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सेहत के लिए जैविक खेती की पहल

हाल ही में मेरा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में जाना हुआ। यहां गनियारी स्थित जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था का काम स्वास्थ्य सुधार पर है

सेहत के लिए जैविक खेती की पहल
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- बाबा मायाराम

यह बदलाव की पहल साल 2000 में शुरू हुई। जन स्वास्थ्य सहयोग ने अपने करीब एक डेढ़ एकड़ की भाटा (कमजोर) ज़मीन पर बिना रासायनिक वाली जैविक खेती शुरूआत की, जो अब साढ़े चार एकड़ में फैल चुकी है। इसके साथ जिले के कई गांवों के किसान भी इससे जुड़ चुके हैं। आज यहां धान की करीब 4 सौ से अधिक किस्में संग्रहीत हैं।

हाल ही में मेरा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में जाना हुआ। यहां गनियारी स्थित जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था का काम स्वास्थ्य सुधार पर है। लेकिन यहां के डॉक्टर स्वास्थ्य को सिर्फ इलाज तक ही सीमित नहीं मानते, बल्कि रोगों की रोकथाम के लिए पौष्टिक भोजन पर भी जोर देते हैं। इसके लिए बिना रासायनिक जैविक खेती का कार्यक्रम भी संचालित किया जा रहा है। आज इस कॉलम में इस पर चर्चा करना उचित रहेगा, जिससे स्वास्थ्य को समग्रता से समझा जा सके।

पिछले कुछ सालों से रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। खेती—किसानी का संकट बढ़ रहा है। लेकिन साथ ही साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में रासायनिक खेती के विकल्प के तौर पर कई छोटी-छोटी पहल हो रही हैं। इनमें से एक व्यवस्थित पहल छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में की जा रही है। इस पहल को देखने-समझने का मुझे कई बार मौका मिला है।

वैसे भी छत्तीसगढ़ कृषि विविधता के लिए जाना जाता है। यह वह इलाका है, जो धन-धान्य से भरपूर रहा है। यहां धान की सैकड़ों किस्में रही हैं। किसानों ने यहां धान की कई पद्धतियां विकसित की हैं। यहां के किसानों का खेती का पारंपरिक ज्ञान अनूठा है, जिसे संजोने की बहुत जरूरत है। इसी दिशा में जन स्वास्थ्य सहयोग की यह पहल महत्वपूर्ण है।

यह बदलाव की पहल साल 2000 में शुरू हुई। जन स्वास्थ्य सहयोग ने अपने करीब एक डेढ़ एकड़ की भाटा (कमजोर) ज़मीन पर बिना रासायनिक वाली जैविक खेती शुरूआत की, जो अब साढ़े चार एकड़ में फैल चुकी है। इसके साथ जिले के कई गांवों के किसान भी इससे जुड़ चुके हैं।

आज यहां धान की करीब 4 सौ से अधिक किस्में संग्रहीत हैं, जिनमें सुगंधित, लाल चावल वाली, जल्द पकने वाली और कुछ किस्में काले चावल की है।। इसके अलावा मडिया, कांग, ज्वार, मक्का और अरहर की किस्में हैं। चना, अलसी, कुसुम, मटर, भिंडी, उड़द आदि देशी किस्में भी हैं।

जन स्वास्थ्य सहयोग के कार्यकर्ता होम प्रकाश साहू इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। गनियारी में एक-दो डिसिमल की छोटी-छोटी क्यारियों में देशी धान का प्रयोग करीब दो दशक से ज्यादा से चल रहा है। मैं कई बार इस फार्म को देख चुका हूं और इसके प्रमुख कार्यकर्ता होम प्रकाश साहू से चर्चा की है। होम प्रकाश ने बताया कि धान की कई किस्में हैं जिनमें हरून धान 70 से 100 दिन वाली, मध्यम 100 से 120 दिन वाली और गहरून 120 से 145 दिन वाली हैं। जो अलग-अलग किस्म की मिट्टी वाली ज़मीन में होती हैं।

यहां धान के साथ पौष्टिक अनाज भी उगाए जाते हैं। जैसे यहां मडिया की खेती भी होती है। इसे रागी, नाचनी और मड़ुआ नाम से भी जाना जाता है। इसे हाथ की चक्की में दर कर खिचड़ी या भात बनाया जा सकता है। इसके आटे की रोटी भी बनाई जा सकती हैं। खुरमी या लड्डू भी बना सकते हैं। इसमें चूना (कैल्शियम) भरपूर मात्रा में होता है और कुछ मात्रा में लौह तत्व भी पाए जाते हैं। यहां इसके बिस्कुट भी बनाए जा रहे हैं।

