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टिकाऊ आजीविका के साथ पर्यावरण की रक्षा

खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक हैं। गाय का गोबर खाद से खेत को उपजाऊ बनाते थे और उसके बछड़ों से खेत की जुताई की जाती थी

टिकाऊ आजीविका के साथ पर्यावरण की रक्षा
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- बाबा मायाराम

खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक हैं। गाय का गोबर खाद से खेत को उपजाऊ बनाते थे और उसके बछड़ों से खेत की जुताई की जाती थी। टे्रक्टर और कंबाईन हारवेस्टर के खेत में आने से पषु ऊर्जा को खेती से अलग कर दिया गया है। अब खेत में बैल से जुताई नहीं, टे्रक्टर से की जा रही है। अब गोबर खाद नहीं, हरित क्रांति के संकर बीजों के साथ आए रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है।

पिछले कुछ सालों से खेती में रासायनिक खाद व मशीनीकरण का इस्तेमाल हो रहा है। इसके कई पहलू हैं, जिस पर चर्चा होती रही है। इसका एक पहलू कंबाईन-ट्रेक्टर से खेती भी है। इसका एक असर तो पर्यावरण पर प्रतिकूल असर है, साथ यह मजदूरों की आजीविका से भी जुड़ा हुआ है। फसलों की कटाई एक ऐसा मौका होता है, जब किसान व मजदूरों दोनों में भाईचारा व एकता दिखाई देता है। इसलिए आज इस मुद्दे पर चर्चा करना उचित होगा, जिससे खेती को समग्रता में समझा जा सके।

अक्सर जब हमें खेतों में कंबाईन-हारवेस्टर दिखाई देता है तो उसे समृद्धि और विकास का प्रतीक मानते हैं जबकि हकीकत में इसके कई नुकसान सामने आ रहे हैं। इसके आने से जो रोजगार कटाई और थ्रेसिंग के रूप में मजदूरों को मिलता था उससे वे वंचित हो रहे हैं। कंबाईन -हारर्वेस्टर से कटाई के बाद जो ठंडल छूट जाते हैं उनमें आग लगाने से हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं, भूमि की उर्वर को बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो रहे हैं। जैव-विविधता खत्म हो रही है। खेती की लागत बढ़ रही हैं। आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। एक बड़ा असर धरती के गरम होने का भी हैं। कार्बन गैसों के उत्सर्जन से यह खतरा जुड़ा है। इस समय देष-दुनिया में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है, इसके बावजूद ऐसी मषीनों के उपयोग पर सावधानी नहीं बरती जा रही है।

हाल ही में खेतों धान की कटाई हुई है। मजदूरों की जगह अब कंबाईन हार्वेस्टर से कटाई की जाने लगी है। कटाई के बाद फसलों के ठंडलों को आग लगाई जा रही है। एक तो खड़ी फसलें जल रही है, खेतों और सड़क के किनारे लगे हरे-भरे पेड़ जल रहे हैं। इनमें से कई तो बरसों पुराने पेड़ हैं। इससे खेतों की हरियाली खत्म हो रही है। खेत भी जले- भुने ऊष्मषान की तरह लगने लगे हैं। जबकि खेतों का सौंदर्य देखते ही बनता था। हरे-भरे पेड़-पौधे मन को मोह लेते थे। फसलों के ठंडल जलाने से भूमि को उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु व जीव-जंतु नष्ट हो रहे हैं और भू-जल पर भी असर हो रहा है। जैव विविधता की दृष्टि से यह बहुत बड़ा नुकसान माना जा सकता है। जबकि पहले हाथ से कटाई होती थी तो छोटे ठंडल बचते थे जो खेत की मिट्टी में मिलकर जैविक खाद बनाते थे।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कटाई के समय भूमिहीन मजदूरों केा इससे बहुत रोजगार मिलता था। अब वे बेरोजगार हो गए है और उनके भूखे मरने की नौबत आ गई हैं।

मुझे याद है मेरे पिता धान कटाई के समय अस्थायी रूप से खेत में रहते थे। उनका डेरा वहीं रहता था। वहीं वे धान कटाई करते थे, उसे एक जगह एकत्र करते थे। खेत में ही खलिहान बनाते थे। और बैलों से दाबन करते थे। दाबन यानी धान के ठंडल से दाना निकालने के लिए उस पर बैलों को गोल-गोल घुमाया जाता था। जिससे धान की बालियों से दाना झर जाता था और ठंडल अलग हो जाता था। बाद में अनाज को बोरियों में भरकर घर ले जाया जाता था। और ठंडल, जो पशुओं के चरने के काम आता था। बाद में पशुओं के गोबर से जैव खाद तैयार होती थी। यह चक्र बना रहता था। यानी उस समय ठंडलों को जलाना नहीं पड़ता था। खेती भी श्रम आधारित होती थी।
खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक हैं। गाय का गोबर खाद से खेत को उपजाऊ बनाते थे और उसके बछड़ों से खेत की जुताई की जाती थी। टे्रक्टर और कंबाईन हारवेस्टर के खेत में आने से पषु ऊर्जा को खेती से अलग कर दिया गया है। अब खेत में बैल से जुताई नहीं, टे्रक्टर से की जा रही है। अब गोबर खाद नहीं, हरित क्रांति के संकर बीजों के साथ आए रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इससे हमारी भूमि का उपजाऊपन खत्म होता जा रहा है। भूमि को उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीव व निस्वार्थ भाव से काम करने वाले केंचुए खत्म हो रहे है।

