युद्ध और शांति के खेल में नोबेल
वैश्विक राजनीति में किस तरह नोबेल पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मान की आड़ में नए खेल रचे जा रहे हैं

वैश्विक राजनीति में किस तरह नोबेल पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मान की आड़ में नए खेल रचे जा रहे हैं, इसका ताजा उदाहरण 2025 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार के लिए घोषित नाम पर सामने आया। वेनेजुएला की राजनेता मारिया कोरिना मचाडो को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है। समिति ने इसका ऐलान करते हुए कहा कि 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार शांति के एक साहसी और ऐसी चैंपियन को दिया जाता है, जो बढ़ते अंधकार के बीच लोकतंत्र की लौ को जलाए रखती है।
बता दें कि मारिया कोरिना मचाडो को वेनेजुएला की 'आयरन लेडी' भी कहा जाता है, उन्होंने स्वतंत्र चुनावों को बढ़ावा देने वाले नागरिक समाज समूह सुमाते और लोकतांत्रिक परिवर्तन की वकालत करने वाले गठबंधन सोयवेनेजुएला की स्थापना में सहायता की। वे 2010-2015 से नेशनल असेंबली की सदस्य रही हैं। बताया जाता है कि पिछले कुछ सालों में मारिया को छिपकर रहना पड़ा था, क्योंकि उनकी जान को खतरा था, लेकिन वो देश छोड़कर नहीं गईं। नोबेल समिति का कहना है कि वेनेजुएला में रहना उनका फैसला था, जिससे कई लोगों को प्रेरणा मिली। जब तानाशाह सत्ता पर कब्जा कर लेते हैं, तो स्वतंत्रता के लिए लड़ने और सत्ता का विरोध करने वाले लोगों को पहचानना जरूरी होता है।
लेकिन यही पूरा सच नहीं है। न ही मचाडो दुनिया में अकेली ऐसी नेता हैं। दुनिया के कई देशों में सत्ता की मनमानी और लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज़ें उठाई जा रही हैं, सत्ता के दमन और अत्याचारों का सामना किया जा रहा है।
मचाडो अगर लोकतंत्र के लिए संघर्ष करती रही हैं, तो दूसरी तरफ वे युद्ध के तरीकों की हिमायत भी करती रही हैं। खासकर इजरायल की वे समर्थक रही हैं। गज़ा पर बमबारी को वो इजरायल का सही फैसला मानती हैं। साथ ही मारिया अपने खुद के देश में सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विदेशी ताकतों की मदद लेने से भी नहीं कतराती हैं। 2018 में उन्होंने इजरायल और अर्जेंटीना को खत लिखकर वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को पद से हटाने की अपील की थी। 2 साल पहले अपनी एक पोस्ट में मारिया ने लिखा था कि 'वेनेजुएला का संघर्ष भी इजरायल की तरह है।' मारिया ने यहां तक कहा था कि अगर वो सत्ता में आईं तो इजरायल की आजादी में पूरी मदद करेंगी।
ऐसे में सहज ही सवाल उठता है कि जिस इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पर युद्ध के आरोप हों, जिनकी बर्बरता पिछले दो सालों में दुनिया ने देखी है, उसका समर्थन करने वाला कोई भी शख्स आखिर किस तरह नोबेल शांति पुरस्कार का हकदार हो सकता है।
