कांग्रेस में फेरबदल: क्या पार्टी को नुकसान पहुंचाने वालों को हटाया जाएगा?
आल इंडिया कांग्रेस कमेटी ( एआईसीसी) के पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। लंबे समय बाद यह काम हो रहा है इसलिए उम्मीद थी कि एक बार में पूरी तरह होगा

- शकील अख्तर
राहुल के लिए और उनसे ज्यादा पार्टी के लिए यह समय थोड़ा भूमिकाओं को पुनर्निधारित करने का है। मल्लिकार्जुन खरगे एक अध्यक्ष के तौर पर बहुत सही काम कर रहे हैं। खासतौर से समन्वय का। सबकी सुन रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष और पार्टी अध्यक्ष दो ही सबसे बड़े पद हैं। लोग दोनों जगह जाकर स्थिति भांपने की कोशिश करते हैं।
आल इंडिया कांग्रेस कमेटी ( एआईसीसी) के पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। लंबे समय बाद यह काम हो रहा है इसलिए उम्मीद थी कि एक बार में पूरी तरह होगा। लेकिन शायद इसके लिए बहुत मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। राहुल गांधी के पास है मगर वह प्रधानमंत्री मोदी भाजपा संघ के सामने। अपनी पार्टी में वह मजबूत नेता की तरह आते नहीं दिख रहे। और अब जब सब कुछ उनके हाथ में है तब भी अगर वे पार्टी में मजबूत नेता के तौर पर काम नहीं करते तो कांग्रेस को मान लेना चाहिए कि राहुल इन्दिरा गांधी या आज की बात करें तो प्रतिद्वन्दी मोदी की तरह, अपनी पार्टी चलाने के इच्छुक नहीं हैं, अब पार्टी को ही उन्हें उनकी तरह चलाना होगा। उनकी तरह चलाने से क्या मतलब है? पहले यह स्पष्ट कर दें!
राहुल व्यक्तिगत रूप से हजारों किलोमीटर जैसी मुश्किल दो-दो यात्राएं, बेशुमार लोगों से मिलना, विभिन्न कामकाजी वर्गों के पास जाना उनके काम और जिन्दगी के बारे में समझना, पिता राजीव गांधी की तरह नई टेक्नालॉजी एआई, ड्रोन से भारत के भविष्य बनाने की बात करना, किसी खतरे से नहीं घबराना जैसे वाले आदमी हैं। नेताओं का वह मिजाज उनका नहीं है कि सब कुछ खुद करना है। अपने कंट्रोल में रखना है।
नहीं है तो नहीं है! हालांकि आज इस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है। भाजपा में तो मोदी ही मोदी हैं। उनके अलावा और कोई कुछ नहीं है। ऐसे ही बाकी पार्टियों में भी। टीएमसी में ममता बनर्जी हैं। सपा में अखिलेश यादव। राजद में लालूप्रसाद यादव। सब जगह एक व्यक्ति जो उसका सबसे बड़ा नेता है वही सर्वेसर्वा है। जदयू में अब नीतीश कुमार का कंट्रोल नहीं रहा तो नीचे गिरते हुए दिखने लगी। बाकी एक नेता की जिन पार्टियों का जिक्र किया वे अपने-अपने में मजबूत हैं।
तो आज की देश की परिस्थितियां ऐसी हैं कि वहां पार्टी के आन्तरिक लोकतंत्र के सवाल का कोई मतलब नहीं है। मुख्य बात है आपकी पार्टी कितना मजबूत हो रही है। राहुल गांधी पार्टी में लोकतंत्र की स्थापना करते रहें लेकिन जब देश में ही वह कमजोर किया जा रहा है जिसे खुद राहुल कहते हैं तो वह किसी पार्टी में कितना रहेगा। मतलब पार्टी रहेगी तो आन्तरिक लोकतंत्र और दूसरे सिद्धांत रहेंगे। पहली बात पार्टी को मजबूत करना है।
तो इन परिस्थितियों में कांग्रेस को यह सोचना होगा कि वह राहुल का बेहतर इस्तेमाल कैसे कर सकती है। संगठन जैसे काम अगर उनकी रूचि का विषय नहीं है तो उसमें उनकी राय ली जाए मगर भूमिका सीमित रखी जाए।
कहना आसान है। मगर करना बहुत टिपिकल। वैसे राहुल अहंवादी व्यक्ति नहीं हैं। टीम के हिसाब से खेल सकते हैं। मगर कोई खिलाने वाला होना चाहिए। जो कांग्रेस में चाणक्य की बात की जाती है वह इसीलिए। मगर आजकल चाणक्य कहां मिलते हैं। मैनेजर होते हैं। और मैनेजर अपना फायदा देखते हैं। कांग्रेस के सबसे पुराने और बड़े मैनेजर गुलामनबी आजाद रहे। तमाम राज्यों के प्रभारी रहे। काम हाईकमान का नाम लेकर करते थे मगर प्रचार यह कि उनकी राजनीतिक क्षमता है। आज मालूम पड़ गई राजनीतिक क्षमता!
