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भारत में कृषि मार्केटिंग पर एक बार फिर से बवाल

भारत के किसान पहले से ही केंद्र के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं

भारत में कृषि मार्केटिंग पर एक बार फिर से बवाल
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- डॉ. ज्ञान पाठक

हरियाणा और पंजाब दोनों के किसानों और उनके यूनियनों ने भी कृषि विपणन पर केंद्र की मसौदा नीति पर अपनी चिंता व्यक्त की है। कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ढांचे के मसौदे के बारे में किसानों की चिंताएं लगभग वैसी ही हैं जैसी तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के संबंध में थीं, जिन्हें मोदी सरकार ने अगस्त 2020 में भारत की संसद से पारित कराया था।

भारत के किसान पहले से ही केंद्र के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं। साथ ही एमएसपी की गणना के लिए स्वामीनाथन फॉर्मूला सी2+50 प्रतिशत को लागू करने की मांग भी कर रहे हैं ताकि उन्हें अपनी उपज के लिए लाभकारी मूल्य मिल सके। ध्यान रहे कि सी2 उत्पादन की समस्त लागत है जिसमें उत्पादन की वास्तविक लागत, पारिवारिक श्रम, स्वामित्व वाली भूमि पर लगाया गया किराया और स्वामित्व वाली पूंजी पर ब्याज शामिल है।

देश में किसानों के आंदोलन का दूसरा चरण 13 फरवरी, 2024 से शुरू हो चुका है और इसका अंत होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि केंद्र सरकार आंदोलनकारी किसानों से बात करने को भी तैयार नहीं है, जबकि किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल 26 नवंबर से पंजाब-हरियाणा सीमा पर खनौरी में आमरण अनशन पर हैं। किसानों के आंदोलन के जारी रहने के संकेत तो मिल रहे हैं, लेकिन कृषि विपणन पर नये विवाद भी सामने आ रहे हैं। इसकी वजह कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति रूपरेखा का मसौदा है, जिसे 25 नवंबर, 2024 को केंद्रीय मंत्रालय की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया है, जिसमें हितधारकों से 15 दिनों के भीतर टिप्पणियां आमंत्रित की गयी थीं।

मसौदा नीति रूपरेखा को किसान यूनियनों ने पहले ही वापस लिये गये तीन विवादास्पद कृषि कानूनों - किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा समझौता अधिनियम, और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम - के लिए पिछले दरवाजे से प्रवेश का प्रयास करार दिया है। प्रतिक्रिया के लिए दी गयी सीमित समय-सीमा ने भी केंद्र की वास्तविक मंशा के बारे में किसानों के बीच संदेह पैदा करने में योगदान दिया है।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने 2 जनवरी, 2025 को चंडीगढ़ में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया कि केंद्र कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ढांचे के माध्यम से निरस्त किये जा चुके कृषि कानूनों को पिछले दरवाजे से 'वापस लाने' की कोशिश कर रहा है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि केंद्र ने हाल ही में इस नयी नीति का मसौदा तैयार किया है।

कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ढांचे के मसौदे को खारिज करते हुए, जिसे पिछले महीने राज्य सरकारों को टिप्पणियों के लिए भेजा गया था, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा कि उनकी सरकार पिछले दरवाजे से ऐसे 'किसान विरोधी' कानूनों को पारित करने के केंद्र के किसी भी कदम का विरोध करेगी।

मुख्यमंत्री मान ने कहा, 'केंद्र ने अब निरस्त किये जा चुके कृषि कानूनों को वापस ले लिया था। अब वे इन्हें किसी और तरीके से वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं।' उन्होंने कहा, 'पंजाब और हरियाणा की मंडी प्रणाली बहुत मजबूत है और वे फिर से इस प्रणाली को खत्म करने की बात कर रहे हैं। हम इसका समर्थन नहीं करते हैं। कृषि राज्य का विषय है। उन्होंने मसौदे पर हमसे सुझाव मांगे हैं, लेकिन पंजाब इसे स्वीकार नहीं कर सकता... हम लिखित में भेज रहे हैं कि हम इसे स्वीकार नहीं करने जा रहे हैं।'
मसौदा नीति किसानों की अपनी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी और एमएसपी की गणना के लिए स्वामीनाथन फार्मूले को लागू करने की मौजूदा मांग पर चुप है। हालांकि, इसमें 12 सुधारों की बात की गयी है, जिसमें निजी थोक बाजार स्थापित करने की अनुमति देना और प्रोसेसर, निर्यातकों, संगठित खुदरा विक्रेताओं और थोक खरीदारों द्वारा प्रत्यक्ष थोक खरीद की अनुमति देना शामिल है।

