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आत्मनिर्भर खेती की पहल

अब रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आ गए हैं। देश के किसान भी अब इसे बखूबी समझ गए हैं

आत्मनिर्भर खेती की पहल
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- बाबा मायाराम

यह बदलाव की कहानी है पिछली कुछ सालों से चल रही है। देसी बीज सुरक्षा मंच के संयोजक सरोज भाई व कार्यकर्ता दशरथी बेहरा ने बताया कि वर्ष 2013 में इस मंच की स्थापना हुई। हालांकि अनौपचारिक रूप से इसकी प्रक्रिया पहले शुरू हो गई थी। इस काम को आगे बढ़ाने में प्रगतिशील किसान, गैर सरकारी संगठन ने योगदान दिया है।

अब रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आ गए हैं। देश के किसान भी अब इसे बखूबी समझ गए हैं। इसी के मद्देनजर ओडिशा में देशी बीज सुरक्षा मंच काफी सक्रिय है। हर साल देसी बीज मेला भी आयोजित किया जाता है। उनकी इस पहल से कई किसान जुड़ रहे हैं। मैं कई बार ओडिशा गया हूं और इस मंच के सक्रिय कार्यकर्ताओं से मिला हूं। आज इस कॉलम में जैविक खेती की अनूठी पहल पर चर्चा करना उचित होगा, जिससे इस पहल को समग्रता से समझा जा सके।
यह बदलाव की कहानी है पिछली कुछ सालों से चल रही है। देसी बीज सुरक्षा मंच के संयोजक सरोज भाई व कार्यकर्ता दशरथी बेहरा ने बताया कि वर्ष 2013 में इस मंच की स्थापना हुई। हालांकि अनौपचारिक रूप से इसकी प्रक्रिया पहले शुरू हो गई थी। इस काम को आगे बढ़ाने में प्रगतिशील किसान, गैर सरकारी संगठन ने योगदान दिया है।

मंच के संयोजक सरोज भाई ने बताया कि मंच का उद्देश्य देसी बीजों की सुरक्षा और संवर्धन करना है। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना, बाजार पर निर्भरता को कम करना और समाज व किसान को आत्मनिर्भर बनाना है। भोजन में पोषणयुक्त खाद्य शामिल करना है। ऋणमुक्त किसान और जहरमुक्त अनाज करना है, जिससे समाज स्वस्थ बने और किसानी बची रहे।

जब मैं पिछले साल ओडिशा के बरगढ़ शहर गया तो मंच के कार्यकर्ता दशहरी बेहरा से लंबी बातचीत हुई थी। उन्होंने मुझे बीज बैंक दिखाया था, और खेती से जुड़ा साहित्य व पोस्टर प्रदर्शनी दिखाई थी। उन्होंने बताया कि मंच के प्रयासों से पौष्टिक अनाजों की खेती की ओर भी किसानों का ध्यान गया है और वे इनकी खेती कर रहे हैं।
कुछ साल पहले मुझे दशहरी बेहरा के साथ रायगड़ा जिले का दौरा करने का मौका मिला था, वहां हमने मिश्रित खेती करने वाले कई किसानों से बातचीत की थी। पौष्टिक अनाजों की खेती करने वाले आदिवासियों के खेत देखे थे। मंच अपने वार्षिक कार्यक्रमों में किसानों को जोड़ने के लिए प्रयासरत है।

देसी बीज सुरक्षा मंच ने प्राकृतिक जैविक खेती को बढ़ावा दिया है। इसके तहत किसानों को केंचुआ खाद, हांडी खाद और जैव कीटनाशकों को तैयार करने का प्रशिक्षण दिया है। इससे खेती में लागत खर्च कम हुआ है, मिट्टी में सुधार हुआ है, और उत्पादन बढ़ा है। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए इलाके में प्रशिक्षणकर्ता तैयार किए हैं, जो किसानों को जैविक खाद व जैव कीटनाशक तैयार करने के लिए प्रशिक्षण देते हैं।

इसके अलावा, समुदाय आधारित 20 बीज बैंक बनाए गए हैं। इनमें 1300 धान की देसी किस्में, 90 सब्जी के देसी बीज, 10 दलहन के बीज शामिल हैं। इसके साथ ही 10 स्कूलों में किचन गार्डन का काम किया जा रहा है। इसे स्कूली पाठ्यक्रम से भी जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस मंच से गैर सरकारी संस्थाएं, जैविक खेती करने वाले किसान और जागरूक नागरिक जुड़े हैं। यहां के मीडिया ने भी इस खेती के प्रचार-प्रसार में मदद दी है।

जैविक खेती के किसान सुदाम साहू बताते हैं कि वे बहुत कम उम्र से खेती करने लगे थे। जब वे 7 वीं कक्षा में पढ़ते थे, तब से उनके मां-बाप के साथ खेती सीख रहे थे। पर रासायनिक खेती में उनका मन नहीं लगता था। उसमें नुकसान भी हो रहा था तब देसी बीज सुरक्षा मंच से संपर्क हुआ। और इसके बाद उन्होंने वर्धा (महाराष्ट्र में गांधी जी की कर्मस्थली) में हांडी जैव खाद बनाने का प्रशिक्षण लिया। गाय का ताजा गोबर, महुआ फूल, गुड़ आदि को मिलाकर इसे तैयार किया जाता है।