पार्टी में एक आदमी नहीं बचा। खुद ही झोला झंडा सब उठाना पड़ रहा है। ऐसे ही बीजेपी में एक हुए थे-प्रमोद महाजन। वाजपेयी जैसे जमीनी नेता को भरोसा दिला दिया कि इंडिया इज शाइनिंग! और जल्दी चुनाव करवाकर हरवा दिया। वाजपेयी जी ने जिन्दगी भर विपक्ष की राजनीति की। पुरानी अम्बेसडर में देश भर की सड़कों की खाक छानी। मगर मैनेजर के चक्कर में वे भी आ गए और छह महीने पहले चुनाव करवा दिए। प्रधानमंत्री मोदी की सफलता का एक बड़ा कारण यह है कि कोई मैनेजर नुमा नेता उनके आसपास नहीं है।
वाजपेयी जैसे दूसरे जमीन से जुड़े नेता मुलायम सिंह यादव भी अमर सिंह जैसे मैनेजर के कारण 2007 का चुनाव हारे थे। पहली बार मायावती पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई थीं। उसके बाद अखिलेश यादव ने जब अमर सिंह का ठीक से इलाज किया तब वे 2012 में सपा को फिर सत्ता में ला पाए थे। इसलिए राजनीति में मैनेजरों से बचने की बहुत जरूरत है। चाणक्य होना चाहिए। लेकिन असली जो अपने हितों को नहीं देखे पार्टी और नेता को आगे बढ़ाने की सोचे। अर्जुन सिंह जैसा। सोनिया गांधी को कांग्रेस में सक्रिय करने और 1998 में अध्यक्ष बनाने से लेकर 2004 की केन्द्र की सत्ता में वापसी तक अर्जुन सिंह की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन बाद में खुद उनको ही अलग थलग कर दिया गया। लेकिन वे आखिरी तक पार्टी और परिवार के प्रति अपनी वफादारी बनाए रखते हुए ही इस दुनिया से गए। टीवी की दर्जनों ओबी वेन उनके घर के सामने महीनों खड़ी रहीं कि वे राजीव गांधी के खिलाफ कुछ बोल दें मगर वे एक शब्द नहीं बोले।
तो राहुल के लिए और उनसे ज्यादा पार्टी के लिए यह समय थोड़ा भूमिकाओं को पुनर्निधारित करने का है। मल्लिकार्जुन खरगे एक अध्यक्ष के तौर पर बहुत सही काम कर रहे हैं। खासतौर से समन्वय का। सबकी सुन रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष और पार्टी अध्यक्ष दो ही सबसे बड़े पद हैं। लोग दोनों जगह जाकर स्थिति भांपने की कोशिश करते हैं। कांग्रेसी तो इस काम के लिए प्रसिद्ध हैं। अभी जैसे ऊपर बताया अर्जुन सिंह जैसे सोनिया और परिवार के वफादार को आरोपित कर दिया गया था। राहुल के बारे में उनके विचारों को चापलूसी तक कह दिया। और वह भी बाकायदा प्रेस कान्फ्रेंस करके प्रेस नोट निकालकर। 2007 में राहुल के महासचिव बनने के बाद कौन नहीं चाहता था कि वे और बड़ी भूमिका में आएं। लेकिन अर्जुन सिंह को इस के लिए चापलूस बना दिया। कांग्रेसियों ने ही।
लेकिन अभी खरगे और परिवार के बीच नाइत्तफाकी पैदा करने का कलाकारों को कोई मौका नहीं मिल रहा है। खरगे की राहुल के साथ ट्यूनिंग बहुत अच्छी है। लेकिन पार्टी के लिए कुछ और चीजें होना भी जरूरी हैं। खासतौर से संगठन के लिए। और इनमें सबसे जरूरी है नेताओं पर पार्टी का डर। वह सिरे से गायब है। प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका जाने से पहले नेहरू और राहुल पर खूब बरसे।
लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर मोदी की अमेरिकी यात्रा की प्रशंसा कर रहे हैं। गुटबाजी तो हर राज्य में है। उसकी वजह से कांग्रेस राजस्थान, हरियाणा जैसे जीते हुए प्रदेशों में विधानसभा चुनाव भी हार रही है मगर इसके दोषी नेताओं पर अभी तक तो कोई गाज गिरी नहीं। आगे देखते हैं अभी फेरबदल का काम काफी बाकी है
तो पार्टी में यह सख्ती का काम कौन करेगा। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आन्तरिक लोकतंत्र है। याद रखना चाहिए कि इसी अनियंत्रित आन्तरिक लोकतंत्र जो बिल्कुल गैर जिम्मेदारी में बदल गया था, ने पार्टी को 2014 का लोकसभा चुनाव ऐसा हरवाया कि अभी तक वापसी नहीं हो पाई है।
तो जो हमने शुरू में कहा कि यह पार्टी को समझना पड़ेगा कि अनुशासन का डंडा हाथ में लेने का काम राहुल नहीं कर सकते। लेकिन अगर शायद कोई दूसरा चलाए तो राहुल चुप रह सकते हैं। कांग्रेस को वही दूसरा, पार्टी को नुकसान पहुंचाने वालों को सही करने वाला, ढूंढना होगा। क्या खुद खरगे कर सकते हैं? प्रियंका हो सकती हैं? कांग्रेस को देखना होगा।
राहुल कहते हैं पार्टी छोड़कर चले जाएं! खुद से जाता कोई नहीं है। अभी पुनर्गठन में मौका है। निकालें। अभी जो पहली लिस्ट आई है उसमें कुछ के महासचिव और इंचार्ज के पद लिए हैं मगर वह अनुशासन के मामले नहीं है।
राजीव शुक्ला, दीपक बावरिया, मोहन प्रकाश, अजोय कुमार सबके अलग-अलग मामले हैं। असली चीज होगी उन पर कार्रवाई जो नेतृत्व की परवाह ही नहीं करते हैं। उसी से पता चलेगा कि पार्टी आगे कितनी दम से चलेगी।