लोकतंत्र की बात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी करते हैं, बल्कि वे तो दुनिया में सात ऐसे युद्धों को बंद करवाने का दावा करते हैं, जिनके खत्म होने की संभावनाएं नहीं थीं और वे जारी रहते तो भीषण तबाही होती। भारत और पाकिस्तान के बीच जंग रोकने का दावा भी कम से कम 40 बार ट्रंप कर चुके हैं, जिसे पाकिस्तान ने तो माना है, भारत ने इससे इंकार किया है। हालांकि फिर भी ट्रंप को झूठा कहने की हिम्मत नरेन्द्र मोदी ने अब नहीं दिखाई है। बहरहाल, इन युद्धों को रुकवाने की वजह से ट्रंप खुद को शांति पुरस्कार का सबसे बड़ा दावेदार मान चुके थे। कई बार इसका सार्वजनिक इजहार उन्होंने किया। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने बाकायदा कहा कि वे ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार देने की सिफारिश करते हैं। फिर गज़ा शांति समझौते के बाद जिस तरह अमेरिका समर्थक तमाम देशों ने ट्रंप की वाहवाही के ट्वीट किए, उससे जाहिर हुआ कि नोबेल शांति पुरस्कार के लिए जमकर गुटबंदी हो रही है। हालांकि मचाडो को पुरस्कार मिलने की घोषणा के बाद ट्रंप की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। लेकिन मचाडो ने इस पुरस्कार को ट्रंप को समर्पित करने के साथ ही संकेत दे दिए कि अभी वैश्विक राजनीति में युद्ध और शांति के खेल की लंबी पारी उन्हें खेलनी है।
इस बीच गज़ा शांति समझौते के बाद सोमवार को जब इजरायल और हमास के बीच कैदियों का आदान-प्रदान होना था, तब डोनाल्ड ट्रंप इजरायल पहुंच चुके थे। यहां उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया। इस दौरान ट्रंप ने इजरायल और हमास के समझौते को अपनी 'आठवीं हल की गई संघर्ष' उपलब्धि बताया और यह भी कहा कि मैंने ये सब नोबेल के लिए नहीं किया। यहां ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान का जिक्र भी किया कि अगर ये दोनों देश फिर युद्ध की ओर बढ़े, तो मैं टैरिफ लगाऊंगा। यह वही पुरानी धमकी है, जो मई में भी ट्रंप ने दी थी।
तो मचाडो हों या ट्रंप, इनका इतिहास और वर्तमान यही सुझा रहा है कि दोनों ही शांति पुरस्कार के सही हकदार नहीं थे। ट्रंप को तो खैर नोबेल पुरस्कार मिला ही नहीं, लेकिम मचाडो को देने से क्या पुरस्कार की गरिमा कम हुई है, यह सवाल वैश्विक पटल पर उभरा है। अमेरिका स्थित मुस्लिम अधिकारों के लिए बने संगठन काउंसिल ऑन अमेरिकन-इस्लामिक रिलेशन ने नोबल समिति को अपने फैसले पर फिर से विचार करने का सुझाव दिया है। संगठन का कहना है, 'नोबल समिति को एक बार फिर से सोचना चाहिए। मारिया को यह पुरस्कार देने से नोबल की छवि को गहरा झटका लग सकता है।'
वैसे मारिया कोरिनो मचाडो को पुरस्कार मिलने के साथ ही अमेरिका और रूस फिर आमने-सामने दिख रहे हैं। दरअसल मारिया को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन है, वहीं, वेनेजुएला के राष्ट्रपति मादुरो को पुतिन का साथ मिला हुआ है। रूस और वेनेजुएला ने 10 साल के एक रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। जिसमें रक्षा, ऊर्जा, व्यापार और सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सहयोग शामिल है। अमेरिका के साथ राजनयिक संबंध टूटने के बाद वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो ने रूस से हाथ मिलाया है।
इधर अगस्त में ट्रंप ने मादुरो की गिरफ्तारी में सहायता करने वाले को 5 करोड़ डॉलर के ईनाम की घोषणा भी की थी, जो ओसामा बिन लादेन पर रखे ईनाम से भी ज्यादा है।
अमेरिका अगर वेनेजुएला में अपनी पसंद की सरकार बनवाता है, तो उसमें सबसे ऊपर नाम मारिया का ही आएगा। वहीं मादुरो को रूस और ईरान का साथ मिल सकता है। जिसके बाद एक नयी जंग छिड़ने की आशंका गहराएगी।