इसी प्रकार, जैव कीटनाशक बनाने की विधियां सीखी। हालांकि वे कहते हैं कि देसी बीजों की फसलों में ज्यादा कीट नहीं लगते। उनमें मौसम बदलाव के दौर में भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता होती है।

उन्होंने गांव में देसी बीज बैंक भी बनाया है, जिसमें देसी धान की 1000 किस्में संग्रहित हैं। वे उनकी फसल को जैविक बाजार में बेचते हैं। बरगढ़ में जैविक बाजार भी शुरू हुआ है, जो सप्ताह में दो दिन लगता है। इसके अलावा, उनके घर खेत से लोग उनसे धान बीज खरीद लेते हैं। बीज के लिए बाहर से भी मांग होती है। उनके पास काले चावल की 14 किस्में हैं और लाल चावल की 60 किस्में हैं। कुछ नकदी के लिए चावल बनाकर बेचते हैं।

घिंडौलमाल गांव के ब्रम्हा बताते हैं कि वे खेत में देसी धान लगाते हैं जिनमें जगन्नाथ भोग, रागिनी सुपर धान किस्में शामिल हैं। जैव कीटनाशक खुद बनाते हैं। ब्रम्हास्त्र, बज्रास्त्र, जीवामृत, घना जीवामृत। खेतों में कीट लगने पर इनका छिड़काव करते हैं। उन्होंने सब्जियों की खेती भी की है। टमाटर, बैंगन, सहजन, पपीता, नींबू लगाया है। जिससे ताजी हरी सब्जियां मिले व पोषणयुक्त भोजन मिले।

सुंदरगढ़ जिले के धरवाडीह के सूरतराम बताते हैं कि वर्ष 2012 से जैविक खेती कर रहे हैं। उनका 5 एकड़ खेत है। जिसमें वे अलग-अलग फसलें लगाते हैं। जमीन के एक टुकड़े में उन्होंने 70 देसी धान की किस्में लगाई हैं। इसमें से कुछ कुसुमकली, रागिनी सुपर और सोनाकाठी का चावल बेचते हैं। इन किस्मों की बाजार में मांग है।
वे खेत की जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए धनधा (हरी खाद) उगाते हैं। और थोड़ा बड़ा होने पर उसे खेत की मिट्टी में मिला देते हैं, जिससे वह जैव खाद में तब्दील हो जाती है। और जमीन उर्वर बनती है।

उन्होंने बताया कि 1 एकड़ धान की खेती में लगभग 9 हजार का लागत खर्च आता है। और 11-12 च्ंिटल धान उत्पादन होता है। कुसुमकली धान की किस्म में उत्पादन ज्यादा होता है, जो 14-15 क्विंटल तक पहुंच जाता है। उनके उत्पाद की साख बन गई है, उनका जैविक चावल घर से ही बिक जाता है। अब धीरे-धीरे जैविक खेती का चलन बढ़ रहा है।

इसके साथ ही हमें किसानों को इस दिशा में भी प्रोत्साहित करना चाहिए कि खेती की ऐसी तकनीक अपनाई जाए जिससे बाहरी निर्भरता कम से कम हो और स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर अधिक जोर दिया जाए। सूखे व प्रतिकूल मौसम में परंपरागत बीजों में सूखे व प्रतिकूल मौसम सहने की क्षमता होती है। किसानों ने सैकड़ों पीढ़ियों से तरह-तरह के गुणधर्म वाले देसी बीज तैयार किए हैं। यह हमारी विरासत है। देसी बीजों की जैविक खेती ही इसका अच्छा उदाहरण है।

कुल मिलाकर, ओडिशा में देसी बीज सुरक्षा मंच की पहल ने किसानों को जैविक खेती की ओर मोड़ा है। उन्हें जैव खाद व जैव कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण दिया है। देसी बीज बैंक बनाए हैं, जिससे देसी बीजों की सुरक्षा के साथ-साथ उनका संवर्धन भी हो रहा है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण भी हो रहा है और खेती में लागत खर्च कम हो रहा है। और लोगों को जैविक उत्पाद व जैविक भोजन उपलब्ध हो रहा है। किसान आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं।

इसके अलावा, जैविक खेती का विस्तार किचन गार्डन ( सब्जी बाड़ी) तक हुआ है। स्कूली बच्चों को जोड़ा गया है जो महत्वपूर्ण है। पर्यावरण शिक्षा की तरह कृषि शिक्षा भी बच्चों को दी जानी चाहिए, जिससे वे हमारी खेती को, पर्यावरण को, शरीर की बुनियादी जरूरत संतुलित भोजन को समझ सकें।

इस काम में कुुछ चुनौतियां भी सामने आई हैं, जैसे जैविक उत्पादों का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है। जिस दाम पर रासायनिक कृषि उत्पाद बिकते हैं, उसी दाम पर जैविक कृषि उत्पाद बिकते हैं। इस दिशा में नीतिगत बदलाव होने से किसान इससे लाभांवित होंगे।


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