हरियाणा और पंजाब दोनों के किसानों और उनके यूनियनों ने भी कृषि विपणन पर केंद्र की मसौदा नीति पर अपनी चिंता व्यक्त की है। कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ढांचे के मसौदे के बारे में किसानों की चिंताएं लगभग वैसी ही हैं जैसी तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के संबंध में थीं, जिन्हें मोदी सरकार ने अगस्त 2020 में भारत की संसद से पारित कराया था। संयुक्त किसान मोर्चा ने कानूनों के खिलाफ दिल्ली मार्च का आह्वान किया था और किसानों को 26 नवंबर, 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर रोक दिया गया था, जहां वे अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गये थे। किसानों के आंदोलन के एक साल बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु पर्व के अवसर पर नवंबर 2021 में विवादास्पद कृषि कानूनों को एकतरफा वापस ले लिया था। दिसंबर 2021 में केंद्र की ओर से उनकी वास्तविक मांगों पर विचार करने के लिखित आश्वासन पर ऐतिहासिक किसान आंदोलन वापस ले लिया गया था।

हालांकि, जब एक साल बाद भी आश्वासन पूरा नहीं होने से किसान ठगा हुआ महसूस करने लगे तो उन्होंने अगले महीनों में विरोध प्रदर्शनों की एक श्रृंखला के माध्यम से 26 नवंबर, 2023 से आंदोलन का दूसरा चरण शुरू किया। संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा ने जनवरी 2024 में दिल्ली मार्च का आह्वान किया। उन्होंने 13 फरवरी, 2024 को पंजाब से अपना मार्च शुरू किया, लेकिन हरियाणा पुलिस ने शंभू और खनौरी सीमाओं पर उन्हें रोक दिया। तब से वे धरने पर वहीं बैठे हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम), जिसने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के पहले चरण का नेतृत्व किया था, जिसके बारे में उनका आरोप था कि ये कानून किसान विरोधी हैं और केंद्र सरकार कॉर्पोरेट को खेतों तक लाने का प्रयास कर रही है, ने 23 दिसंबर, 2024 को कृृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ढांचे के मसौदे के खिलाफ भी देशव्यापी विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। उन्होंने 500 से अधिक जिलों के जिला कलेक्टरों और मजिस्ट्रेटों के माध्यम से ज्ञापन भेजे हैं, जिनमें भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से इस मुद्दे पर केंद्र के साथ बातचीत को सुगम बनाने के लिए हस्तक्षेप करने की मांग की गयी।

किसान यूनियनों का आरोप है कि नई मसौदा नीति भी किसान विरोधी, कॉरपोरेट समर्थक और कॉरपोरेट को खेती में लाने का प्रयास है। वर्तमान मसौदा नीति का वास्तविक उद्देश्य वही है जो 2020 के निरस्त किये गये तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का था, जिसके खिलाफ एसकेएम ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन का नेतृत्व किया था।

दूसरी ओर केंद्र ने दावा किया है कि कृषि विपणन पर प्रस्तावित राष्ट्रीय नीति रूपरेखा किसानों की बेहतर आय के लिए एकीकृत कृषि बाजार की स्थापना करेगी और बाजार की दक्षता को बढ़ायेगी। फिर भी, मसौदा नीति को अन्य राज्यों द्वारा भी कड़े विरोध का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि इसमें जीएसटी परिषद की तर्ज पर एक सुधार समिति का प्रस्ताव है, जिसे राज्यों के बीच आम सहमति बनाने और सुधारों को अपनाने की निगरानी करने की उम्मीद है। पंजाब ने पहले ही अपनी चिंता व्यक्त करते हुए आरोप लगाया है कि यह संघीय ढांचे को कमजोर करता है, वह भी कृषि जैसे राज्य के विषय पर, और राज्यों को राजस्व के लिए केंद्र पर अधिक निर्भर बना देगा।


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