Top
Begin typing your search above and press return to search.

संघ कुनबे में अब भागवत नहीं, मोदी ही सर्वशक्तिमान

जिस भाजपा में कुछ साल पहले तक संघ की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं खड़कता था

संघ कुनबे में अब भागवत नहीं, मोदी ही सर्वशक्तिमान
X
  • अनिल जैन

जिस भाजपा में कुछ साल पहले तक संघ की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं खड़कता था, वहां देखते ही देखते स्थिति यह बन गई कि मोदी और शाह ने जिसको चाहा उसे मुख्यमंत्री, मंत्री और राज्यपाल बनाया। कई मामलों में संघ की सलाह अथवा पसंद को दोनों नेताओं ने बड़े आराम से नज़रअंदाज किया।

यह बहस का बिल्कुल बेमानी है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन राव भागवत 75 वर्ष के हो जाने पर अपना पद छोड़ देंगे? दोनों ही नेता आगामी कुछ दिनों बाद अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे करने वाले हैं। इस बहस का आधार यह रहा है कि 11 साल पहले भाजपा में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का युग शुरू होने के बाद भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को इस आधार पर 'मार्गदर्शक' बनाकर घर बैठा दिया गया था कि उनकी उम्र 75 साल से ज्यादा हो गई है। मोदी और शाह के इस फैसले को उस समय संघ नेतृत्व ने भी मौन समर्थन दिया था।

जिन नेताओं को 75 साल का होने पर 'मार्गदर्शक मंडल' नामक कूड़ेदान में डाला गया था, उनमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा आदि शामिल थे। इन नेताओं को किनारे करने के बाद भी मोदी और शाह ने अगले पांच साल तक यह अभियान जारी रखा और 2019 के लोकसभा चुनाव में कई नेताओं को 75 साल का होने पर घर बैठाया। हालांकि ऐसे कई नेताओं को, जो मोदी और शाह की 'गुडबुक्स' में थे, उन्हें राज्यपाल बनाकर उनका पुनर्वास कर दिया गया। उनमें से कई नेता तो 80 साल से ज्यादा के होने बावजूद राज्यपाल बने रहे और आनंदीबेन पटेल तो अभी 84 साल की उम्र में भी उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनी हुई हैं।

हालांकि 2019 से 2024 आते-आते 75 साल की उम्र में नेताओं को घर बैठाने का यह पैमाना खत्म हो गया। भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में ऐसे कई नेताओं को उम्मीदवार बनाया जो 75 वर्ष के करीब थे या 75 पार कर चुके थे। केरल में 2021 के विधानसभा चुनाव में तो पार्टी ने रिटायर्ड नौकरशाह ई. श्रीधरन को 89 वर्ष की उम्र में न सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ाया था बल्कि उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर भी प्रस्तुत किया था।

बहरहाल, कहने का आशय यह है कि भाजपा के संविधान में 75 वर्ष की आयु सीमा वाला कोई प्रावधान नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी 1998 में दूसरी बार 74 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे और 79 वर्ष की उम्र तक उस पद पर बने रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी भी 2004 में 77 वर्ष की उम्र में लोकसभा में नेता विपक्ष बने थे और 2009 के लोकसभा चुनाव में भी वे एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। जहां तक संघ की बात है, उसका तो कोई संविधान ही नहीं है और वहां सब कुछ परंपरा के आधार पर चलता है। संघ के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने 81 वर्ष की उम्र में बीमारी की वजह से पद छोड़ा था। उनके बाद सरसंघचालक बने प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया ने 78 वर्ष की उम्र में बीमारी की वजह से ही पद छोड़ा था। उनके बाद पांचवे सरसंघचालक केएस सुदर्शन से भी 81 वर्ष की उम्र में पद छुड़वाया गया था। इसलिए कोई कारण नहीं है कि मोहन भागवत 75 वर्ष पूरे करने पर पद छोड़ दें।

दरअसल मोहन भागवत का 75 वर्ष पूरे होने पर रिटायर होने का सुझाव परोक्ष रूप से मोदी को निशाना बनाकर ही दिया गया था, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पूरा संघ अब मोदी से छुटकारा पाना चाहता है। यही वजह है कि भागवत के बयान के तीसरे ही दिन उस पर संघ की ओर से सफाई दी गई कि भागवत के बयान का प्रधानमंत्री मोदी से कोई संबंध नहीं है। हालांकि इस सफाई में यह स्पष्ट नहीं हुआ कि यह सफाई आरएसएस के किस पदाधिकारी या प्रवक्ता ने दी है। पूरी खबर संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के हवाले से दी गई है लेकिन उस वरिष्ठ पदाधिकारी का नाम खबर में कहीं नहीं दिया गया। जाहिर है कि यह बेनामी सफाई एक तरह से मीडिया में रोपी हुई खबर थी, जो यह बताती है कि संघ में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और भाजपा के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व पर भी संघ का अब वैसा काबू नहीं रह गया है, जैसा एक दशक पहले तक हुआ करता था।