होमप्रकाश साहू का कहना है कि मड़िया भाटा व कमजोर जमीन में भी होती है। इसके लिए कम पानी की जरूरत होती है। यानी अगर खेत में ज्यादा पानी रूकता है तो पानी की निकासी होनी चाहिए। उन्होंने खुद अपनी भाटा जमीन में इसका प्रयोग किया है। वे हर साल हरी खाद डालकर अपनी जमीन को उत्तरोत्तर उर्वर बना रहे हैं। सबसे पहले थरहा या नर्सरी तैयार करनी चाहिए। इसके लिए खेत में गोबर खाद डालकर दो बार जुताई करनी चाहिए। उसके बाद बीज डालकर हल्की मिट्टी और पैरा से ढक देना चाहिए जिससे चिड़िया वगैरह से बीज बच सकें। एक एकड़ खेत के लिए 3-4 सौ ग्राम बीज पर्याप्त हैं।

होमप्रकाश का कहना है कि जिस खेत में मड़िया लगाना है उसमें 6 से 8 बैलगाड़ी पकी गोबर की खाद डालकर उसकी दो बार जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 10-10 इंच की दूरी के निशान वाली दतारी को खड़ी और आड़ी चलाकर उसके मिलन बिंदु पर मड़िया के पौधे की रोपाई करनी चाहिए। पौधे के बाजू में कम्पोस्ट खाद या केंचुआ खाद को भी डाला जा सकता है।

इस पूरे प्रयोग में बाहरी निवेश करने की जरूरत नहीं है। अमृत पानी का छिड़काव अगर तीन बार किया जाए तो फसल की बढ़वार अच्छी होगी और पैदावार भी अच्छी होगी। अमृत पानी को जीवामृत भी कहा जाता है।

हाल ही में संस्था ने कोटा विकासखंड के 4-5 गांवों में आवारा पशुओं से फसल सुरक्षा के लिए खेतों की सामूहिक फैंसिंग की पहल की है, जिससे किसानों की खेती की सुरक्षा हो रही है। अब उन्हें रात-रात भर जागकर फसलों की सुरक्षा नहीं करनी होती, इससे वे उतेरा की फसल भी लेने लगे हैं। इससे किसानों की फसल सुरक्षा के साथ आमदनी में भी बढोतरी होगी।

उतेरा की फसल बारिश की नमी में ली जाती है। इसमें धान की फसल के बीच तिवड़ा ( खेसारी दाल),बटरी, अलसी, उड़द, सरसों व चना के बीज छिड़क दिए जाते हैं। यानी बारिश की नमी में ही दूसरी फसलें भी पक जाती हैं। यह छत्तीसगढ़ के किसानों का परंपरागत जाना माना तरीका है। जिसमें बारिश की नमी का सही उपयोग होता है और दो फसलें भी मिल जाती हैं।

पशुपालन भी इससे जुड़ा है। धान का पैरा ( ठंडल) मवेशियों को चराने के काम आता है। बैल खेतों में जुताई करते थे। यह सब एक दूसरे से जुड़ा है। फसलों की कटाई हाथ से हंसिए से की जाती है। ठंडल बहुत छोटे होते हैं और उन्हें जलाने की जरूरत नहीं पड़ती। और जो गाय- बैल का गोबर होता है, उसे खेतों में डालते हैं जिससे मिट्टी उपजाऊ बनती है। यह मवेशियों व मनुष्य में आपसी समझौता होता है। पशुओं को खेतों से चारा मिलेगा और वे खेतों को गोबर खाद देंगे।

परंपरागत खेती में आत्मनिर्भरता होती है। किसानों का खुद का देसी बीज, गोबर खाद और खुद हाथ की मेहनत होती है। और इसमें पीढ़ियों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग होता है। यह स्वावलंबी होती है।

जन स्वास्थ्य सहयोग का गनियारी में अस्पताल भी है, जहां सैकड़ों मरीज आते हैं, जो गांव में किसानी करते हैं। इस तरह की पहल को देखते हैं,यहां से बीज व तकनीक की जानकारी हासिल करते हैं। और इस तरह की खेती को अपनाते हैं। यहां से खेती के लिए बीज भी दिए जाते हैं।

कुल मिलाकर, जैविक खेती की यह पहल बहुत उपयोगी है। यह आत्मनिर्भर खेती की दिशा में पहल तो है ही, साथ ही इससे स्वास्थ्य में भी सुधार होगा। इसमें देशी बीजों के संरक्षण के साथ परंपरागत ज्ञान का भी संरक्षण हो रहा है। मिट्टी पानी के साथ जैव विविधता की भी सुरक्षा हो रही है। खेती में लागत भी कम आती है। अगर हम परंपरागत खेती की बात करें तो इसमें खेत के साथ पशुपालन का भी जुड़ाव होता है। पशुपालन, जो रासायनिक खेती में पीछे छूट जाता है, पारंपरिक खेती में उसे प्रमुखता दी जाती है। इससे पौष्टिक भोजन मिलता है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहतर है। देशी बीजों की एक और खास बात है कि वे जलवायु बदलाव का मुकाबला करने में सक्षम होते हैं। चूंकि देशी बीजों की कई किस्में होती हैं, जिसे मिट्टी-पानी,जलवायु के हिसाब से किसान चुनते हैं, और खेतों में उगाते हैं, जिससे वे प्रतिकूल मौसम का भी मुकाबला कर सकते हैं। इस दृष्टि से यह पहल महत्वपूर्ण है। इसलिए यह पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।


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