रासायनिक खादों के इस्तेमाल से किसानों के मित्र कीट-पतंगें, पक्षियों व अन्य जीव भी मारे जा रहे हैं। जिससे मिट्टी की उर्वरता नहंी बढ़ पा रही है। किसान बताते हैं कि टे्रक्टरों की जुताई से मिट्टी सख्त हो रही है। जबकि फसल के लिए खेतों की मिट्टी पोली, भुरभुरी और नरम होना जरूरी है।

खेतों में ट्रेक्टर व कंबाईन हारवेस्टर आने से खेती में निर्भरता बढ़ गई। पहले किसान अधिकांष काम खुद करता था। शुरू में तो फावड़ा-कुदाली चलाकर खेती में मेहनत करता। उसे खेती के सभी तरह के कामों की जानकारी थी। हल-बक्खर कितनी गहराई पर चलाना है, खेत को कैसे तैयार करना है, बीज कब बोना है, पानी कब देना है, निंदाई-गुड़ाई कब करना है, कटाई कब करना है, उसे सब मालूम था। संकर बीजों के साथ नया कृषि ज्ञान आया है, जिससे वह अनजान है।

कुछ किसान कहते हैं कि कटाई के समय मजदूर नहीं मिलते, इसलिए हारवेस्टर से कटाई करवाना जरूरी है। लेकिन मजदूरों का कहना है कि अगर उन्हें उचित मजदूरी दी जाए तो मजदूरों की कमी नहीं है। गांव से शहरों की ओर लगातार पलायन हो रहा है दूसरी तरफ गांव में मजदूर नहीं मिलने की बात समझ से परे है। अब उसकी खेती स्वावलंबी की जगह परावलंबी हो गई है। जिसमें हर चीज के लिए उसकी निर्भरता बढ़ती चली जा रही है। ट्रेक्टर के लिए ईंधन और ट्रेक्टर मरम्मत के लिए वह शहरों पर निर्भर हो गया। अगर कभी बिगड़ जाता है तब भी मरम्मत। इससे हो यह रहा है कि छोटे किसानों के लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है, उनकी जमीन छिनती जा रही है। यानी कु ल मिलाकर ऐसी मशीनों का उपयोग किसी भी दृष्टि से उपयोगी नहीं है। न रोजगार की दृष्टि से, न भूमि के उपजाऊपन की दृष्टि से और न खर्च की दृष्टि से और न ही जलवायु की दृष्टि से। खरपतवारनाशकों ने उपयोग ने भी मजदूर और महिलाओं की रोजी-रोटी छीन ली है।

इस सबके मद्देनजर हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना जरूरी हो गया है। खेती-किसानी को ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का साधन बनाने की बजाय भोजन की जरूरत पूरा करने की दृष्टि से करने की जरूरत है। पर्यावरण और मिट्टी को बचाने की जरूरत है। खेतों के आसपास हरे-भरे वृक्षों को बचाने की जरूरत है। मेड़ बंदी और भू तथा जल संरक्षण के साथ ही भूमि का उपजाऊपन बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए। जैविक खेती को अपनाना चाहिए। गोबर-खाद और हल-बक्खर की खेती को अपनाना चाहिए। इसमें टिकाऊपन और पारिस्थितिकीय संतुलन की क्षमता मौजूद है। इससे हमारी जैव-विविधता नष्ट नहंी होती। हमारे यहां मिलवां ( मिश्रित ) फसलों बोने का चलन है। एक साथ कई फसलें बोने से मिट्टी में पोषक तत्व बने रहते हैं। ऐसी विविधीकरण की खेती में बहुत संभावनाएं हैं। और इससे गरीब-किसानों का पेट भी भर सकता है, जो खेती का मुख्य उद्देश्य है। भोजन की जरूरत की दृष्टि से ही खेती विकसित हुई है। खेती एक जीवन पद्धति थी, टिकाऊ थी और इसमें किसानों के साथ मजदूरों की भी भोजन सुरक्षा जुड़ी होती थी। इससे आजीविका के साथ पर्यावरण की रक्षा होती थी। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे।


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