'एक देश एक चुनाव' संघीय ढांचे के लिए खतरा?
केंद्र सरकार द्वारा मंगलवार को संसद में 'एक देश एक चुनाव' का बिल पेश किया गया

- दयानंद मिश्र 'शुभम'
एक सच्चाई ये भी है कि चुनाव आयोग पर आर्थिक बोझ दिखा कर भाजपा और अन्य दल अपना खर्च कम करना चाहते हैं। सीएमसी के अनुसार 2019 के लोस में खर्च हुए 60 हज़ार करोड़ में से बीजेपी का हिस्सा 45प्रतिशत था। और भाजपा का खर्च अमूमन 2014 के बाद हर चुनाव में बढ़ता ही जा रहा है।
केंद्र सरकार द्वारा मंगलवार को संसद में 'एक देश एक चुनाव' का बिल पेश किया गया, जो भारत की चुनाव व्यवस्था में बड़े बदलाव की कोशिश करता है। यह बिल कई दृष्टिकोणों से देश के संघीय ढांचे, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनावी व्यवस्था को प्रभावित करेगा। हालांकि सरकार का कहना है कि यह बिल राजनीतिक स्थिरता, प्रशासनिक दक्षता और संसाधनों की बचत के लिए जरूरी है। सड़क से लेकर सदन तक सत्ता पक्ष इसके फायदे बिना रही है, लेकिन विपक्ष इसके अव्यवहारिकता और संवैधानिक चुनौतियों को लेकर चिंता जाहिर कर रहा है जो वाजिब भी है।
सत्ता पक्ष के अनुसार केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ होने पर चुनाव आयोग के खर्च में कमी आएगी। चुनावों के समय होने वाली घटिया आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से उत्पन्न कटुता और वैमनस्य कम होगा। सरकारें इलेक्शन मोड के लोकलुभावन निर्णयों के स्थान पर नेशन बिल्डिंग मोड के कठोर फैसले लेने में समर्थ होंगी। निश्चित ही इन परिवर्तनों से हमारा देश मजबूत होगा। किंतु प्रश्न यह है कि क्या इन परिवर्तनों को लाने का एकमात्र जरिया केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ कराना ही है? जब आप इन रंगीन भ्रांतियों का शिनाख्त करेंगे तो सच्चाई कुछ और निकलेगा।
इस बिल के चर्चा में आने के बाद से सबसे ज्यादा इसके आर्थिक फायदा गिनाए जा रहे हैं। जहां तक चुनाव आयोग के खर्च का प्रश्न है तो 2014 के लोकसभा चुनाव में लगभग 3000 करोड़ और 2019 में 4500 करोड़ रुपए का व्यय आकलित किया गया था। वही सिस्टम की लापरवाही के कारण पूंजीपतियों और भगोड़ों द्वारा देश के विभिन्न बैंकों को ऋ ण/एनपीए के रूप में जो क्षति पहुंचाई गई, उसकी तुलना में ये राशि बहुत कम है। ये राशि केंद्र सरकार द्वारा अपने ब्रांडिंग और विज्ञापनों पर किए गए खर्च से भी कम है। वर्ष 2014-23 तक पूंजीपतियों के करीब 14.56 लाख करोड़ की राशि माफ की गई। तो वही सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2014-22 तक विज्ञापनों पर 6500 करोड़ खर्च किए गए। इतने राशि में कई चुनाव कराए जा सकते है।
एक सच्चाई ये भी है कि चुनाव आयोग पर आर्थिक बोझ दिखा कर भाजपा और अन्य दल अपना खर्च कम करना चाहते हैं। सीएमसी के अनुसार 2019 के लोस में खर्च हुए 60 हज़ार करोड़ में से बीजेपी का हिस्सा 45प्रतिशत था। और भाजपा का खर्च अमूमन 2014 के बाद हर चुनाव में बढ़ता ही जा रहा है।
अगर सच में मोदी सरकार चुनाव आयोग के खर्चे पर लगाम लगाकर जनता पर आर्थिक बोझ कम करना चाहती है तो उसे 'एक देश एक चुनाव' के बदले एक ऐसा कानून लाना चाहिए कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का एक तय हिस्सा चुनाव आयोग को दिया जाएगा। इन्ही पैसे से चुनाव आयोजित होंगे। इससे जनता का ख़र्च कम होगा और चंदे को लेकर भी पारदर्शिता आएगी।
बात-बात पर नेहरू को कोसने वाली जमात का दावा है कि आजादी के बाद सारे चुनाव एक साथ हुए इसलिए 'एक देश एक चुनाव' लागू किया जाना चाहिए। चूंकि सामान्य सी समझ है आरम्भ में दोनों चुनाव एक साथ ही होना था, ये स्वाभाविक परिणति थी। कालांतर में इन दोनों चुनाव चक्रों का अलग-अलग होना भी स्वाभाविक था। संविधान निर्माता यह जानते थे। इसमें कोई विकृति नहीं है इसलिए चुनाव एकीकरण के लिए कोई कानून की जरूरत नहीं समझे।
दावा यह भी है कि एक बार चुनाव होने से मतदान प्रतिशत में वृद्धि होगी। लेकिन आंकड़े बताते है कि देश के बड़े सूबे उ.प्र., महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार सहित कई राज्यों में लोकसभा के तुलना में विधानसभा में अधिक वोटिंग हुआ है। मतलब मतदाताओं का क्षेत्रीय मुद्दों की तरफ ज्यादा रुझान है। वहीं यह भी तर्क दिया जा रहा है कि बार- बार आचार संहिता की वजह से विकास कार्य प्रभावित होता है। अगर इसे सच्चाई भी मान लें तो इसके लिए संघीय ढांचे को नष्ट कर, शक्तियों का केंद्रीकरण करने की जरूरत नहीं है बल्कि चुनाव संहिता में आमूलचूल परिवर्तन से या एक साल में होने वाले सारे चुनावों को एक समय पर सम्पन्न कराकर प्रशासनिक सुधारों और विकास कार्यों को गति दी सकती है।
विपक्ष ने कोविंद समिति के सामने संविधान के मूल संरचना का उल्लंघन का मुद्दा उठाया था, जिसका रिपोर्ट में भी जिक्र है। दरअसल 'एक देश एक चुनाव' संघीय ढांचे के विपरीत क्षेत्रीय दलों को कमजोर और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा। एक साथ चुनाव होने से क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। और केंद्र की शक्तियों में वृद्धि होगी। इस कानून के मुताबिक लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के साथ ही विधानसभा का कार्यकाल स्वत: समाप्त हो जाएगा। इससे राज्य के मंत्री परिषद और विधानसभा के अधिकारों में भारी कटौती होगी। राज्यपाल और राष्ट्रपति शासन द्वारा केंद्र में बैठी दल का राज्य में परोक्ष रूप से शासन होगा। बिल के मुताबिक अगर कोई राज्य सरकार बहुमत खो देती है तो वहां सिर्फ बचे हुए कार्यकाल के लिए मध्यावधि चुनाव होंगे। मतलब चुनाव पर खर्च तभी होगा, बस विधानसभा को 5 साल सरकार चलाने का अधिकार छीन जाएगा। कुल मिलाकर इस प्रस्ताव से चुनाव एक बार में हो या न हो लेकिन एकदलीय प्रणाली को बढ़ावा जरूर मिलेगा, केंद्र में काबिज दल की शक्ति बढ़ेगी जो सीधा संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देगी।
(लेखक पत्रकार एवं चुनावी रणनीतिकार हैं)


