नयी ऊर्जा मिली मोदी के पीएम बनने से। उनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान गुजरात की जो दशा हुई, वह झलक मात्र थी कि मोदी के जरिये भाजपा देश का कैसा स्वरूप चाहती है। पहले कार्यकाल (2014-19) में तो स्थिति ऐसी नहीं थी कि संविधान की सीधे तौर पर अवमानना की जा सके। हालांकि विपक्ष कमजोर था। दूसरे कार्यकाल (2019-2024) के दौरान मोदी की नीतियों ने जैसा बदहाल भारत को किया, वह वातावरण राज्य के शक्तिशाली होने के उपयुक्त था। हुआ भी ऐसा ही। 2016 में नोटबन्दी के सनकपूर्ण और अदूरदर्शी निर्णय ने भारतीयों को पूर्णत: विपन्न कर दिया। जीएसटी समेत अनेक दोषपूर्ण फैसलों ने भी जनता को और शक्तिहीन किया। भाजपा छोड़कर ज्यादातर राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के काबिल नहीं रह गये क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं। विरोधियों को केन्द्रीय जांच एजेंसियों के जरिये डरा-धमकाकर निर्वाचित सरकारें गिराई जाती रहीं। फिर भी कहीं हार की गुंजाइश हो तो ईवीएम का खेल किया जाता है। इन्हीं के बल पर भाजपा आश्वस्त थी कि उसे 2024 के लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। पार्टी का असली मंतव्य सामने आया। ज्योति मिर्धा, अनंत हेगड़े, अरुण गोविल, टी राजा सिंह जैसों ने कहा कि मोदी को 400 सीटें चाहिये ताकि संविधान को बदला जा सके।

नतीजे अलग आये। मोदी को दो दलों (तेलुगू देसम पार्टी और जनता दल- यूनाइटेड) के भरोसे सरकार बनानी पड़ी। इस बीच राहुल गांधी और कांग्रेस ने संविधान को प्रमुख विमर्श बना डाला। अब मोदी और भाजपा खुद को संविधान के सबसे बड़ा रक्षक साबित करने पर तुले हुए हैं। अब तक संविधान के श्रेष्ठ तत्वों- धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता, बन्धुत्व आदि को पानी पी-पीकर कोसने वाली भाजपा उन्हें बचाने पर तुली है। वैसे लोक कल्याणकारी राज्य और मानवीय गरिमा से भाजपा को परहेज है। इसलिये उसका संविधान का विरोध है, पर उसके प्रति प्रेम दिखाना उसकी हालिया ज़रूरत है। उसकी लाचारी का आलम यह है कि उसे संसद में 'संविधान की गौरवशाली यात्रा' पर विशेष बैठकें करनी पड़ी हैं। लोकसभा में प्रियंका गांधी ने कहा कि 'यदि नतीजे ऐसे नहीं आते तो अब तक संविधान बदलने का कार्य शुरू भी चुका होता।' यह सच है। इसलिये विशेष बैठकें प्रहसन मात्र साबित हुईं क्योंकि मोदीजी ने जिस अंदाज में अपना फोकस कांग्रेस की आलोचना पर बनाये रखा और विभिन्न संशोधनों को 'कांग्रेस के मुंह पर लगा खून का स्वाद' बताया, उससे साफ है कि मोदी को भारतीय संविधान की रत्ती भर समझ नहीं है।

समयानुसार हुए इन्हीं संशोधनों ने हमारे संविधान को गतिशील और नया-नवेला बनाये रखा है। यदि अब तक हुए संशोधनों की सूची पर नज़र डालें तो स्पष्ट हो जायेगा कि इन्हीं के कारण संविधान प्रासंगिक और उपयोगी बना हुआ है। आधुनिक विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की उसकी क्षमता इन्हीं संशोधनों की वजह से है। फिर चाहे वह विभिन्न राज्यों का विलय या उन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा देना हो; अथवा कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण अथवा पंचायती राज से लेकर मतदान की आयु घटाना। इसमें हुए संशोधन इसे नूतनता प्रदान करते हैं। महाकवि माघ अपने महाकाव्य 'शिशुपाल वध' में कहते हैं- 'क्षणै क्षणै यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया'। अर्थात जो चीज़ हर पल नयी होती है वही सुन्दर या रमणीय होती है। बदलावों में ही जीवन की रमणीयता है। संविधान की भी।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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