जदयू के भविष्य पर सवाल
1999 से अस्तित्व में आया जनता दल यूनाइटेड अब कब तक कायम रह पाएगा, उसका भविष्य क्या होगा

1999 से अस्तित्व में आया जनता दल यूनाइटेड अब कब तक कायम रह पाएगा, उसका भविष्य क्या होगा, ये सवाल अब बिहार चुनाव के वक्त उठने लगे हैं। 2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू सत्ता में बना हुआ है, बीच में थोड़े अंतराल के लिए नीतीश सरकार हटी, लेकिन फिर भी दो दशकों से बिहार की राजनीति जदयू और नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। इससे पहले लालू प्रसाद लंबे वक्त बिहार की राजनीति के केंद्र में रहे और वे अब भी प्रासंगिक बने हुए हैं। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल ने 2020 के चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया था, जिसमें नीतीश कुमार ही पिछड़ गए थे। अगर भाजपा का साथ नहीं होता तो शायद नीतीश कु मार को सत्ता भी नहीं मिलती। तेजस्वी यादव अब भी जदयू और भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं। चुनाव में चाहे राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन की हार हो या जीत हो, लालू यादव और तेजस्वी यादव हर हाल में प्रासंगिक बने रहेंगे, क्योंकि भाजपा के खिलाफ वे मजबूती से डटे हैं। जबकि नीतीश कुमार भाजपा के आगे इतना झुक चुके हैं कि अब धराशायी होने के ही आसार उनके लिए बने हैं।
भाजपा का इतिहास भी इसकी गवाही देता है कि जो क्षेत्रीय दल उसके मुकाबले मजबूत होता है, उसे गठबंधन में साथ लेकर भाजपा पहले उसे कमजोर करती है, न कर पाए तो उसे भीतर से तोड़ती है, या फिर उसका विलय कर लेती है। किसी भी तरह गठबंधन के दल इतने ताकतवर न हो पाएं कि वे अपनी शर्तें भाजपा के सामने रखें, ऐसी रणनीति पार्टी की रहती है। अटल बिहारी वाजपेयी के काल की भाजपा में ऐसा नहीं था, तब क्षेत्रीय दलों का अपना रसूख और जगह बरकरार थे। अब मोदी-शाह युग की भाजपा है। जिसमें हर हाल में बड़ा भाई भाजपा को ही रहना है।
बिहार में पिछले 20 सालों से भाजपा बड़ा भाई बनने का मौका देख रही थी। अब जबकि नीतीश कुमार शारीरिक तौर पर कमजोर हो चुके हैं, जदयू में शरद यादव के कद का कोई दूसरा नेता नहीं है, जो नीतीश कुमार को सही सलाह दे सके, नीतीश के बेटे निशांत कुमार सक्रिय राजनीति में नहीं हैं और राज्य में भाजपा का प्रभाव वाला प्रशासन चल रहा है, ऐसे में नीतीश कुमार को राजनैतिक तौर पर कमजोर करने का मौका भाजपा के हाथ लगा। इस बार सीट बंटवारे में जदयू और भाजपा दोनों ही 101-101 सीट पर चुनाव लड़ेंगी। जबकि चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) 29 सीटों पर, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। पिछले चुनाव में जदयू ने 115 सीटों और भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। कम सीटों पर नीतीश कुमार का मान जाना खुद जदयू के नेताओं के लिए झटका है, उनके लिए बड़े भाई या छोटे भाई बनने से बड़ा सवाल ये है कि अब जदयू बचेगा या नहीं?
सीट शेयरिंग में भाजपा के अलावा केवल चिराग पासवान ही जीते हुए नजर आ रहे हैं, जिन्होंने 30 सीटें मांगी थी और 29 मिल गई हैं। दरअसल चिराग पासवान इस बार बिहार में कई महीनों से तल्ख़ तेवर अपनाए हुए थे। नीतीश सरकार के कामकाज और राज्य की बिगड़ती क़ानून व्यवस्था का सवाल वो उठाते रहे और बीच-बीच में आम सभाएं कर अपनी ताकत मोदी को दिखाते रहे। मोदी को भी अभी ऐसे युवा नेताओं की दरकार है, जो राहुल या तेजस्वी के सामने खड़े हो सकें। चिराग ने पिछले चुनाव में अकेले 135 सीट पर चुनाव लड़ा था और सिर्फर् एक सीट पर जीत दर्ज की थी, वो विधायक भी बाद में जदयू में शामिल हो गए। इस तरह चिराग के पास सीटें एक भी नहीं हैं, लेकिन लोकसभा में उनके पांच सांसद हैं और अभी उन्हें अपने चाचा को कमजोर करते हुए लोजपा के दूसरे गुट को खत्म करके एकछत्र राज भी करना है। इसलिए उन्हें भाजपा की जरूरत है और भाजपा को उनकी। हालांकि चिराग पासवान को अन्य घटक दलों के हालात देखकर इतना सावधान रहना चाहिए कि कल को उनका हश्र भी शिवसेना, अकाली दल जैसा न हो जाए।
वैसे जीतन राम मांझी की 'हम' को भी बीते विधानसभा चुनाव से एक सीट कम मिली, पिछली बार सात सीटों पर मांझी ने उम्मीदवार खड़े किए थे, इस बार वो छह सीटों पर लड़ेंगे। इस बात से वो नाखुश हैं, लेकिन शायद भाजपा के सामने इन्होंने भी हथियार डाल दिए हैं। आरएलएम के उपेन्द्र कुशवाहा का भी यही हाल है। लेकिन इन सबकी स्थिति सत्ता में मामूली भागीदारी की ही रही है, जबकि नीतीश कुमार की स्थिति सत्ता पर काबिज होने वाली थी, जो अब शायद न रहे। एनडीए अगर जीतेगा तब भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन पाएंगे, इसकी संभावनाएं कम हैं। इसी साल फरवरी में मंत्रिमंडल विस्तार में जदयू के एक भी नेता को जगह नहीं मिली, सारे नेता भाजपा के ही थे। उस वक़्त ख़ुद को तसल्ली और मीडिया के सवालों को शांत करने के लिए जदयू के प्रवक्ता बार-बार दोहराते थे कि पार्टी विधानसभा चुनावों में भाजपा से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी, चाहे एक ही सीट ज़्यादा क्यों न हो। लेकिन अभी तो बराबरी का झुनझुना जदयू को पकड़ाया गया है।
वैसे जदयू के 'बड़े भाई' का ओहदा 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही चला गया था, तब जदयू 16 सीटों पर लड़ी थी, और भाजपा 17 सीटों पर। जबकि 2019 में जदयू और भाजपा दोनों ही 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। और 2009 में जदयू बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीट में से 25 सीट लड़ी थी और भाजपा ने 15 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन वह जदयू की मजबूती का दौर था। और अब भाजपा से हाथ मिलाकर जदयू ने अपनी सारी शक्ति उसे सौंप दी है। नीतीश कुमार ने तो सत्ता का सेवन छक कर किया है, मगर अब उनके साथी, कार्यकर्ता सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। भाजपा से दोस्ती और वफादारी का यही हासिल है।