दरअसल नरेन्द्र मोदी कभी भी संघ की स्वाभाविक पसंद नहीं रहे। भाजपा की राजनीति में आडवाणी को किनारे कर दिए जाने के बाद संघ ने नितिन गडकरी को भविष्य के नेता के तौर पर आगे किया था। संघ चाहता था कि भाजपा 2014 का चुनाव गडकरी की अगुवाई में ही लड़े। इसलिए उन्हें पार्टी अध्यक्ष का दूसरा कार्यकाल देने का फैसला भी संघ कर चुका था, परंतु आडवाणी खेमा यूपीए सरकार के वित्त मंत्री पी.चिदंबरम की मदद से गडकरी के कारोबारी ठिकानों पर आयकर के छापे डलवा कर उन्हें विवादास्पद बनाते हुए अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर करने में कामयाब हो गया था। उधर मोदी पहले से ही दिल्ली की राजनीति में कूदने के लिए तैयारी कर रहे थे। उन्होंने अपने कॉरपोरेट शुभचिंतकों और उनके द्वारा पोषित मीडिया के जरिये ऐसा माहौल बनवा दिया था कि अब मोदी ही भाजपा को सत्ता तक ले जा सकते हैं। चूंकि 2014 के चुनाव में ज्यादा समय नहीं बचा था लिहाजा संघ को मजबूरी में मोदी के नाम पर सहमत होना पड़ा।

भाजपा ने 2014 का चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ा और पूर्ण बहुमत के साथ वह सत्ता में आई। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी और मोहन भागवत की जुगलबंदी लंबे समय तक चली। इसी जुगलबंदी के चलते ही न सिर्फ संघ के भौतिक संसाधनों में अथाह बढ़ोतरी हुई, बल्कि संघ के पदाधिकारियों और प्रचारकों की जीवनशैली में भी आमूल-चूल बदलाव आया। सरकार के स्तर पर संघ के एजेंडा पर तेजी से अमल होने लगा। सत्ता और संगठन के पदों पर भी संघ की लगभग हर पसंद को प्राथमिकता दी गई। मगर इस बीच दूसरी ओर मोदी ने मीडिया की मदद से अपने कद को ऊंचा कर लिया कि संघ ही नहीं बल्कि भाजपा सहित संघ के सभी आनुषंगिक संगठन उनके आगे बौने नजर आने लगे।

जिस भाजपा में कुछ साल पहले तक संघ की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं खड़कता था, वहां देखते ही देखते स्थिति यह बन गई कि मोदी और शाह ने जिसको चाहा उसे मुख्यमंत्री, मंत्री और राज्यपाल बनाया। कई मामलों में संघ की सलाह अथवा पसंद को दोनों नेताओं ने बड़े आराम से नज़रअंदाज किया। इस सिलसिले में पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के उस बयान को भी देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'भाजपा अब आत्मनिर्भर हो चुकी है और उसे अब चुनाव जीतने के संघ की जरूरत नहीं रह गई है।' हालांकि बाद में उन्होंने सफाई दी कि उनके कहने का वह आशय नहीं था जो समझा गया, लेकिन मोदी जो संदेश संघ नेतृत्व को देना चाहते थे वह उन्होंने जेपी नड्डा से दिलवा दिया। यही नहीं, जब मोहन भागवत ने 75 साल की उम्र होने पर रिटायर होने वाला बयान दिया तो उसका जवाब भी भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और मध्य प्रदेश के वयोवृद्ध भाजपा नेता रामकृष्ण कुसमरिया जैसे नेताओं के जरिये दिलवाया जा चुका है। निशिकांत दुबे ने कहा है कि अगले 10-15 साल तक तो मोदी के बगैर भाजपा की कल्पना भी किसी को नहीं करनी चाहिए।

पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में जब भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो यह माना जा रहा था कि अब भाजपा और मोदी पर संघ का शिकंजा मजबूत हो जाएगा लेकिन मोदी ने इस धारणा को भी कई मौकों पर तोड़ा। यही वजह है कि भाजपा के अध्यक्ष पद पर संघ अभी तक अपनी पसंद का अध्यक्ष बैठाने में सफल नहीं हो सका है और पिछले डेढ़ साल से जेपी नड्डा ही तदर्थ अध्यक्ष के रूप में बने हुए मोदी की मंशा के अनुरूप काम कर रहे हैं।

दरअसल संघ में इस समय दो खेमे हैं। एक खेमा महाराष्ट्र के संघ पदाधिकारियों और प्रचारकों का है, जो अब मोदी को घर बैठाना चाहता है, जबकि दूसरा खेमा महाराष्ट्र के बाहर के पदाधिकारियों और प्रचारकों का है जो मोदी का कट्टर समर्थक है। दूसरे खेमे के नेता दत्तात्रेय होसबोले हैं जो संघ के सर कार्यवाह हैं। संघ में सर कार्यवाह ही मुख्य कार्यकारी होता है। संघ के कुनबे में मोदी अभी भी इतने ताकतवर हैं कि उन्हें हटाने का फैसला कोई नहीं कर सकता। हां, वे चाहें तो संघ नेतृत्व में जब चाहे तब बदलाव जरूर करवा सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it